कोरोना ने ग़रीबों मज़दूरों के ख़िलाफ़ सरकार की नफ़रत को बेनकाब कर दिया है – नज़रिया
पिछले दिनों ब्रिटिश अखबार ‘द गार्डियन’ में कैम्ब्रिज युनिवर्सिटी के प्रोफेसर डेविड रोंचमैन का एक लेख प्रकाशित हुआ था, “कोरोना वायरस ने राजनीति को स्थगित नहीं किया, बल्कि इसकी प्रकृति को उजागर किया”।
उक्त लेख में कोरोना संकट के दौरान राजनीति के उन अंधेरों पर चर्चा की गई है जिनमें निर्णय प्रक्रियाएं कुछ मुट्ठी भर ताकतवर लोगों के हाथों में सिमटी नजर आईं।
निर्णय की शक्तियों के केंद्रीकरण ने आपदा के इस काल में विराट जन समुदाय के व्यापक हितों की अनदेखी की और लोकतांत्रिक राजनीति के जन विरोधी बनते स्वरूप को उजागर किया।
यद्यपि, लेख में किसी खास देश की चर्चा न कर वैश्विक परिदृश्य को सामने रखा गया है, किन्तु इस आलोक में अगर हम अपने देश को सामने रख कर विचार करें तो कोई उत्साह बढ़ाने वाले संकेत नहीं मिलते।
संकट के इतना गहराने के बाद फिलहाल इस बात की चर्चा का अधिक मतलब नहीं है कि समय रहते बचाव के उचित कदम उठाने में देर हुई। यह ऐसी बहस है जिसने अनेक देशों के नेताओं को कठघरे में खड़ा किया है और अब इतिहास ही इसका विश्लेषण करेगा।
65% आबादी के बारे में क्या?
लेकिन, इस तथ्य को अनदेखा नहीं किया जा सकता कि संकट से निपटने के लिये जब निर्णय लिए जा रहे थे तो आबादी के किन हिस्सों को ध्यान में रखा गया और किनके बारे में सोचा ही नहीं गया।
भारत में लॉक डाउन लागू करने की जो प्रक्रिया अपनाई गई उसमें, जैसा कि बाद में प्रतीत हुआ, आबादी के ऊपरी 30-35 प्रतिशत को ही ध्यान में रखा गया। बाकी 65-70 प्रतिशत हिस्से को, जिनमें बड़ी संख्या उनकी है जो दैनिक या ठेके के हिंसाब से मजदूरी पर जीते हैं, निर्णय प्रक्रिया में कितना संज्ञान में लिया गया, यह बाद के घटना क्रमों से स्पष्ट होने लगा।
राजमार्गों पर बदहवास जमा होती भीड़ और महानगरों से हजारों किलोमीटर दूर अपने गांवों की ओर पैदल चल पड़ने की उनकी आत्मघाती उत्कंठा के पीछे कौन सी विवशताएं रहीं, इन्हें समझना कहीं से भी कठिन नहीं।
मुद्दा यह है कि निर्णय प्रक्रिया में शामिल लोगों ने 8 बाई 8 के सीलन भरे अंधेरे कमरों में रहने वाले उन लाखों-करोड़ों श्रमिकों के बारे में क्या सोचा जो भी इसी देश के नागरिक हैं।
तय था कि लॉक डाउन होते ही उनके रोजगार छिन जाएंगे, उनकी आमदनी मारी जाएगी और दो-चार दिन बीतते न बीतते वे दाने-दाने को मुंहताज हो जाएंगे।
राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में प्रधानमंत्री एक पंक्ति में इन प्रवासी श्रमिकों को कह सकते थे कि वे जहां हैं वहीं रहें और सरकार हर हाल में उनकी चिन्ता करेगी। लेकिन…वे सिर्फ उनके बलिदान का उल्लेख करते रहे।
पुलिस का डंडा और मज़दूरों की पीठ
अफरातफरी मचनी ही थी, जिसने लॉक डाउन को तो बेमानी किया ही, लाखों बच्चों, बीमारों, महिलाओं, बूढ़ों और अपाहिजों को सड़कों पर भटकने को विवश कर दिया।
यहां इस दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि हाशिये पर के इन लोगों की आस्था सरकारी आश्वासनों में नहीं बची है। उन्हें लगता है कि निरंकुश, निर्मम और जन विरोधी प्रशासनिक तंत्र के आश्वासनों पर भरोसे का कोई मतलब नहीं है और उन्हें अपनी चिन्ता स्वयं करनी होगी।
इतिहास का यह निर्मम अध्याय, जिसमें लाखों लोग पैदल ही हजारों किलोमीटर की यात्रा पर निकल पड़े, हमारी राजनीति और सत्ता के चरित्र पर स्पष्ट टिप्पणी करता है और इसकी जन विरोधी प्रकृति को उजागर करता है।
देश व्यापी लॉक डाउन में सड़कों पर पुलिसिया राज और दमन का जो चित्र सामने आया उसने सत्ता के उस चरित्र को सामने रखा जो संक्रमणों की जांच, आवश्यक स्क्रीनिंग और आधारभूत व्यवस्थाओं में तो पीछे रही लेकिन सड़कों पर निकले लोगों को मुर्गा बनाने में, कान पकड़ कर उठक-बैठक कराने में और उन पर डंडों की बरसात करने में आगे रही।
महामारी एक्ट सत्ता को जन समूहों पर सिर्फ नियंत्रण और दमन का अधिकार ही नहीं देता, बल्कि इसके साथ उसके कर्त्तव्यों की लंबी फेहरिस्त भी जुड़ी हुई है।
राहत वितरण के दावे खोखले
लगातार सरकारी दावों के बावजूद राहत वितरण की नाकामियां भी हमारे सामने हैं जिन्होंने विवश इंसानों और जनवरो का फर्क मिटा दिया है। दिल्ली में यमुना पुल के नीचे आश्रय लिए हजारों लोगों के वीडियो क्लिप्स हों या राज मार्गों पर भूखे,प्यासे अनवरत चलते जन समूहों के फोटोग्राफ्स हों, ये हमारे प्रशासनिक तंत्र की विफलताओं के दस्तावेज हैं।
कितने लोग भूख और बीमारी से रास्ते में ही दम तोड़ गए, इसका आकलन स्वयं सरकार के पास भी नहीं। एक से एक हृदयद्रावक कहानियां सामने आती रहीं जो सरकारी घोषणाओं और तल्ख हकीकतों के बीच के फर्क को उजागर करती रहीं।
एक तरफ हवाई जहाज उड़ते रहे, एसयूवी गाड़ियां फर्राटे भरती रहीं, रसूखदार लोग इस शहर से उस शहर पहुंचते रहे और…दूसरी तरफ कोई बीमार पथिक रास्ते में भूख और दवा के बिना मरता रहा, कोई बारह वर्ष की मासूम बालिका सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलने के बाद अपने गांव की दहलीज पर पहुंचती-पहुंचती दम तोड़ती रही।
महामारी के इस संकट काल ने हमारी राजनीति को, हमारी सत्ता को हमारी नजरों में एक बार फिर से पूरी तरह से एक्सपोज कर दिया है।
हम नहीं जानते, संकट के इन अंधेरों के पार उजाले की किरणें कितनी दूर हैं, लेकिन, हम विवश भाव से सिर्फ प्रतीक्षा कर सकते हैं कि कभी तो उजाले की किरणें हमारे गांव तक भी आएंगी।
तब तक…जो मर जाएंगे वे अपनी नियति का साक्षात्कार करेंगे और जो बच जाएंगे वे अपने जीने की ज़द्दोज़हद में फिर से जुट जाएंगे। राजनीति फिर से उन्हें छलने की नई जुगत की तलाश करेगी और हम छले जाने को अभिशप्त होंगे।
सत्ता का चरित्र बेनकाब
फिलहाल तो…हम एक तरफ फैलती महामारी से आतंकित हैं, दूसरी तरफ सरकारी बदइन्तज़ामियों और दमन से त्रस्त हैं। हमारे बेगूसराय जिला के हाकिमों ने पिछले सप्ताह घोषणा की कि पूरे जिले की ‘डोर टू डोर’ स्क्रीनिंग की जाएगी।
कल किसी न्यूज में देखा कि स्क्रीनिंग पूरी भी हो गई और अब बचे-खुचे लोगों तक टीमें पहुंचेंगी। हालांकि, हमने अपने बड़े और सघन मुहल्ले में किसी स्क्रीनिंग टीम को नहीं देखा अब तक। जहां ये टीमें पहुंची भी, वहां खानापूरी ही हुई जिसे “डोर टू डोर स्क्रीनिंग” तो नहीं ही कहा जा सकता। जिनके दरवाजों पर ये खानापूरी हुई वे बेहतर बता सकते हैं।
इधर, ये खबर भी सामने है कि हमारे गांव के एक व्यक्ति का सिर पुलिसिया डंडे से फट गया जो बैंक से अपने पैसे निकाल कर अपने घर लौट रहा था। वीडियो में उसका बिलखता, लहूलुहान चेहरा देख रहे हैं हम।
यही हैं हम…यही है हमारी राजनीति और उससे उपजी सत्ता का चरित्र। कोरोना ने इसे फिर से एक्सपोज कर दिया है। एक्सपोज तो हम भी हुए हैं, क्योंकि हम…भारत के लोग…इस देश के नियंता हैं आखिर।
(हेमंत कुमार झा, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय में हिंदी के एसोसिएट प्रोफ़ेसर हैं। उनके फ़ेसबुक वॉल से साभार।)
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