क्या दिल्ली दंगा फासीवादी एक्शन का रिहर्सल था? फासीवादी हमला-3

क्या दिल्ली दंगा फासीवादी एक्शन का रिहर्सल था? फासीवादी हमला-3

By शेखर

हिंसा का स्तर और पुलिस-प्रशासन की सहभागिता की बात करें तो 2002 में हुआ गुजरात जनसंहार फरवरी 2020 के दिल्ली दंगों से कई गुणा बढ़कर था। हालांकि दिल्ली में हुई हिंसा गुणात्मक तौर पर उससे आगे है जिसका, अभी के समय में फासीवाद के उदय की दिशा का मूल्यांकन करने हेतु, ध्यानपूर्वक विश्लेषण ज़रूरी है।

दंगों के पश्चात पुलिसिया कार्रवाई पर गौर करने से इस गुणात्मक वृद्धि पर वाजिब रौशनी मिलती है। यही गुणात्मक वृद्धि भीमा कोरेगांव मामले में भी देखी गई थी, हालांकि तब वह भ्रूणावस्था में थी।

अगर कोई दंगों के बाद छानबीन और जांच के नाम पर पुलिस द्वारा की जा रही कार्रवाई पर गौर करे, और फिर भीमा कोरेगांव मामले में जो हो रहा है उसपर ध्यान दे, तो 2002 गुजरात जनसंहार की तुलना में उपरोक्त गुणात्मक वृद्धि साफ दिखाई पड़ती है।

दिल्ली दंगों के कुछ दिन बाद प्रकाशित हुई दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग की जांच रिपोर्ट के मद्देनजर इस विषय पर चर्चा करना उपयोगी सिद्ध होगा। इस कमिटी को अन्य उद्देश्यों के साथ पुलिस की भूमिका पर भी तथ्य इकट्ठा करने के मैंडेट (अधिकार) के साथ गठित किया गया था।

दंगों के बाद छानबीन के नाम पर हुई पुलिसिया कार्रवाई यह स्पष्ट कर देती है कि न्याय की मांग करना एक अपराध बन चुका है और न्यायपालिका भी इस नए कानून का पालन कर रही है। यहां जोर देकर कहना उचित होगा कि यह एक विजयी होते फासीवाद, जिसे अपनी किसी करनी से कोई भय नहीं रहा, के ही लक्षण हैं।

दिल्ली पुलिस की निरंकुशता की पोल

रिपोर्ट[1] में लिखा है – “रिपोर्ट उचित तौर पर विस्तृत और निष्पक्ष है परंतु दिल्ली पुलिस के असहयोग के कारण, जांच कमिटी इससे अधिक विस्तृत व सटीक रिपोर्ट पेश नहीं कर पाई।” (इटैलिक लेखक द्वारा) दिल्ली पुलिस द्वारा असहयोग पर अल्पसंख्यक आयोग का खुलासा अपने आप ही कई चीजें बयां कर देता है।

लेकिन मुख्य सवाल है कि, इसकी परवाह किसे है? राजसत्ता का कोई ऐसा अंग नहीं बचा जिसे इसकी परवाह है या होगी। न्यायपालिका को भी नहीं। कमिटी के चेयरमैन एम.आर. शमशाद (जो सुप्रीम कोर्ट में ऐडवोकेट-ऑन-रिकॉर्ड भी हैं) दोहराते हैं – “मुझे यह रिकॉर्ड में ले आना चाहिए कि अगर दिल्ली पुलिस ने अपेक्षित जानकारी मुहैया कराई होती, जिसका डीएमसी [दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग] व जांच कमिटी ने अनुरोध किया था, तो रिपोर्ट कहीं ज्यादा विस्तृत होती।” (इटैलिक लेखक द्वारा)

आखिरकार दिल्ली पुलिस किसके निर्देशों पर इस स्तर की धृष्टता दिखा सकती है? आखिर क्यों दिल्ली पुलिस आज इतनी शक्तिशाली दिख रही है कि अल्पसंख्यक आयोग जैसी एक सांविधिक संस्था की अवहेलना करने पर भी उसपर कोई कानूनी कार्रवाई नहीं की जाती, चाहे कार्यपालिका या न्यायपालिका द्वारा?

2002 में वाजपेयी ने कम से कम जनता की जनतांत्रिक धारणा का ‘सम्मान’ करने का ढोंग करते हुए ही सही लेकिन राजधर्म निभाने की बात कही थी। तब हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट आज जितने विचारहीन और संज्ञाशून्य नहीं थे।

पुलिस द्वारा ऐसे खुलेआम तरीके से इस ऊंचे स्तर की धृष्टता, जो जांच कमिटी के संपूर्ण कार्यकाल के दौरान दिखाई गई, उस वक़्त निश्चित ही नहीं दिखाई जा सकती थी।

खास तौर पर पुलिस प्रशासन द्वारा जान-माल की रक्षा करने में नाकामी एवं प्राथमिकी दर्ज करने में देरी करना/जटिलता पैदा करना या दर्ज करने से इंकार करना, पर चर्चा करते हुए रिपोर्ट विस्तारपूर्वक बताती है कि दिल्ली पुलिस ने दंगों के दौरान व उसके बाद भी “गैरकानूनी भीड़ को तितर-बितर करने के लिए अधिकृत शक्तियों का इस्तेमाल नहीं किया, और ना तो हिंसा भड़काने वालों को रोकने, गिरफ्तार या पकड़ कर रखने  के लिए ही कोई कदम उठाए।”

अधिकारी पुलिस को एक्शन लेने से रोक दिया

आगे लिखा है – “शिकायतों का स्वरूप गंभीर होने के बावजूद, पुलिस ने दर्ज प्राथमिकियों पर कार्रवाई नहीं की। कुछ मामलों में पुलिस ने प्राथमिकी दर्ज ही नहीं की जब तक कि शिकायतकर्ता ने आरोपियों के नाम उसमें से नहीं हटाए। हेल्पडेस्क ने उन शिकायतों को दर्ज किया जिसमें आरोपी ‘अज्ञात’ बताए गए, लेकिन उन शिकायतों को दर्ज कराना कठिन था जिनमें हत्या, लूट, आगजनी जैसे गंभीर आरोप थे और आरोपी नामित थे। जहां इन शिकायतों को डायरी में दर्ज कराया गया या डाक व अन्य माध्यमों से भेजा गया, उन्हें प्राथमिकी के रूप में दर्ज किया गया या नहीं इसका कोई पुष्टिकरण तक संभव नहीं है।”

रिपोर्ट तमाम विवरणों के सहारे बताती है कि दंगों के दौरान, जब मासूम मुस्लिम पुरुष व महिलाओं पर हमले हो रहे थे, पुलिस की इन हमलों में भागीदारी थी और उसने हमलों को बढ़ावा भी दिया।-

“जहां पुलिस ने कुछ कार्रवाई की भी, पीड़ित बताते हैं कि पुलिस ने ही भीड़ को हटाने की कोशिश कर रहे अपने सहकर्मियों को रोक दिया (एक सीनियर ने कहा था, “उन्हें मत रोको” यानी भीड़ को)… कुछ मामलों में जहां भीड़ खुलेआम हिंसा को अंजाम दे रही थी, पुलिस केवल दर्शक के रूप में उन्हें देखती रही। अन्य मामलों में, पुलिस ने ही खुले रूप से हिंसक तत्वों को हिंसा व हंगामा तथा हमला जारी रखने की अनुमति दी (एक सीनियर ने कहा था, “जो मन में आए करो”)…

कुछ वर्णन बताते हैं कि कैसे पुलिस व अर्धसैन्य अधिकारियों ने हमला समाप्त होने पर भीड़ को संरक्षण प्रदान करते हुए इलाके से बाहर निकाला।”

रिपोर्ट आगे बताती है – “हाल की एक विस्तृत रिपोर्ट उत्तर-पूर्वी दिल्ली के निवासियों द्वारा दर्ज की गई अनेक शिकायतों के बारे में बताती है जिनमें सीनियर पुलिस अधिकारियों के मुस्लिमों के ख़िलाफ़ लक्षित हिंसा में अगुवाई व भागीदारी करने और उसे बढ़ावा देने के लिए नाम शामिल हैं।”

फासिस्ट सत्ता, जहां इंसाफ़ चाहने वाला ही गुनहगार

लेकिन यह भी गुजरात में जो हुआ उससे अभी के बीच के फर्क को व्यक्त नहीं करते। असल फर्क तब साफ दिखाई पड़ता है जब रिपोर्ट कहती है कि – “पीड़ितों को ही गिरफ्तार कर लिया गया है, खास कर उन्हें जिन्होंने आरोपियों के खिलाफ नामजद शिकायतें दर्ज कराईं थी।”

इसी वजह से कई मुस्लिम शिकायतकर्ता थाने जा कर अपनी शिकायत के बारे में पता करने में भी अनिच्छुक रहे हैं, क्योंकि उनको यह डर है कि ऐसा करने पर उन्हें ही झूठे मामलों में फंसा दिया जाएगा। जिन्होंने अपनी शिकायत को आगे नहीं भी बढ़ाया है उन्हें भी दंगा-ग्रसित इलाकों में से व अन्य इलाकों से भी जैसे जामिया से सटे इलाकों से सैकड़ों की संख्या में गिरफ्तार किया गया है।

यहां तक कि जिन्होंने भी सीएए-एनआरसी-एनपीआर विरोधी आंदोलनों में सक्रिय भूमिका निभाई है और उनकी अगुवाई की है या फिर उनमें हिस्सा भी लिया है, उन्हें भी दंगा भड़काने की साजिश के मामलों में डालकर गिरफ्तार किया गया है, जिसमें कुछ ‘हिंदू’ सीएए विरोधी भी शामिल हैं।

हाल यह है कि जो भी पीड़ित पुलिस की भागीदारी या निष्क्रियता के साक्षी हैं वो इंसाफ पाने के लिए पुलिस के पास जाने से भी कतरा रहे हैं, और यही दिल्ली पुलिस चाहती भी थी।

संदेश स्पष्ट है – फासिस्ट व उनके समर्थक चाहे हिंसा भड़काएं, आपकी या आपके परिवारवालों पर हमले करें या हत्या ही क्यों न कर दें, उन्हें राजसत्ता द्वारा ना तो दोषी ठहराया जाएगा ना ही कोई सजा दी जाएगी।

आज यह मुख्यतः मुस्लिमों के साथ हो रहा है, लेकिन कल हिन्दुओं को भी यही झेलना होगा। इसलिए अगर वो आपको मारें, आपके परिवारवालों की हत्या कर दें, बेतहाशा हिंसा भड़काएं, तो भी शिकायत मत करिए। कोई आपकी रक्षा में तो नहीं ही आने वाला, उल्टा शिकायत करने पर आपको ही गंभीर आरोपों में फंसा दिया जाएगा।

उत्तर प्रदेश में तो यह और भी अधिक जोरों से पहले से ही चल रहा है। डॉक्टर कफील ख़ान इस तरह की प्रताड़ना के प्रमुख उदाहरण हैं, लेकिन वह अकेले नहीं हैं जो ऐसा निर्मम अन्याय सह रहे हैं। उनके साथ-साथ सैकड़ों या उससे भी ज्यादा लोग हैं।

क्या फासिस्ट अब अजेय हो चुके हैं?

हालांकि एक संदेश उपरोक्त बातों से भी अधिक ख़तरनाक़ है। वह ये है कि ‘अगर आप न्याय की मांग करो या न्याय के लिए लड़ो, तो आप फासीवादी सरकार को परेशान करने या नुकसान पहुंचाने वाले तत्व माने जाएंगे और इसी कारण आप हमले के शिकार हो सकते हैं, जिसका जिम्मेवार हमलावर नहीं बल्कि आप, जिसने न्याय की मांग की और उसके लिए लड़ा, खुद होंगे और जिसकी कीमत आपको चुकानी होगी और राजसत्ता की कोई संस्था आपके बचाव में नहीं आएगी।’

क्या यह एक चीखता सबूत नहीं है कि इस पूंजीवादी ढांचे में फासिस्ट अब अजेय हो चुके हैं, जिस पर अंदरूनी रूप से उनके द्वारा सालों पहले कब्जा हो गया था जो बाहरी रूप से 2019 के बाद हुआ, और अब देश में जनतांत्रिक नियंत्रण व संतुलन के लिए कोई तंत्र या संस्था नहीं बची है?

जो सोचते हैं कि व्यवस्था के भीतर से दबाव डाल कर 2014 के पूर्व का भी पूंजीवादी जनतंत्र वापस लाया जा सकता है, उनके लिए अब काफी देर हो चुकी है।

जांच कमिटी की रिपोर्ट में आगे लिखा है – “उत्तर-पूर्वी दिल्ली में हुए लगभग सभी हिंसा-संबंधित मामले जिनमें पुलिस द्वारा छानबीन जारी है, इस पर आधारित हैं कि सीएए-विरोधी प्रदर्शनकारियों ने ही दंगों की योजना बनाईं थी ताकि वे अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की फरवरी के तीसरे हफ्ते में होने वाली भारत यात्रा के साथ इसे घटित करें।”

दिल्ली पुलिस ने खुद जो कहानी सामने रखी है उसके अनुसार निर्विवाद तथ्यों के सामने क्या यह बात सच साबित होने लायक है? नहीं, बिलकुल भी नहीं।

ट्रंप यात्रा की पहली आधिकारिक खबर भारत में 13 जनवरी को छपी जबकि पुलिस के ही अनुसार “साजिशकर्ताओं” की तथाकथित बैठक 8 जनवरी 2020 को हुई थी! तो फिर उपरोक्त आरोप कैसे सही हो सकते हैं?

पुलिस द्वारा जारी कहानी और तथ्यों के बीच अंतर्विरोध साफ है। परंतु, एक बार फिर कहें तो, इसकी परवाह किसे है? कौन इसकी चिंता करेगा? न्यायपालिका ने इसका संज्ञान नहीं लिया। दूसरी तरफ, कपिल मिश्रा ने अपना भड़काऊ भाषण 23 फरवरी 2020 को दिया।

अन्य भाषण व बयान, जो भाजपा नेताओं व मंत्रियों (जिसमें अमित शाह भी शामिल है) द्वारा दिए गए थे जिनमें सीएए-विरोधी प्रदर्शनकारियों के खिलाफ हिंसा भड़काने की बातें थी, 13 जनवरी 2020 के बाद ही दिए गए थे।

निष्पक्षता की आशा करना बेकार

लेकिन यह सारी बातें दिल्ली पुलिस ने खुशी-खुशी नजरअंदाज कर दी हैं, और जिन अदालतों में पुलिस कार्रवाई को कानूनी रूप से चुनौती दी गईं है, उन्होंने भी सुविधापूर्वक तरीके से इन पर ध्यान नहीं दिया है।

न्यायपालिका के ठीक सामने दिल्ली पुलिस की खुलेआम मनमानी के एक अन्य उदाहरण पर गौर करते हैं, जो कोर्ट के सामने घटित हुआ और कोर्ट शांत रहा।

यह तब हुआ जब दिल्ली पुलिस ने खुले तौर पर गिरफ्तार/डीटेन किए गए व्यक्तियों के नामों का खुलासा करने से इनकार कर दिया जैसा कि उसकी स्टेटस रिपोर्ट में लिखा है जो ब्रिंदा करात बनाम दिल्ली सरकार (17 जून 2020) के केस में उसने दिल्ली हाई कोर्ट को सौंपा।

यह तो एक बात है कि यह दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (सीआरपीसी) की धारा 41सी का उल्लंघन करती है जिसके अनुसार सभी गिरफ्तार व्यक्तियों का नाम व पता, और उनके साथ गिरफ्तार करने वाले अधिकारियों के नाम और पद, हर जिला पुलिस कंट्रोल रूम के नोटिस बोर्ड पर प्रकाशित होना अनिवार्य है।

इससे भी बड़ी और चिंताजनक बात यह है कि हाई कोर्ट ने इसका संज्ञान नहीं लिया और पुलिस को अपने मन मुताबिक कार्रवाई करने दी।

लेकिन यह इस शर्मनाक कहानी का अंत नहीं है।

पुलिस ने अल्पसंख्यक आयोग की जांच कमिटी के सवालों पर कोई प्रतिक्रिया तक नहीं जताई। रिपोर्ट कहती है – “दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग ने डीएमसी अधिनियम की धरा 10(एच) के तहत 18 मार्च 2020 को एक नोटिस (क्रमांक 2020/254) जारी की जिसमें 23 फरवरी 2020 के बाद डीटेन किए गए व्यक्तियों की सूची एवं थानावार प्राथमिकियों और प्राथमिकी में परिवर्तित नहीं की गई शिकायतों की कॉपी मांगी गई।”

लेकिन जैसा अपेक्षित था, दिल्ली पुलिस ने कमिटी को कोई जवाब तक नहीं दिया, लिस्ट सौंपने की तो बात ही क्या की जाए। रिपोर्ट के अनुसार – “रिपोर्ट संकलित होने तक आयोग को इसका कोई जवाब नहीं मिला।”

आयोग ने मीडिया रिपोर्ट और मिल रही शिकायतों के आधार पर दिल्ली पुलिस द्वारा मनमाने रूप से की जा रही गिरफ्तारियों पर चिंता जताते हुए एक अन्य पत्र (18 मार्च 2020 को क्रमांक 2020/259) भेजा।

उत्तर-पूर्वी दिल्ली के डीसीपी ने 13 अप्रैल 2020 के एक पत्र में आरोपों को नकार दिया और बिना कोई विवरण देते हुए कहा कि गिरफ्तारियां कानूनी प्रक्रिया और छानबीन के अनुसार ही निष्पक्ष व न्यायसंगत ढंग से हो रही हैं।

भारतीय राजसत्ता फासीवादी बन चुकी है?

इसलिए सुविधापूर्वक तरीके से पुलिस ने जांच के लिए जांच कमिटी को सूची देने से इनकार कर दिया! भले ही यह अटपटा लगे, लेकिन स्पष्ट है कि दिल्ली पुलिस बिना किसी चिंता के अख्खड़ ढंग से खुद को सर्वोच्च समझते हुए कार्रवाई कर रही है। लेकिन यह भी अंत नहीं है।

कमिटी ने दिल्ली पुलिस के सर्वोच्च अधिकारियों के पास सीधे जाने का निर्णय लिया। उत्तर-पूर्वी दिल्ली के डीसीपी को भेजा गया ईमेल दिल्ली पुलिस कमिश्नर को भी 11 जून 2020 को भेजा गया था, मामले में अभी तक दर्ज की गईं सभी चार्जशीटों पर जानकारी और शीघ्र अतिशीघ्र एक बैठक की तारीख मांगने हेतु उनसे अपील की गई।

कमिटी ने उन जानकारियों की विस्तृत सूची भी पत्र के साथ संलग्न की थी जो उसे बीते दिनों में पुलिस से चाहिए थी।

इस संबंध में, रिपोर्ट का कहना है – “इस रिपोर्ट के समापन की तारीख तक, जांच कमिटी को दिल्ली पुलिस से कोई जवाब नहीं मिला।”

एक बार फिर, बेचारे आयोग की परवाह किसे है? अंततः कमिटी को “प्राथमिकियों की कॉपियां उन पीड़ितों से इकट्ठा करनी पड़ीं जो भी उन्हें साझा करने को तैयार हुए।”

हालांकि, कइयों ने “प्रतिहिंसा के भय से प्राथमिकी साझा करना नहीं चाहा और नहीं किया।” संदेश दीवार पर साफ-साफ लिखा है, भले ही हम उसे पढ़ना नापसंद करें।

भारतीय राजसत्ता फासीवादी बन चुकी है। मगर यह इसके जर्मन प्रकार से भिन्न है, या यूं कहें कि यह उससे भी अधिक ख़तरनाक है। (क्रमशः)

(मेहनतकश वर्ग के मुद्दों के लिए समर्पित पत्रिका ‘यथार्थ’ से साभार। रिपोर्ट के सभी उद्धरण लेखक द्वारा अंग्रेजी से अनुवादित हैं। यह लेख बहस के लिए है और इसमें विचार लेखक के हैं। ये ज़रूरी नहीं कि वर्कर्स यूनिटी की इससे सैद्धांतिक सहमति हो।)

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