यूपी में कोरोना पॉजिटिव लोगों के साथ कैदियों जैसा व्यवहार, एक दंपत्ति की आपबीती कहानी
By सुनीता
जिस दिन कृषि उत्पादों पर मोदी सरकार द्वारा पास बिल पर देश के किसानों ने देशव्यापी हड़ताल का आह्वान किया था उसी 26 नवम्बर 2020 को मैं और मेरे पति ने कोरोना टेस्ट कराया।
यह टेस्ट उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा इंदिरापुरम, गाज़ियाबाद के एक गुरुद्वारा में कैम्प लगाकर किया जा रहा था। पूर्वी उत्तर प्रदेश के अपने गांव 7-8 महीने रहकर अक्टूबर के पहले सप्ताह में मैं गाज़ियाबाद आई थी।
गांव से आये अभी डेढ़ महीने हुए थे कि मुझे और मेरे पति को सर्दी-जुकाम और हल्का बुखार हो गया। क्वारंटीन का एहतियात बरतते हुए हम दोनों पैरासिटामोल खाकर स्थिति को नियंत्रित किए हुए थे।
कोरोना की महामारी के आतंक में लोगों ने कोरोना टेस्ट कराने की सलाह दी और हमें भी लगा कि कम से कम पता चलना चाहिए वास्तविकता क्या है। लेकिन उत्तर प्रदेश सरकार की कोरोना तैयारी जोकि अपने आप में किसी महामारी से कम नहीं है, उसके जाल में फंसने का सिलसिला शुरू हो गया।
हालांकि तबतक फ़ीवर ख़त्म हो चुका था और स्थिति सामान्य की ओर लौट रही थी। हमें लगा था कि हम लोग पूरी तरह ठीक हैं और कोरोना पॉजिटिव होने का कोई सवाल ही नहीं बनता लेकिन सीधे उल्टा हुआ।
कोरोना टेस्ट सैम्पल देने के 24 घंटे के अंदर उत्तर प्रदेश के कोरोना साइट पर हम दोनों का एंटीजेन निगेटिव दिखाया।
28 और 29 नवम्बर की शाम तक उपरोक्त साइट पर RT-PCR रिसेम्पलिंग दिखाता रहा। हम लोग निश्चिंत हो चुके थे। हमें क्या पता था कि कोरोना से बड़ी परेशानी बहुत तेज़ी से हमारी ओर आ रही है।
30 नवम्बर को दिन के 11 बजे के करीब उत्तर प्रदेश के स्वास्थ्य विभाग से फ़ोन आया कि हम दोनों कोरोना पॉजिटिव हैं। जब हमें पता चला कि हम कोरोना पॉजिटिव हैं तो हम लोग सतर्क हो गए और एहतियात को और बढ़ा दिया।
लेकिन एक दिसंबर को उत्तर प्रदेश, गाज़ियाबाद के स्वास्थ्य विभाग की ओर से अलग अलग नंबरों से फ़ोन आने लगे। इतने कॉल्स किए गए कि परिवार में एक तरह का पैनिक पैदा हो गया।
हमने उन्हें बताया कि किसी भी किस्म की कोई दिक्कत नहीं है फिर भी यदि टेस्ट में पॉजिटिव आया है तो हम होम क्वारंटाइन हैं। हमारी दो साल की बिटिया भी है और वह भी स्वस्थ है। उन्होंने हमारे पास ऑक्सिमिटर, थर्मामीटर और घर में टॉयलेट बाथरुम के होने के बारे में पूछा।
पहले उन्हीं की तरफ़ से होम क्वारंटीन की सलाह आई और कहा गया कि एहतियात के साथ दवाएं लें।
लेकिन पॉजिटिव रिपोर्ट आने के 24-36 घंटे में उत्तर प्रदेश, गाज़ियाबाद स्वास्थ्य विभाग से न कोई डॉक्टर आया और न ही किसी ने कोई दवा लेने का सुझाव दिया।
लेकिन एक दिसम्बर को अचानक ग़ाज़ियाबाद स्वास्थ्य अधिकारियों की राय बदल गई और एक टॉयलेट का हवाला देते हुए अस्पताल में भर्ती होने की सलाह ही नहीं दी गई बल्कि पूरा दबाव बनाया जाने लगा।
हमें बाद में पता चला कि सरकारी कैंपों में कोरोना टेस्ट कराने पर ये सब झेलना पड़ता है, जबकि प्राईवेट में टेस्ट कराने पर यूपी सरकार को पता भी नहीं चलता कि कौन पॉज़िटिव है।
कई लोग ऐसे जानने वाले मिले जिन्होंने प्राईवेट लैब में टेस्ट कराया और पॉज़िटिव आने पर खुद ही क्वारंटीन हो गए और प्राईवेट डॉक्टर से अपना इलाज़ कराया। उन्हें इन अनाथालाय जैसे सरकारी अस्पतालों में ज़बरिया कैद नहीं होना पड़ा।
तंग आकर हम तैयार हो गए। लेकिन दो साल की बिटिया के साथ अस्पताल जाना सुरक्षित नहीं लग रहा था। डॉक्टरों को मनाने की कोशिश में ये तर्क भी रखा गया लेकिन कोरोना हैंडलिंग विभाग जैसे ये तय कर चुका था कि भर्ती करना ही है।
कुछ घंटों में ही दर्जनों फ़ोन कॉल्स आए और तुरंत बाद ही हम तीनों को ले जाने के लिए एम्बुलेंस सोसायटी के गेट पर खड़ी थी।
फ़ोन करने वाले डॉक्टरों ने तरह तरह से समझाने की कोशिश की, यहां तक कि फ़ोन करने वाले डॉक्टर ने एफआईआर करने की धमकी भी दी।
फ़ोन करने वाले डॉ. सौरभ ने कहा कि हमारी मजबूरी है कि पूरे परिवार को भर्ती कराया जाए। उन्होंने पूरा आश्वासन दिया कि सरकारी डॉक्टरों की देख रेख में अच्छा इलाज होगा। वहां जाते ही दोबारा टेस्ट होगा और एक हफ़्ते के अंदर नेगेटिव रिपोर्ट आने के बाद डिस्चार्ज कर दिया जाएगा।
उनका कहना था कि ये प्रशासनिक प्रोटोकॉल है और मामला ग़ाज़ियाबाद प्रशासन के हवाले है, अगर भर्ती नहीं हुए तो एफ़आईआर भी दर्ज की जा सकती है।
सरकारी कारकुनों ने सोचने तक का वक्त नहीं दिया। भेजी गई एम्बुलेंस ऐसी थी जैसे कि उसमें मरीज़ नहीं बल्कि किसी लाश को उठाने आये हों। सीटों पर धूल अटी पड़ी थी। ऑक्सीजन सिलिंडर तो लटका हुआ था लेकिन उसका पाइप टूटी हुई थी।
ड्राइवर से बोलकर सीट साफ कराई और बिटिया के साथ हम दोनों सवार हो गए। हम तीनों को ईएसआई अस्पताल, साहिबाबाद ले जाया गया। हम दोनों काफी परेशान थे लेकिन अपने लिए नहीं बल्कि अपने 2 साल की बिटिया के लिए।
ईएसआई के अंदर जिस गार्ड ने हम दोनों का नाम और आधार नंबर दर्ज किया उसने हमसे लगभग 10 मीटर की दूरी पर खड़ा होकर कागजी खानापूर्ति की और हमें उस गेट के अंदर डाल दिया गया जिसमें पहले से ही 20-25 स्वस्थ लोग मौजूद थे।
लेकिन ये परेशानी की शुरुआत थी और बीजेपी सरकार के कोरोना इलाज की बदसूरत हालात का ट्रेलर भर था।
उन लोगों में जो लोग 60-70 साल के थे वे ही थोड़ा अस्वस्थ थे। हमें कोई संदेह नहीं कि वे अपने उम्र की वजह से थोड़ा अस्वस्थ थे न कि कोरोना के वजह से। जब हम अंदर गए तो न कोई डॉक्टर था और न ही कोई नर्स।
हमारी मुलाकात संजय नाम के एक सज्जन मजदूर से हुई जो खुद हमारे ही तरह ज़बरदस्ती पकड़कर लाए गए थे। उनका हँसता चेहरा और खुशमिजाजी से थोड़ी राहत महसूस हुई।
वे ही उस हॉस्पिटल के स्टाफ को 224 नम्बर पर फोन करके दो लोगों के आने की सूचना दी और हम लोगों को एक कमरे में पड़े बेड को चुन लेने का इशारा किया।
हॉस्पिटल में हम दो लोगों की भर्ती तो दर्ज हो गई लेकिन बिटिया भी हमारे साथ है इसे भर्ती करने से अस्पताल ने इनकार कर दिया।
इससे हम और भी चिंतित होने लगे कि उत्तर प्रदेश स्वास्थ्य विभाग इतना लापरवाह क्यों है? जब हम अपनी बच्ची के साथ होम क्वारंटाइन होने की अपील कर रहे थे तो हम पर एफआईआर कर देने की धमकी देकर यहाँ लाया गया था।
लेकिन डॉक्टर सौरभ के वादों से बिल्कुल उलट यहां न तो ठीक से खाने की व्यवस्था थी न बुनियादी सुविधाएं। ठंडी के दिनों में पानी गरम करने के लिए गीज़र तब लगा जब हम लोग निकलने वाले थे।
खाने में कद्दू की सब्ज़ी और मूली भी परोसी जाती थी, जबकि ये दोनों चीजें ठंडी मानी जाती थीं। और कोविड के समय में गरम पानी पानी चीजों और गरम पानी के सेवन की सलाह दी जाती रही है।
साफ़ सफ़ाई का हाल ये था कि गार्ड और बाकी कर्मचारी भी गेट तक को चार फुट के डंडे से खोलते थे। वहां के कर्मचारियों और डॉक्टरों की इतनी संवेदनहीनता देख अपराधियों के कैदखाने का अहसास होता था।
हमें यहां लाने का सबसे बड़ा कारण बताया गया कि हमारे घर में अलग बाथरूम नहीं है। जबकि हॉस्पिटल में महिला और पुरुष का सेपरेट लेकिन संयुक्त टॉयलेट-बाथरूम था, जहां दर्जनों लोग एक ही बाथरूम को इस्तेमाल करने पर मजबूर थे।
ऐसा नहीं था कि वहाँ केवल गरीब इलाकों के ही लोग थे। वहां गाज़ियाबाद, वैशाली के अपार्टमेंट में रहने वाले लोग भी आये थे। लेकिन उत्तर प्रदेश स्वास्थ्य विभाग की बेरहमी, लापरवाही और निरंकुशता इतनी थी कि उसे दो साल की बच्ची नजर नहीं आ रही थी जो बिल्कुल स्वस्थ थी।
यदि सरकारी मानदंडों के अनुसार, वहाँ आए हुए सभी लोग कोरोना इन्फेक्टेड थे तो 2 साल की स्वस्थ बच्ची को इंफेक्शन होना तय था जिसकी परवाह स्वास्थ्य विभाग को नहीं थी।
हॉस्पिटल और सरकार की कोरोना हैंडलिंग विभाग की असंवेदनशीलता को देखते हुए हम लोगों ने तय किया कि अब बच्ची के साथ जो भी हो किन्तु इंफेक्शन से बचाया जाना चाहिए और हम लोगों ने उसी शाम एक मित्र की मदद से एक रिश्तेदार के यहां भेज दिया।
हॉस्पिटल से सभी मरीजों को पाँच दिन की दवा पहले दिन ही पकड़ा दी जाती थी, जो हमें भी मिली। पहली खुराक खाने के बाद हम दोनों को लगा कि दवा नुकसान कर रही है और हम दोनों ने उसे लेना बंद कर दिया।
साहिबाबाद ईएसआई काफी बड़ा अस्पताल है। उस हॉस्पिटल के एक हिस्से में जिसमें मरीजों के इलाज के 6 कमरे थे और हर कमरे में 5-6 बेड पड़े हुए थे।
मरीजों के आने और क्वारंटाइन के 7 दिन और कोरोना टेस्ट के दिन को मिलाकर कम से कम 10 दिन होने पर डिस्चार्ज होकर जाने के लिए एक ही दरवाजा है और चारों तरह ब्लॉक कर दिया गया है।
कमरे में बिजली की रोशनी के अलावा सूरज की रोशनी की कोई व्यवस्था नहीं है। कोरोना हैंडलिंग में सरकारी विभाग की लापरवाही के बेजोड़ नमूने हैं।
स्वास्थ्य विभाग की इतनी सतर्कता के पीछे इतनी लापरवाही होगी कोई सोच नहीं सकता है और इसका भी नमूना हमें देखने को मिल ही गया।
मरीजों को कॉल करने के लिए जितने भी सरकार ने कॉल सेंटर बनाए हैं, जैसे डीएम कोरोना हेल्पलाइन, सीएम कोरोना हेल्पलाइन इत्यादि उनका हॉस्पिटल के साथ कोई आपसी तालमेल ही नहीं था।
यदि मरीज इनकी लापरवाही और बेहूदगी को गंभीरता से लें तो लगेगा कि सरकारी मानदंडों के हिसाब से जो लोग कोरोना पॉजिटिव हैं, उन्हें मारने या खुद मर जाने के लिए हॉस्पिटल में कैद किया है।
हर मरीज के पास उपरोक्त हेल्पलाइन से दिन में कई बार फोन आते हैं लेकिन उन्हें खुद पता नहीं होता कि फला मरीज जिससे बात हो रही है वह अपने घर पर है या हॉस्पिटल में।
कॉल करने वाले विभाग को हमारे द्वारा अपडेट दिए जाने के बाद भी अगले दिन हमसे वही सवाल पूछा जाता कि आप कहाँ हैं? आपका ऑक्सीजन लेवल और तापमान क्या है?
जबकि ज्यादातर लोगों का केवल भर्ती होने के समय ही ऑक्सीजन लेवल और तापमान लिया जाता था। जो वाकई थोड़ा अस्वस्थ थे उम्रदराज थे या शुगर के मरीज थे बस उनका ही चेक होता था।
बाकी लोग किसी तरह दिन गिनकर समय काटते थे। हम व्यक्तिगत तौर पर आश्वस्त नहीं है कि कोरोना से वाइरल फीवर कुछ अलग भी है। लेकिन इसका आशंका जरूर है कि इसके नाम पर सारी स्वास्थ्य सेवाएं ध्वस्त की जा रही हैं और इसके बहाने दूसरा कोई इलाज नहीं दिया जा रहा है।
कोरोना के मरीजों के हैंडलिंग के नियम में पता चला कि यदि आप हॉस्पिटल में भर्ती हैं और आपके परिवार में शादी है तो आपको शादी अटेंड करने की छुट्टी मिल जाएगी लेकिन फिर आपको आकर क्वारंटाइन होने के लिए भर्ती होना पड़ेगा।
लेकिन 2 साल की बच्ची और 72 साल की बुजुर्ग महिला के लिए सरकार और स्वास्थ्य विभाग के पास सुरक्षा का कोई न इंतजाम है और न ही कोई परवाह।
क्या फिर भी आपको लगता है कि कोरोना कोई गंभीर बीमारी है? आखिरकार 7 दिसंबर को हम दोनों की क्वारंटाइन की मियाद पूरी हुई और हम दोनों इस मनमाने कैद से रिहा कर दिए गए।
जैसे स्वस्थ गए थे वैसे स्वस्थ तो नहीं नहीं लौटे लेकिन इस बात का सकून था कि बिटिया को ये सब झेलना नहीं पड़ा।
(वर्कर्स यूनिटी स्वतंत्र निष्पक्ष मीडिया के उसूलों को मानता है। आप इसके फ़ेसबुक, ट्विटर और यूट्यूब को फॉलो कर इसे और मजबूत बना सकते हैं। वर्कर्स यूनिटी के टेलीग्राम चैनल को सब्सक्राइब करने के लिए यहां क्लिक करें।