क्या नई मज़दूर पीढ़ी उनके शिक्षक “कार्ल मार्क्स” को जानती है?
By अजीत
एक समय था जब मार्क्सवाद मज़दूर वर्ग की मुख्य विचारधारा थी, पर ये कहना भी ठीक है कि आज के दौर में जब कहीं भी मज़दूर राज यानि समाजवादी सत्ताएं नहीं है तो मार्क्सवाद पर पूरी दुनियां के सत्तर पर हमला बोला गया है।
1956 में रूस में पूंजीवाद की फिर से स्थापना के बाद दुनियां के स्तर पर मार्क्सवाद की विचारधारा के अंत की घोषणां खासकर समाजवादी देशों ने की।
रक यह वात अपने आप में द्वन्द्वात्मक नियमों के खिलाफ है, पूंजीवाद को अज्ञेय घोषित करना अपने आप में भाववादी बात है।
रूस मं पूंजीवाद की फिर से स्थापना के बाद दुनियां के स्तर पर कम्यूनिस्ट पार्टियों में पराजयवादी मानसिकता घर कर गई जिसके परिणामस्वरूप पूंजीपतियों को भी मार्क्सवाद पर हमला करने का अच्छा अवसर मिला।
और उसने जमकर हमला भी किया पर हम इस बहस में नहीं पड़ेंगे कि पूंजीवाद की फिर से स्थापना के क्या कारण थे।
आज कि परिस्थितियों और मज़दूर आंदोलन पर हो रहे पूंजी के हमलों को समझते हुए इस सवाल पर चर्चा करेंगे कि क्या मार्क्सवाद आज भी मज़दूर वर्ग की विचार धारा है?
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भारत के संदर्भ में बात करें तो हम पाते हैं कि पहले की तुलना में आज भारत में मज़दूरों की संख्या बढ़ रही है।
भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि की हिस्सेदारी घटी है साथ ही उघोगों कि हिस्सेदारी बढ़ी है।
जिसके परिणामस्वरूप उद्योगिक मज़दूरों की संख्या बढ़ी है, आजादी के दौरान दो विचारधाराएं आजादी की लड़ाई में लड़ रही थी।
एक विचारधारा गांधी की थी जो अग्रेंजो से केवल सत्ता हासिल करना चाहती थी लेकिन सामाजिक ढ़ांचा कैसा होगा इस बात पर गांधी विचारधारा कोई ठोस बात नहीं करती थी।
दूसरी विचारधारा मार्क्सवादी थी जो अग्रेंजो से सत्ता क्रांती द्रारा मज़दूर-किसानों की बात करना चाहते थे।
भगत सिंह और सरीखे क्रांतिकारी भारतीय सामाजिक ढ़ांचे को सामाजवादी बनाने के लिए मार्क्सवादी विचारों को जनता के बीच में ले जाकर जनता को क्रांति के लिए तैयार कर मज़दूरों- किसानों का राज स्थापित करना चाहती थे।
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उस दौर में मार्क्सवाद नौजवानें में घर किया हुआ था, जिसके कारण समाज बदलने की चाहत और इसके लिए नौजवानों ने शहादतें भी दी।
उस दौर में कम्युनिस्ट बनना एक फैशन बन गया था, पर आजादी के बाद 1956 में रूस में पूंजीवाद की पुनास्थापना के बाद कम्यूनिस्ट पार्टी में टूट-फूट बिखराव का दौर शुरू हुआ।
पर जनता की लड़ाई सामजवाद ही बनी रही, लगातार टूट-फूट बिखराव का परिणाम ये निकला कि मार्क्सवाद को संकीर्ण बना दिया गया।
स्थापित कम्युनिस्ट पार्टियों और ट्रेड यूनियन सैंटरो ने मार्क्सवाद को मज़दूरों के बीच गायब कर दिया और मज़दूरों की लड़ाई को अर्थवाद (ट्रेड-यूनियन) तक सीमित कर दिया।
मार्क्सवाद को मज़दूरों के बीच से गायब करना पूंजीवादी समाज को ही आगे बढ़ाना है।
आज की परिस्थितियों को देखने से पता लगता है कि फैक्ट्रियों में कार्य करने वाली नई युवा मज़दूर पीढ़ी उसके शिक्षक “कार्ल मार्क्स” का नाम तक नहीं जानती।
इसका सीधा सा मतलब ये निकलता है कि वर्तमान में स्थापित मज़दूर पार्टियां और ट्रेड यूनियन सैंटर इस पूंजीवादी व्यावस्था के अंदर समाहित हो चुकें है, साथ ही वो इस व्यावस्था का हिस्सा बन चुकें हैं।
वह जनता को यह बताने की जरूरत महसूस नहीं करते कि मज़दूर वर्ग का असल कार्यभार क्या है।
संकीर्णतावादी सोच का असर यहां तक है कि श्रम- कानूनों में मज़दूर विरोधी बदलावों के खिलाफ भई कोई ठोस योजना बनाकर लड़ाई नहीं लड़ी जा रही है।
अपनी कमजोरियों और संशोधनवाद को मज़दूरों पर सौंपने को मज़बूर हैं।
लेकिन हम देखते हैं कि मज़दूरों का इन स्थापित ट्रेड-यूनियनों से मोहभंग हुआ है।
मार्क्सवाद की अगर बात करते हैं तो ये जानते हैं कि आज तक का ज्ञात इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास रहा है।
वर्ग संघर्ष की लड़ाई में सच्चे और मज़बूत मार्क्सवादी भी मौजूद हैं जो मज़दूरों के पीच उनके शिक्षक के विचारों को लेकर जाएंगे।
इस मज़दूर पीढ़ी को बताएगें कि वर्ग युद्ध की इस लड़ाई में अगर मज़दूर वर्ग को समाज फैली तमाम समस्याओं का खत्मा चाहता है तो उसे उनके शिक्षक “कार्ल मार्क्स” यानि मार्क्सवाद को पढ़ना होगा।
साथ ही उसे धरातल पर लागू करना होगा, इस समाज व्यावस्था को बदले बगैर मज़दूर वर्ग के हालात नहीं बदले जा सकते।
भले आज के पूंजीपति वर्ग ने इस व्यवस्था को समाज की आखिरी व्यवस्था घोषित कर चुका है लेकिन मार्क्स का भूत उसको आतंकित कर रहा है।
पूंजीवाद को उसकी क्रब में पहुंचाना होगा, यह कार्यभार मज़दूर वर्ग के कन्धों पर है और यही इतिहास का सच है।
(लेखक बेल सोनिका एम्पलाई यूनियन के वॉइस प्रेसिडेंट हैं)
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