याचिकाकर्ताओं ने कोर्ट के समक्ष ‘द हिंदू’ की एक सर्वेक्षण रिपोर्ट का हवाला दिया था, जिसमें कहा गया था कि लॉकडाउन की अवधि में 96% प्रवासी मजदूरों को राशन नहीं दिया गया है। 90% को मजदूरी नहीं दी गई है। प्रतिवाद में सॉलिसिटर जनरल ने एक लाइन जवाब दिया था कि, ‘रिपोर्ट सच नहीं हैं’ और कोर्ट संतुष्ट हो गई थी। कोर्ट ने केंद्र के दावों पर सवाल उठाने की न इच्छाशक्ति दिखाई थी और न साहस दिखाया था।
21 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट ने, हर्ष मंदर और अंजलि भारद्वाज की याचिका का निस्तारण कर दिया, और एक मामूली टिप्पणी की कि केंद्र सरकार को याचिकाकर्ता की ओर से पेश “सामग्री” को देखने और “मामले को हल करने लिए ऐसे कदम उठाने को, जो उपयुक्त लगे” कह दिया गया है। कोर्ट को यह मुद्दा इतना भी गंभीर नहीं लगा कि वह प्रवासियों को तत्काल, ठोस राहत सुनिश्चित करने के लिए एक सकारात्मक और ठोस दिशा निर्देश पारित कर दे।
कोर्ट ने याचिकाकर्ताओं की ओर से पेश सामग्रियों, जिनमें दावा किया गया था कि प्रवासी मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी भी नहीं प्राप्त हो रही है, पर बात भी नहीं की। चूंकि कोर्ट के निर्देश ढीले और अस्पष्ट हैं, इसलिए उनके प्रभावी अनुपालन की संभावना भी कम ही है। एक्टिविस्ट स्वामी अग्निवेश की एक अन्य याचिका, जिसमें मांग की गई थी कि लॉकडाउन में बेसहारा लोगों की खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित की जाए, का भी खंडपीठ ने उस दिन निपटारा कर दिया था। कोर्ट के निपटारे का आधार सॉलिसिटर जनरल का वह बयान था कि “याचिका में उठाए गए पहलुओं पर गौर किया जाएगा और यदि आवश्यक हो तो पूरक निर्देश भी जारी किया जाएगा”।
स्वामी अग्निवेश द्वारा दायर एक अन्य जनहित याचिका पर भी अदालत की प्रतिक्रिया ऐसी ही थी, जिसमें लॉकडाउन के बीच कृषि कार्यों को करने में किसानों को होने वाली कठिनाइयों को उठाया गया था। पीठ ने मात्र एसजी तुषार मेहता का बयान दर्ज करने के बाद कि कृषि मंत्रालय द्वारा जारी दिशा-निर्देशों की पूरी निगरानी और कार्यान्वयन की जा रहा है, याचिका का निपटारा कर दिया था।
स्वच्छता कर्मियों को व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरण प्रदान करने के लिए दायर एक याचिका पर, कोर्ट एसजी द्वारा मौखिक रूप से प्रस्तुत जवाब कि केंद्र डब्ल्यूएचओ के दिशानिर्देशों का पालन कर रहा है, पर मान गई थी और मामले के निपटारा कर दिया था। लॉकडाउन के दौरान महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (MGNREGA) के तहत मजदूरों को मजदूरी का भुगतान करने और अपने गांवों में वापस आने वाले सभी प्रवासियों को अस्थायी जॉब कार्ड जारी करने की मांग करते हुए सामाजिक कार्यकर्ता अरुणा रॉय और निखिल डे ने एक जनहित याचिका थी।
8 अप्रैल को, अदालत ने सॉलिसिटर जनरल के दावे के आधार पर कि वेतन के बकाया के लिए 5 अप्रैल को 6,800 करोड़ रुपये का भुगतान किया गया था, मामले को लंबे समय कि लिए स्थगित कर दिया कि दी। मामले को लॉकडाउन के दो सप्ताह बाद सूचीबद्ध करने का निर्देश दिया गया था! 3 अप्रैल को, अदालत ने प्रवासी मजदूरों की दुर्दशा पर लोकसभा सांसद महुआ मोइत्रा द्वारा लिखे गए एक पत्र पर स्वतः संज्ञान लिया और पत्र को रिट याचिका में बदल दिया गया और केंद्र सरकार से एक रिपोर्ट मांगी गई।
हालांकि, 13 अप्रैल को, अदालत ने बिना किसी कारण के एक पंक्ति के आदेश के जरिए रिट याचिका को खारिज कर दिया। औरंगाबाद त्रासदी के बाद द हिंदू की एक ग्राउंड-रिपोर्ट से पता चला कि लॉकडाउन के बाद से ही मजदूरों को मजदूरी नहीं मिल रही थी और वे भूख से जूझ रहे थे; रिपोर्ट में कहा गया है कि मनरेगा योजना के जरिए भी मजदूरों का काम और मजदूरी सुनिश्चित नहीं हो पा रही है। कोर्ट क्या कर सकती है? 26 अप्रैल को, सीजेआई एसए बोबडे ने द हिंदू को दिए एक इंटरव्यू में कहा था कि धन, जन और समान से सुसज्जित कार्यकारिणी COVID-19 के संकट में बेहतर कर सकती है।
इस मसले पर कोई विवाद नहीं है कि संकट के समय में फैसले लेने के लिए कार्यकारी को अधिकतम छूट दी जानी चाहिए। हालांकि, क्या इसका अर्थ यह है कि अदालतों को ऐसी स्थितियों में मूकदर्शक बने रहना चाहिए और कार्यपालिका की कार्रवाइयों का समर्थन करना चाहिए? कोर्ट की पुरानी नजीरों को देखें तो इसका उत्तर नहीं होगा। कोर्ट से यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वह जमीनी स्तर पर मामलों के सूक्ष्म प्रबंधन करे, लेकिन यह संकट की स्थिति में भी वह कार्यपालिका की निगरानी का काम छोड़ नहीं सकती है।
उदाहरण के लिए, विचार करें कि सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली-एनसीआर में नवंबर 2019 में फैले वायु प्रदूषण पर कैसे प्रतिक्रिया दी थी। कोर्ट ने इस मुद्दे पर संज्ञान लेते हुए त्वरित हस्तक्षेप किया था, प्रदूषण कम करने के लिए मजबूत, और प्रभावी दिशा-निर्देश पारित किए थे। कोर्ट सिर्फ निर्देश ही नहीं दिया था, अनुपालन सुनिश्चित करने के लिए स्थितियों की निगरानी भी की थी और अधिकारियों से नियमित स्थिति रिपोर्ट भी मांगी थी।
कोर्ट ने अधिकारियों से कड़ाई से काम लिया था और एक मजबूत संदेश दिया था कि कोई भी उल्लंघन बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। इसके विपरीत, मजदूरों और गरीबों के मामलों में सुप्रीम कोर्ट की प्रतिक्रियाएं (जैसा कि इस लेख के पहले भाग में बताया गया है), आकस्मिक और यांत्रिक था। कोर्ट के पास ‘सतत परमादेश’ जैसे शक्तिशाली उपकरण मौजूद थे, जिनका उपयोग सरकार के कार्यों की निगरानी के लिए किया जा सकता था। जैसा कि रतलाम नगर पालिका मामले में न्यायमूर्ति वीआर कृष्णा अय्यर ने कहा था कि इस तरह के उपाय यह सुनिश्चित करेंगे कि कार्यकारी “अदालत की निगरानी में है।”
इस संबंध में कुछ उच्च न्यायलायों द्वारा किए गए हस्तक्षेप महत्वपूर्ण हैं। केरल हाई कोर्ट केरल सरकार द्वारा मेहमान मजदूरों को आश्रय देने के लिए उठाए गए कदमों की निगरानी कर रहा है। कर्नाटक हाईकोर्ट ने प्रवासियों को गांव वापस लौटने के अधिकारों के मसले पर कठोर टिप्पणियां कीं, और सरकार को विशेष ट्रेनों पर अपनी स्पष्ट नीति बताने का निर्देश दिया। उड़ीसा हाईकोर्ट और बॉम्बे हाईकोर्ट ने प्रवासियों के मुद्दे पर आवश्यक दिशा-निर्देश दिए थे।
यह आत्मनिरीक्षण करने का समय है कि क्या सुप्रीम कोर्ट प्रभावी तरीकों से लॉकडाउन में वंचितों की पीड़ा को कम कर सकता है। कोर्ट, याचिकाओं को निस्तारित करने के बजाय, कार्यकारी के दायित्वों की निगरानी के लिए उपयोग कर सकता है। कोर्ट ने इन्हीं दिनों में सकारात्मक निर्देश भी दिए हैं, जैसे कि जेलों में भीड़ कम करने, चिल्ड्रेन होम्स, और विदेशियों की रिहाई के संबंध में दिए गए फैसले। स्वास्थ्य कर्मियों की सुरक्षा और पीपीई की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए दिए गया आदेश भी सराहनीय है।
फिर भी, समग्र रूप से देखें तो लॉकडाउन अवधि में जनहित के मामलों में सुप्रीम कोर्ट का हस्तक्षेप विरल हो गया है। कोर्ट ने विशिष्ट मामलों में न्याय किया हो सकता है, लेकिन गरीबों के मामलों में आंखें और कान बंद कर लिए। न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता, जो हाल ही में सुप्रीम कोर्ट से सेवानिवृत्त हुए, ने अपने विदाई भाषण में कहा था, “हमारे कानून और हमारी कानूनी प्रणाली पूरी तरह से अमीर और शक्तिशाली के पक्ष में हैं।”
(कानूनी मामलों से संबंधित वेबसाइट लाइव लॉ डॉट इन से साभार)