मोदी जनता विरोधी फैसले अनाड़ीपने में कर रहे हैं या जानबूझ कर? – फासीवादी हमला-1
By शेखर
पिछले पांच महीने से मोदी के नेतृत्व में भारतीय पूंजीपति वर्ग ने जनता के ख़िलाफ़ एक के बाद एक ताबड़तोड़ फैसले लिए हैं जिससे करोड़ों लोग भुखमीरी, बेरोज़गारी, तबाही और बर्बादी के मुंह में चले गए हैं।
विकास और जीडीपी पाताल में पहुंच गए हैं और प्राईवेट कंपनियों से लेकर सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों में जिस तरह तालाबंदी, छंटनी और निजीकरण की आंधी चल रही है और शहरी ग़रीबों और आदिवासियों को उनके घरों से खदेड़ा जा रहा है, ये आंच सबको महसूस हो रही है।
लेकिन मोदी सरकार बिना परिणामों की परवाह किए, लगातार जन विरोधी फैसले ले रही है। कभी वो खुद आगे होती है, तो कभी मीडिया और सुप्रीम कोर्ट की आड़ लेती है। एक फासीवादी सरकार ही जनता की तबाही की क़ीमत पर पूंजीपतियों की तिजोरी भरने वाले फैसले ले सकती है।
क्या मोदी सरकार विकल्पहीन और दिशाहीन हो गई है, जो जनता को मौत के मुंह में धकेल देने वाले फैसले लेने से बाज नहीं आ रही या उसकी सोची समझी रणनीति है?
जहां आज जरुरत थी एक बड़े स्तर पर स्वास्थ्य सेवाओं के साथ साथ टेस्टिंग और ट्रेसिंग को बढ़ाने की, वहीं मोदी सरकार ने अमानवीय उपेक्षा दिखाते हुए जनता को ऐसी भयानक महामारी के खिलाफ लड़ाई में बिलकुल असहाय और निहत्था छोड़ दिया है।
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यही है मोदी के सपनों का आत्मनिर्भर भारत! ऐसा चित्रित किया जा रहा है कि सरकार स्वाभाविक तौर पर असहाय है और उसके हाथ में कुछ है ही नहीं। ऐसा दर्शाया जा रहा है कि सरकार बेकसूर है। गरीब धार्मिक लोगों के बीच तो यह बेतुका प्रचार तक चलाया जा रहा है कि यह सब तो एक्ट ऑफ़ गॉड यानी भगवान की मर्जी है और भाग्य में यही लिखा है।
और इसी तरह एक प्राकृतिक आपदा को एक भयावह मानव निर्मित आपदा में तब्दील कर दिया गया है और इसके बावजूद यह सरकार दावे कर रही है कि उनसे जो हो सकता था उन्होंने किया है। किसी भी निर्वाचित सरकार का ऐसा रवैया डरा देने वाला है। केवल सरकार ही नहीं, लेकिन न्यायपालिका ने भी ऐसे समय में जनता के प्रति बिलकुल संवेदनहीन रुख अपना लिया है।
सर्वोच्च न्यायालय ने ना केवल देश में हजारों लोगों को मरते देख भी उनसे मुंह फेर लिया, बल्कि उन्होंने तो प्रशांत भूषण जैसे लोगों, जिन्होंने कई बार अन्याय के खिलाफ आवाज उठाई है और सर्वोच्च न्यायालय को उनकी जिम्मेदारियों का एहसास दिलाया है, के विरोधी स्वरों को कुचलना ही अपना प्रमुख लक्ष्य बना लिया।
केवल एक फासीवादी राज्य सत्ता ही, जिसने जनता के बड़े हिस्से को अपने प्रतिक्रियावादी प्रचारों से अपने वश में कर लिया हो, ऐसी महामारी के दौर में जनता से इस कदर खिलवाड़ कर सकती है।
मोदी सरकार ने दिशाहीनता का चोगा ओढ़ लिया है, लेकिन वे दिशाहीन नहीं हैं। यह कैसे संभव है कि भारत जैसी देश की सरकार, जो अपने आप में एक महाद्वीप जितना बड़ा है और तो और भौतिक क्षमता और वैज्ञानिक सामर्थ्य से ओतप्रोत है, ऐसे समय में दिशाहीन हो जाए?
यह तभी हो सकता जब सोच समझ कर अपने संसाधनों को जनता के बजाय दूसरों की, अर्थात मुट्ठीभर बड़े पूंजीपतियों की खिदमत में या उनके हितों की पूर्ति के लिए लगा दिया गया हो।
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विकल्पहीनता का ढोंग
यह केवल अमानवीय नहीं बल्कि एक आपराधिक कदम है जिसे छुपाने की भी कोशिश अब ये सरकार नहीं कर रही क्योंकि मोदी सरकार को यकीन है कि उसने बखूबी जनता के अंदर साम्प्रदायिकता का जहर भर कर उन्हें चुप करा दिया है।
बड़े पूंजीपतियों और साम्राज्यवादियों के लिए उसका प्रेम इन सब से कहीं ऊपर है। इसका सबसे अच्छा उदहारण है मुकेश अम्बानी का दुनिया के दस सबसे अमीर व्यक्तियों की सूची में पांचवे पायदान पर आ जाना।
यही नहीं, मोदी के सभी बड़े पूंजीपति मित्रों ने इस आपदा के दौर में अपनी संपत्ति कई गुना बढ़ा ली है।
जो नुकसान हुआ है वो केवल आम जन साधारण का जिनकी थोड़ी बहुत आय भी लॉकडाउन में पूरी तरह बंद हो गई और अभी भी वे बेरोजगारी, कंगाली, भुखमरी जैसी समस्याओं से घिरे हुए हैं।
इसलिए मोदी सरकार विकल्पहीन होने का सिर्फ ढोंग कर रही है। अगर वो चाहती तो अभी भी स्थिति को सुधारने के बहुत से विकल्प खुले हैं।
सरकार चाहती तो कई कदम उठाए जा सकते थे जैसे देश के सभी बड़े निजी अस्पतालों को अधिग्रहित करना, बड़े कॉर्पोरेट उद्योगों को अस्पतालों, खास कर सरकारी अस्पतालों को आर्थिक सहयोग करने के लिए बाध्य करना, इन सभी क्षेत्रों में जनता की पहलकदमी को बढ़ावा देना ताकि जल्द से जल्द कोविद व गैर कोविद मरीजों के इलाज की पूर्ण व्यवस्था हो पाए, आदि।
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मोदी की प्राथमिकताएं बिल्कुल साफ़ हैं
ऐसे कई उदहारण दिए जा सकते हैं। हालांकि इन कदमों पर मालिक वर्ग का विरोध आना लाजिमी और स्वाभाविक है। लेकिन अगर सरकार की मंशा रहती तो इन जैसे तमाम विरोधों को संभालना भी कोई बड़ी बात नहीं थी।
लेकिन इसके विपरीत सरकार ने पहले से त्रस्त जनता की मुश्किलें और बढ़ाते हुए सैनीटाईजर आदि जरुरी चीजों, जिसे इस महामारी में बचाव के लिए इस्तेमाल किया जाता है, पर 18 प्रतिशत जीएसटी लगा दिया।
लोगों को ये तक नहीं पता है कि पीएम केयर्स का पैसा कहां इस्तेमाल किया जा रहा है। एक चुनी हुई सरकार द्वारा इस तरह का कृत्य बिलकुल आपराधिक और क्रूर है।
दूसरी तरफ, इस पूरी महामारी के दौरान महंगाई बेतहाशा बढ़ रही है जिससे लोगों की जीवन-जीविका बुरी तरह प्रभावित हो रही है। अन्तराष्ट्रीय बाजार में दाम गिरने के बावजूद भी पेट्रोल और डीजल के दाम बढ़ते ही जा रहे हैं। इसलिए कोरोना मरीजों की जान बचाने या संक्रमण को रोकने के लिए जो रास्ते बचे थे उसे भी ये सरकार लगातार बंद करती जा रही है।
क्योंकि यह मोदी सरकार की प्राथमिकताओं में है ही नहीं। उनकी प्राथमिकताएं तय हैं और जगजाहिर भी – उन्हें अयोध्या में मंदिर बनाना है, कांग्रेस शासित राज्यों की सरकार गिरानी है, आने वाले बिहार और बंगाल विधानसभा चुनाव किसी भी तरह जीतने हैं।
साथ ही सरकारी कंपनियों को अपने भारतीय और विदेशी पूंजीपति मित्रों (आका कहना ज्यादा उचित होगा) को बेचना है, श्रम कानूनों में मजदूर विरोधी संशोधन व उन्हें पूरी तरह स्थगित करके संगठित और असंगठित सभी मजदूरों पर हमले करना हैं और मानव अधिकारों के हनन के खिलाफ या जनता के पक्ष में आवाज उठाने वाले बुद्धिजीवियों और राजनैतिक-सामाजिक कार्यकर्ताओं को जेल में बंद करना है।
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जो जनता की आवाज़ उठाएगा, जेल जाएगा
एनआईए ने पिछले दो सालों से जेल में बिना जुर्म साबित हुए सजा काट रहे लोगों की सूची में एक नाम और जोड़ दिया है, दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डॉ हैनी बाबू एमटी का और उन्हें भी भीमा कोरेगांव हिंसा और षड्यंत्र मामले में सह-अपराधी बताते हुई गिरफ्तार कर लिया है।
हालांकि सच तो यह है कि भीमा कोरेगांव में हुई हिंसा और षड्यंत्र में मोदी के चहेते संभाजी भिड़े और मिलिंद एकबोटे के नेतृत्व में दलितों को ही निशाना बनाया गया था।
लेकिन यह तो स्वाभाविक है कि सरकार और एनआईए को इससे कोई मतलब नहीं है क्योंकि असली मुजरिम को पकड़ना और सजा दिलवाना उनका उद्देश्य है ही नहीं, बल्कि उन्हें तो इस घटना की आड़ में उन बुद्धिजीवियों को सबक सिखाना है जो मोदी सरकार और उसकी फासीवादी सत्ता के लिए खतरा बन सकते हैं।
कोई भी प्रतिष्ठित बुद्धिजीवी अगर गरीब मजदूर-मेहनतकश जनता के जनतांत्रिक या मानवीय अधिकारों के लिए लड़ता है या उनके हक की बात करता है या सरकार के खिलाफ आवाज उठाता है, उनके फासीवादी मंसूबों को बेनकाब करता है और अपनी कविताओं, साहित्य, कानूनी बौद्धिक कौशल और कड़ी मेहनत से जनता को जगाने और लड़ाई के लिए प्रेरित करने का काम करता है, तो वह इस सरकार के निशाने पर आ जाता है।
जनता के बीच हिन्दू-मुस्लिम नफरत बढ़ाने वाला बेहद जहरीला एवं प्रतिक्रियावादी प्रचार चला कर उनकी सोचने समझने की क्षमता और इस संवेदनहीन व घोर जन विरोधी सरकार के खिलाफ विरोध का स्वर बेहद कमजोर कर दिया है। (क्रमशः)
(मेहनतकश वर्ग के मुद्दों के लिए समर्पित पत्रिका ‘यथार्थ’ से साभार)
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