क्या केंद्र और राज्य सरकारों ने निजी अस्पतालों के सामने जनता को गिरवी रख दिया है?
By रवींद्र गोयल
कोरोना की लड़ाई में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की हालिया कुछ टिप्पणियां भारतीय राजनीति की बनागी भर है जिसमें वो प्रवासी मज़दूरों से दावा करते हैं कि दिल्ली में आपके लिए सारी व्यवस्थाएं हैं और दिल्ली को पूरी तरह खोल देते हैं।
फिर वो कहते हैं कि दिल्ली के अस्पताल तैयार हैं और हफ़्ता बीतेते बयान देते हैं कि दिल्ली की स्वास्थ्य व्यवस्था सिर्फ दिल्ली वालों के लिए है, और ये कहते कहते बॉर्डर सील कर देते हैं।
शायद इससे भी काम नहीं चला तो उन्होंने कहा कि जिनको लक्षण नहीं है वो कोरोना टेस्ट न कराएं, घर पर रहें। इसके कुछ ही दिन बाद उनमें खुद कोरोना के लक्षण दिखाई देने लगते हैं।
बहरहाल भारत में कोरोना महामारी और उससे निपटने के क्या उपाय केंद्र और राज्य सरकारों ने किये उस पर चर्चा करने से पहले दो बातें जान लेना ज़रूरी हैं।
पहला यदि उनको छोड़ दिया जाए जो ये मानते हैं की यह महामारी किसी विश्व प्रभुत्व के चीनी षड़यंत्र का हिस्सा है तो भी बहुत से लोग इसके स्रोत के बारे में स्पष्ट नहीं हैं।
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मुनाफ़े की पीठ पर सवार महामारियां
यदि गंभीरता से सोचें तो ये और ऐसी अन्य बीमारी भूमंडलीकरण के पिछले 40 साल के दौर की अनिवार्य परिणीति है। इस दौर में बिना रोक टोक मुनाफा कमाने की दौड़ में पूंजीपतियों ने हर सावधानी को ताक पर रख दिया है।
साफ़ सफाई या पर्यावरण की इन्हें कोई चिंता नहीं है। जब तक मुनाफा सलामत है मानव जान की भी इन्हें कोई चिंता नहीं है।
कोरोना महामारी भी उसी मानसिकता की अनिवार्य पैदाइश है। चीन के वुहान के डॉक्टर ली, जिन्होंने, सर्वप्रथम इस वायरस के बारे में 30 दिसंबर 2019 को कुछ लोगों को चेताया तो डॉक्टर ली को वुहान की पुलिस ने “ऑनलाइन अफ़वाह फैलाने और सामाजिक व्यवस्था को बाधित करने” के लिए फटकार लगाई।
यदि उनको फटकार लगाने की बजाये उनकी बात को गंभीरता से लिए गया होता, जाँच की गयी होती और रोकथाम के जरूरी कदम उठाये गए होते तो संभव है बीमारी को इतना भयानक रूप लेने से रोक दिया गया होता।
दूसरे शब्दों में कहें तो इस महामारी को किसी बाहरी कारण का नतीजा या अपवाद घटना नहीं माना जाना चाहिए, बल्कि यह आज के दौर की नीतियों का अनिवार्य परिणाम है।
अनुमान लगाया जा सकता है कि यदि यही नीतियाँ भविष्य में भी जारी रही तो ऐसी महामारियां आगे भी पैदा होंगी हाँ वास्तविक समय बताना मुश्किल होगा।
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दवा इलाज़ निजी कंपनियों के हवाले
दूसरी बात जो गौर करने की है की कोरोना एक अत्यंत संक्रामक बीमारी है, अभी तक इसकी कोई दवा इज़ाद नहीं हुई है और यदि 65 साल से ऊपर या अत्यंत गंभीर रूप से बीमार खास कर शुगर, ब्लड प्रेशर, कैंसर से पीड़ित मरीजों को छोड़ दिया जाये तो ज्यादातर मरीज स्वयं ही ठीक हो जाएंगे।
यदि उनकी समय से जांच हो जाये, उन्हें साधारण बुखार खांसी का इलाज मिले, पौष्टिक भोजन मिले और आराम के लिए खुला स्वच्छ स्थान मिले और वो औरों को संक्रमित न कर सकें इसके उनके रहन की व्यवथा हो जाए तो काफ़ी हद तक इस महामारी पर काबू पाया जा सकता है।
65 साल से ऊपर या अत्यंत गंभीर रूप से बीमार खास कर शुगर, ब्लड प्रेशर, कैंसर से पीड़ित मरीजों को अस्पताल में भर्ती करना होता है।
इन सुविधाओं कि कमी और बुनियादी जानकारी के आभाव में यह बीमारी एक विकराल रूप ले चुकी है। अब तक यानी 9 जून 2020 तक दुनिया के पैमाने पर 70 लाख से ऊपर लोग संक्रमित हो चुके हैं।
इनमें 4 लाख लोगों की मृत्यु हो चुकी है। भारत में भी 2 लाख 66 हज़ार लोग संक्रमित हो चुके हैं जिनमें 7500 लोगों की मृत्यु हो चुकी है और यह सिलसिला जारी है।
इस बीमारी पर काबू पाने में नाकामयाबी की बुनियादी वजह यह है की पिछले 40 साल की नवउदारवादी विकास नीति के तहत दुनिया के सभी देशों ने कम या ज्यादा राज्य पोषित स्वस्थ्य सेवाओं से हाथ खींचा है और इस काम को मुनाफे के भूखे निजी क्षेत्र को सौंप दिया है।
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मोदी सरकार की घोर लापरवाही कोढ़ में खाज
भारत में ही आज 80 प्रतिशत डॉक्टर निजी क्षेत्र में काम कर रहे हैं और जो सरकारी सेवाएं हैं भी उनमें से ज्यादातर बदहाल हैं। न पूरे डॉक्टर हैं न कर्मचारी न औज़ार न अन्य सुविधाएँ।
ऐसे में यदि बीमारी पर प्रभावी नियंत्रण पाना था तो केंद्र और राज्य सरकारों को चाहिए था की बुनियादी स्वस्थ्य सुविधाओं को भारतीय सच्चाई के मद्दे नज़र जितनी जल्दी हो सकता तैयार करते। इस सम्बन्ध में क्या है सच्चाई।
जनवरी से ही इस बीमारी की खबर सरकार को मिलने लगी थी। लेकिन कुछ अनुष्ठानात्मक कार्यवाहियों के आलावा सरकार ने कुछ न किया।
सरकार हरकत में मार्च के अंत में और उस समय भी बुनियादी स्वस्थ्य सुविधाओं को भारतीय सच्चाई के मद्दे नज़र तैयार करने की बजाय कोरोना संकट से निपटने के नाम पर मोदी सरकार ने सीधे लॉक डाउन का आदेश बिना किसी तैयारी या पूर्व सूचना के जारी कर दिया।
सरकार ने 130 करोड़ आबादी वाले देश को अपना जीवन ठप्प करने के लिए केवल चार घंटे का समय दिया और यह फरमान सारे देश पर चार घंटे के नोटिस पर लाद दिया गया।
नतीजतन, सभी काम धंधे बंद हो गए और रोज़ कमा कर खाने वाले बहार से आये मज़दूर सबसे पहले भुखमरी के कगार पर पहुंचे और फिर धीरे धीरे सभी मज़दूर इस हालत में पहुँच गए क्योंकि सरकारों ने कोई इंतेज़ाम नहीं किया।
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निजी अस्पतालों की लूट
और जहाँ मज़दूर काम करते थे उनके मालिकों ने मदद करने से इंकार कर दिया। नतीजा मज़दूर घर की ओर पलायन करने लगे।
आज स्थिति ये है की सरकार की चिंता धनी तबकों और मुखर माध्यम वर्ग के तबके की इलाज़ की मांग को देखते हुए कुछ सरकारी सुविधाओं और निजी क्षेत्र के हस्पतालों या होटलों को कोरोना समस्या को सुलझाने में लगाने में है।
होटलों का किराया तीन चार हज़ार रुपये रोज़ का है और प्राइवेट हस्पतालों में इलाज के लिए न्यूयनतम खर्च लाखों में गिनाया जा रहा है।
एक दिल्ली का हस्पताल, सरोज हस्पताल, कोरोना के मरीज़ को भर्ती करने से पहले तीन लाख रुपये जमा करवाता है। बाकी गरीबों के इलाज़ की सरकारों को चिंता ही नहीं है।
कोई आश्चर्य नहीं कि दिल्ली में केजरीवाल जबरदस्ती ये समझाने में लगे हैं की दिल्ली में इलाज इसलिए नहीं हो पा रहा कि बाहर से मरीज़ आ रहे हैं इसलिए दिल्ली में बीमारी फ़ैल रही है।
या कह रहे हैं की बीमार आदमी अपने को टेस्ट करने के चक्कर में न पड़ें और अपने घर पर ही रहें। ऐसे ही बचकाना तर्क और भी दे रहे हैं।
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निजी अस्पतालों का अधिग्रहण क्यों नहीं हुआ?
जरूरत है की यह सवाल उठाया जाना चाहिए की स्पेन की तरह यहाँ क्यों नहीं निजी हस्पताल सरकार अधिग्रहित कर लेती या क्यों प्राइवेट हस्पतालों को आम आदमी की आमदनी के हिसाब से इलाज़ खर्च लेने को बाध्य किया जा सकता है।
एक बात और, भारत कि जयादातर आबादी इस हालत में नहीं है कि वो की अपने घरों में सोशल डिस्टेंसिंग के साथ अकेले बीमारी के समय में आराम कर सकें। यह इंतज़ाम भी सरकार को ही करना होगा।
यदि यह सब नहीं किया जाता तो बीमारी आने वाले समय में और विकराल रूप लेगी और गरीब मेहनती मज़दूर किसानों के लिए भयंकर तबाही का सबब बनेगी।
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफ़ेसर रहे हैं।)
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