बिहार चुनावः विकास के मृत पड़ चुके स्मारकों से वोट की उम्मीद कैसे करें?
By अभिनव कुमार
वर्कर्स यूनिटी बिहार चुनाव कवरेज के दौरान फिलहाल बिहार के रोहतास जिले में है। जिले के इतिहास और भूगोल के इतर हमने सीधे -सीधे इलाके के लोगों से असल जमीनी हकीकत पर बात करना ज्यादा जरूरी समझा।
हमने शुरुआत जिले के करगहर विधानसभा सीट के बड़की खड़ारी गांव से की। इलाके के भ्रमण से एक बात साफ पता चलता है कि खेती काफी समृद्ध है,खेती में इस्तेमाल की जाने वाली बड़ी -बड़ी मशीनें जगह जगह दिख जाती है।
लोग बताते है कि चावल और गेंहू की बहुतायत उपज के कारण इसे बिहार का पंजाब भी कहते है। 50 फीसदी से ज्यादा की आबादी खेतिहर मजदूर की है लेकिन मशीनों के बढ़ते उपयोग के कारण खेत में काम लगभग न के बराबर बचे है।
50 वर्षीय विशुन चौधरी ने बताया कि खेतों में अब मुश्किल से पूरे साल में एक महीने का ही काम मिल पाता है और उसके भरोसे परिवार चला पाना संभव नहीं है।
नतीजतन जो लोग काम की तलाश में माइग्रेट कर सकते है वो दिल्ली, मुम्बई जैसे शहरों का रुख कर लेते है। 30 वर्षीय सरोज का कहना है कि वो अपने परिवार में अकेले मर्द हैं जिस कारण परिवार छोड़ कर उनका बाहर जाकर कमा पाना मुश्किल है।
बातों बातों में उन्होंने मनरेगा से जुड़े तमाम धांधलियों के बारे में बताया। उन्होंने बताया कि किस तरह मनरेगा के तहत उनके किये काम की मजदूरी पिछले 6 महीनों से लटका के रखी गई है।
गांव में कई ठीक ठाक पैसे वालों लोगों के मनरेगा जॉब कार्ड बने हुए हैं और ठेकेदार मशीनों से काम करा के उन लोगों के नाम से पैसे उठा कर आपस में बांट रहे हैं और उनके इस काम में सरकारी बाबू बराबर के हिस्सेदार है।
27 वर्षीय प्रदीप लॉकडाउन के दौरान तमाम मुश्किलों का सामना कर गांव लौटें की सरकार के बड़े- बड़े पैकेजों और वादों के बाद शायद अब गांव में ही कमा खा सकें लेकिन पिछले 4 महीनों से घर पर बैठे हैं।
हमारा अगला ठिकाना गांव योगीपुर था और वहां तक पहुंच पाना अपने आप में ट्रेकिंग का अनुभव दे गया। योगीपुर गांव मुसहर जाति बहुल है जो बिहार की सबसे पिछड़ी जातियों में गिनी जाती है।
मौजूदा सरकार और व्यवस्था की तमाम वादे और दावे योगीपुर में दम तोड़ देते हैं। सारी की सारी योजनाओं की पोल खुल जाती हैं।
फिर चाहे केंद्र की आवासीय योजना,शौचालय से जुड़ी योजना हो,उज्वल्ला योजना हो या मुख्यमंत्री की नल जल योजना। सरकारी राशन की बात करते ही लोग ऐसे बिफरते है मानों क्या पूछ लिया हो।
पहले से बदतर हालात के बीच कोरोनकाल के दौरान बड़ी आबादी लगभग भुखमरी के कागार पर पहुंच चुकी है। नेशनल चैंनल पर बैठ कर प्रधानमंत्री द्वारा घोषित किये गए चावल,दाल,आटा, चना इत्यादि योजनाएं इन गरीबों की थाली से नदारत हैं।
पूरी की पूरी जन वितरण प्रणाली भ्रष्टाचार का अड्डा बनी हुई जिसमें सबके हिस्से बंटे हुए है सिवाय इसके असली जरूरतमंदों के।
लगभग 60 साल की बेचनी मुसहर अपनी व्यथा बताते हुए रो पड़ी, अपने 3-4 पोते पोतियों को हमारे आगे खड़ा कर बोली हम तो पेट बांध कर सो जाते हैं लेकिन इन बच्चों का क्या करें।
ज्यादातर लोग सत्ता परिवर्तन की बात करते तो है लेकिन जाति का सवाल लोगों के दिमाग मे रहता ही रहता है। लोगों की राजनीतिक चेतना ,जातीय चेतना के रास्ते ही उन तक पहुंच रही है।
वर्गीय चेतना जैसा कुछ नज़र नहीं आता और कारण है उस तरह के संगठनों का अभाव। लाल झंडा पार्टीयों के सवाल पर लोगों का कहना है कि अब पहले जैसे उन पार्टीयों के लोगों का आना जाना नहीं रहा ,वो भी अब चुनाव के दौरान ही विशेष तौर पर दिखते हैं।
सबसे बड़ी बात की बड़े बड़े न्यूज़ चैनल और मीडिया फर्म अपने जिन रिपोर्टों को ग्राउंड रिपोर्ट कह कर परोस रही है वो सिवाय झूठ के पुलिंदे के और कुछ नहीं क्योंकि अगर हाशिये पर खड़ी इस बड़ी आबादी को देखना और समझना है तो उनके गांव -कस्बों ,दरवाजों तक पहुंचना होगा जहां उनके मालिक या दबंग जाति के लोग न मौजूद हो।
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