भगत सिंह ने क्यों कहा था दंगों को केवल ट्रेड यूनियनें ही रोक सकती हैं?
23 मार्च 1931 को साढ़े तेईस वर्ष की उम्र में फांसी पर चढ़ा दिए गए भगत सिंह को भारतीय जनता ने शहीदे आजम के तौर पर नवाजा। इतनी कम उम्र और निरंतर क्रांतिकारी गतिविधियों के बीच उन्होंने व्यापक अध्ययन और लेखन किया।
उनके लिखे को पढ़ने से उनकी तस्वीर एक गहन अध्येता एवं चिंतक की बनती है। भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना के बाद सांप्रदायिक नजरिया एवं सांप्रदायिक दंगे एक गंभीर समस्या के रूप में सामने आए।
1924 में दिल दहला देने वाला एक दंगा लाहौर में हुआ। इस दंगे के बाद भगत सिंह ने ‘सांप्रदायिक दंगे और उनका इलाज’ शीर्षक एक लेख लिखा।
इस लेख में दंगो के दौरान पैदा होने वाले धर्म आधारित नफरत के जहर और इन दंगों में नेताओं एवं मीडिया की भूमिका का जिस तरह से वर्णन भगत सिंह ने किया है, उसको पढ़कर लगता है कि जैसे वे 96 वर्ष पूर्व के 1924 के दंगों की नहीं, बल्कि फरवरी 2020 के दिल्ली के बर्बर दंगों की बात कर रहे हों और आज के भारत की हालात का बयान कर रहों।
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वे लिखते है- “भारतवर्ष की दशा इस समय बड़ी दयनीय है।.. अब तो एक धर्म का होना ही दूसरे धर्म का कट्टर शत्रु होना है। यदि यकीन न हो तो लाहौर के ताजा दंगे ही देख लें।….यह मारकाट इसलिए नहीं की गई है कि फलां आदमी दोषी है, वरना फलां आदमी हिंदू है या सिख है या मुसलमान है।..किसी व्यक्ति का मुसलमान होना ही उसकी जान लेने के लिए पर्याप्त तर्क था।..ऐसी स्थिति में हिंदुस्तान का भविष्य बहुत अंधकारमय नजर आता है। इन धर्मों ने हिंस्दुतान का बेडा गर्क कर दिया।” ( सांप्रदायिक दंगे और उनका इलाज, 1928)।
भगत सिंह दंगों को भड़काने के लिए सांप्रदायिक नेताओं और मीडिया को मुख्य रूप में जिम्मेदार मानते हैं। हममें से हर कोई इस तथ्य से वाकिफ है कि दिल्ली के दंगों को भड़काने के लिए भी भाजपा के सांप्रदायिक नेता और मीडिया मुख्य रूप से जिम्मेदार रहे हैं।
भगत सिंह दो टूक लिखते हैं- “ जहां तक देखा गया है, दंगों के पीछे सांप्रदायिक नेताओं और अखबारों का हाथ है।” इस लेख में नेताओं के सांप्रदायिक चरित्र और दंगों में उनकी भूमिका को उन्होंने बेबाकी से रेखांकित किया है।
नेताओं के बाद वे दंगों के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार मीडिया को मानते हैं। उस दौर ( 1928) में मीडिया के तौर पर अखबार ही थे।
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दंगों को भड़काने में अखबारों की भूमिका को रेखांकित करते हुए वे लिखते हैं- “ दूसरे सज्जन जो सांप्रदायिक दंगों को भड़काने में विशेष हिस्सा लेते रहे हैं, वे अखबार वाले हैं।” फिर वे विस्तार से इस तथ्य की चर्चा करते हैं कैसे अखबारों ने इन दंगों को भड़काने में अहम भूमिका अदा की।
भगत सिंह इस लेख में अखबारों ( मीडिया) के वास्तविक कर्तव्यों की भी चर्चा करते हैं और बताते हैं कैसे अखबार अपने कर्तव्यों को भूल गए हैं। पूरा विवरण पढ़कर लगता है, जैसे वे आज की मीडिया को उसका असली कर्तव्य बता रहे हों।
मीडिया का असली काम क्या है, इस संदर्भ में वे लिखते हैं- “ अखबारों का असली कर्तव्य शिक्षा देना, लोगों की संकीर्णता निकालना, सांप्रदायिक भावनाएं हटाना, परस्पर मेल-मिलाप बढ़ाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता बचाना था,लेकिन उन्होंने अपना मुख्य कर्तव्य अज्ञान फैलाना, संकीर्णता का प्रचार करना, सांप्रदायिक बनाना, लड़ाई-झगड़े करवाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता को नष्ट करना बना लिया है। यही कारण है कि भारतवर्ष की वर्तमान दशा पर विचार कर आंखों से रक्त के आंसू बहने लगते हैं और दिल में सवाल उठता है कि ‘भारत का बनेगा क्या?’
नेताओं और मीडिया की भूमिका को देखकर भारत की दशा पर भगत सिंह रक्त के आंसू बहा रहे थे और भारत का क्या बनेगा? इस खौफनाक भविष्य को सोचकर व्याकुल थे। भगत सिंह यह चिंता सही साबित हुई।
सांप्रदायिकता के जहर ने भारत को दो टुकड़ों में विभाजित कर दिया और इस विभाजन के चलते सांप्रदायिकता की आग में करोड़ों लोग झोंक दिए गए।
एक बार फिर भारत उसी दहलीज पर खड़ा नजर आ रहा है, नेता एवं मीडिया सांप्रदायिकता की आग में अपनी रोटियां सेक रहे हैं।
भगत सिंह सांप्रदायिकता की समस्या का समाधान वर्गीय चेतना में देखते हैं। उनका मानना है कि वर्गीय चेतना ही हिंदू-मुसलमान की पहचान की जगह गरीब-अमीर की पहचान और मेहनतकश एवं परजीवियों की पहचान को सामने ला सकती है, क्योंकि संसार के सभी गरीबों का सुख-दुख एक ही है, चाहे वे किसी धर्म, नस्ल, जाति, रंग या देश के हों।
इस संदर्भ में वे लिखते हैं- “लोगों को परस्पर लड़ने से रोकने के लिए वर्ग-चेतना की जरूरत है। गरीब मेहनतकश व किसानों को स्पष्ट समझा देना चाहिए कि तुम्हारे असली दुश्मन पूंजीपति हैं, इसलिए तुम्हें इनके हथकंडों से बचकर रहना चाहिए।… संसार के सभी गरीबों का, चाहे वे किसी भी जाति, रंग, धर्म या राष्ट्र को हों,अधिकार एक ही है। तुम्हारी भलाई इसी में है कि तुम धर्म, रंग, नस्ल और राष्ट्रीयता के भेदभाव मिटाकर एकजुट हो जाओ और सरकार की ताकत अपने हाथ में लेने का यत्न करो।”
इस पूरे संदर्भ में वे रूस का उदाहरण देकर बताते हैं कि कैसे वर्गीय चेतना ने वहां के मेहनतकश वर्गों के बीच के बंटवारों को तोड़ दिया और उन्हें एक ऐसी शक्ति बना दिया कि उन लोगों ने अपने शोषण-उत्पीड़न का अंत करने के लिए सत्ता अपने हाथ में ले लिया।
सांप्रदायिक दंगों को वर्गीय चेतना से ही रोका जा सकता है, इसको कलकत्ता ( अब कोलकत्ता) के उदाहरण से भगत सिंह समझाते हैं।
वे बताते हैं कि कैसे यहां के दंगों में ट्रेड़ यूनियन के मजदूरों ने हिस्सा नहीं लिया और न ही उन्होंने आपस में हिंदू-मुसलमान के आधार पर संघर्ष किया।
इसके उलट यूनियन के सभी हिंदू-मुस्लिम सदस्यों ने मिलकर दंगों को रोकने की कोशिश की। भगत सिंह का कहना है कि कलकता के मजदूर ऐसा इसलिए कर पाए क्योंकि उन्हें वर्गीय हित की पहचान थी और वे वर्ग चेतना से लैस थे।
भगत सिंह साफ शब्दों में कहते हैं कि वर्गीय हितों की पहचाना और वर्गीय चेतना ही सांप्रदायिक दंगों का इलाज है।
वे लिखते हैं- “ वर्ग चेतना का यही सुंदर रास्ता है, जो सांप्रदायिक दंगे रोक सकता है।”
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