सरकार के पास मजदूरों के लिए बस यही योजना है कि वे भिखारी के रूप में अपनी नियति को स्वीकार कर लें

सरकार के पास मजदूरों के लिए बस यही योजना है कि वे भिखारी के रूप में अपनी नियति को स्वीकार कर लें

By सुधीर कुमार

लॉकडाउन खुलने के बाद अपने घरों तक पहुँच पाने की उम्मीद में मुम्बई के हजारों प्रवासी मजदूर ‘लक्ष्मण रेखा’ लांघकर बांद्रा स्टेशन पर जमा हो गए।

पुलिस ने इन्हें लठियाकर खदेड़ दिया. मीडिया इसे लॉकडाउन का घोर उल्लंघन बता रहा है।

बिहार, उत्तर प्रदेश और बंगाल के ये दिहाड़ी मजदूर आज 10 बजे होने वाली किसी घोषणा का इंतजार कर रहे होंगे जिसमें इनकी चिंता भी शामिल हो, ऐसा नहीं हुआ।

इस लॉकडाउन में सरकार के पास इन दिहाड़ी मजदूरों के लिए बस यही योजना है कि वे एक भिखारी के रूप में अपनी नियति को स्वीकार कर लें।

जो आदमी दो वक्त की सम्मानजनक रोटी कमाने के इरादे से अपने घरों से हजारों किमी दूर हाड़तोड़ मेहनत करने निकल आया हो उससे भला हम ऐसी उम्मीद कैसे कर सकते हैं।

भिखारी बनने का विकल्प तो उसके लिए खुद के गाँव के आसपास के शहरों-कस्बों में हमेशा से ही मौजूद रहा है. फिर भी वह अपने घर-परिवार से दूर महानगरों की नारकीय झुग्गियों में धंस जाने चला आया, ताकि खुद्दारी के साथ अपना और अपने परिवार का पेट भर सके।

अब सरकार उससे या उसके नियोक्ता से ये तो कहती नहीं कि इनका वेतन हम वहन करेंगे।

चाहा जा रहा है कि वह सरकार या स्वयंसेवी संस्थाओं के टुकड़ों पर पले। इस योजना में भी 2 वक्त का टिफिन है या फिर दो-चार किलो आटा चावल, दाल, तेल और नमक. इसे देने के लिए भी उससे बाकायदा लाचारी, बेबसी की नुमाइश लगाने की उम्मीद की जाती है।

ताकि साल के हर दिन उसका खून चूसने पर आमादा लोग ही उसके तारणहार बनने के मजे ले सकें।

workers return from mumbai

आटा-चावल या टिफिन के अलावा भी जिंदगी की बहुत सी जरूरतें हैं। मसलन बच्चों का दूध, दवाएं… और भी। इन छोटी-मोटी जरूरतों पर ये दिहाड़ी मजदूर अपनी जमा पूंजी इन 21 दिनों में खर्च कर चुके हैं।

लॉकडाउन खुलने पर भी इनमें से ज्यादातर के पास रोजगार नहीं रहने वाला। सामान्य समय में भी इनके ‘मालिक’ इनकी मजदूरी फंसाकर रखते हैं.मजदूरी मारने पर भी सरकारी तंत्र इनकी कोई मदद नहीं कर पाता।

आज सिर्फ सरकारी अपील कर देने भर से इनसे झुग्गियों के किराये नहीं लिए जायेंगे या फिर इन दिनों की मजदूरी दे दी जाएगी ऐसा विचार ही हास्यास्पद है. न दें तो कौन वसूल करके दे देगा।

अपने बच्चों के लिए चिप्स-कुरकुरे तक का कई महीनों का कोटा स्टॉक कर चुके अभिजात वर्ग के लिए ये सिर्फ लॉकडाउन का टूटना भर है। जबकि इनकी खुद की एकमात्र समस्या सिर्फ दारू का कोटा है।

किसी तरह 4 घंटे के लिए भी ठेके खोल दिए जाएँ तो ये दारू का भी पर्याप्त कोटा धर लेंगे। तभी ये लॉकडाउन को सही से इंजॉय कर सकेंगे।

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ashish saxena