कोरोना की दूसरी लहर में कामकाजी वर्ग के लिए स्थिति बदतर, गंभीर आजीविका संकट की तरफ देश: अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज
मशहूर अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज का कहना है कि कोरोना की दूसरी लहर की रोकथाम के लिए राज्यों के स्तर पर लगाया गया ‘लॉकडाउन’ देशव्यापी बंद जैसी ही स्थिति है हालांकि प्रभाव उतना विनाशकारी संभवत: न हो जो राष्ट्रीय स्तर की तालाबंदी का था। लेकिन कुछ मामलों में कामकाजी वर्ग के स्थिति पिछली बार की तुलना में बदतर लग रही है। ऐसी स्थिति में देश गंभीर ‘आजीविका संकट’ के आगोश में जाता नजर आ रहा है। द्रेज ने कहा, ‘पिछले साल से तुलना की जाए तो लोगों की बचत पर प्रतिकूल असर पड़ा। वे कर्ज में आ गए। जो लोग पिछली बार संकट से पार पाने के लिए कर्ज लिए, वे इस बार फिर से ऋण लेने की स्थिति में नहीं होंगे।’
ज्यां द्रेज के अनुसार ‘व्यापक स्तर पर टीकाकरण के बावजूद, इस बात की काफी आशंका है कि रुक-रुक कर आने वाला संकट लंबे समय तक बना रहेगा। इस बार संक्रमण फैलने की आशंका अधिक व्यापक है और इससे आर्थिक गतिविधियों के पटरी पर आने में समय लगेगा।’ द्रेज का कहना है कि सरकार का 2024-25 तक देश को 5,000 अरब डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने का लक्ष्य कभी भी ‘व्यवहारिक लक्ष्य’ नहीं था।
उन्होंने कहा, ‘सरकार लंबे समय तक कोविड के समुदाय के बीच फैलने की बात से इनकार करती रही है, जबकि रिकॉर्ड में मामले लाखों में थे।’ उन्होंने कहा, ‘जब आधिकारिक आंकड़ों के एक प्रारंभिक विश्लेषण ने स्वास्थ्य सेवाओं में कमी का खुलासा किया, तो सरकार ने आंकड़े को वापस ले लिया। जनता को यह आश्वस्त करने के लिए कि सब ठीक हैं, भ्रामक आंकड़ों का सहारा लिया गया। संकट से इनकार करना इसे बदतर बनाने का सबसे विश्वस्त तरीका है। हम अब इस आत्मसंतोष की कीमत चुका रहे हैं।’
पिछले साल राहत पैकेज दिए गए थे, लेकिन आज राहत पैकेज की कोई चर्चा तक नहीं है। दूसरी तरफ स्थानीय लॉकडाउन जल्दी ही राष्ट्रीय लॉकडाउन में बदल सकता है। वास्तव में जो स्थिति है, वह देशव्यापी तालाबंदी जैसी ही है। उन्होंने कहा कि भारत में खासकर सार्वजनिक स्वास्थ्य क्षेत्र की अनदेखी का लंबा इतिहास रहा है और हम आज उसी की कीमत चुका रहे हैं। गुणवत्तापूर्ण जीवन के लिए स्वास्थ्य से ज्यादा कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं। इसके बावजूद भारत में स्वास्थ्य क्षेत्र पर खर्च दशकों से जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) का एक प्रतिशत बना हुआ है।
पूर्व यूपीए सरकार में राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएससी) से जुड़े रहे द्रेज ने एक सवाल के जवाब में कहा कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली, राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून और राष्ट्रीय सामाजिक सुरक्षा सहायता कार्यक्रम जैसे मौजूदा सामाजिक सुरक्षा योजनाओं और कानून के तहत काफी कुछ किया जा सकता है। सभी राशन कार्डधारकों को प्रस्तावित दो महीने के बजाय लंबे समय तक पूरक (सप्लीमेंट्री) खाद्य पदार्थ आसानी से उपलब्ध कराया जा सकता है। साथ ही सार्वजनिक वितरण प्रणाली का दायरा बढ़ाया जा सकता है।
द्रेज के अनुसार, ‘मौजूदा योजनाओं के अलावा मुझे लगता है कि बेहतर रूप से तैयार, समावेशी नकदी अंतरण कार्यक्रम उपयोगी साबित होगा।’ एक अन्य सवाल के जवाब में बेल्जियम में जन्मे भारतीय अर्थशात्री ने कहा, ‘भारत को 2024-25 तक 5,000 अरब डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने का लक्ष्य कभी भी व्यवहारिक लक्ष्य नहीं था। इस लक्ष्य का मकसद केवल भारत के अभिजात वर्ग की महाशक्ति की महत्वाकांक्षाओं को पूरा करना है।’
गौरतलब है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2024-25 तक भारत को 5,000 अरब डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने का लक्ष्य रखा था। द्रेज ने कहा कि यदि हम जीडीपी को एक वैध विकास इंडिकेटर के रूप में स्वीकार कर भी लेते हैं, लेकिन इसके लिए स्टैंडर्ड अप्रोच यह होना चाहिए कि हम जीडीपी को प्रति व्यक्ति के आधार पर देखें।
अर्थशास्त्री ने आगे कहा कि चूंकि भारत दुनिया के सबसे गरीब देशों में से एक है और यदि हम ‘कुल जीडीपी’ को देखते हैं तो यह भारत की बड़ी आबादी के चलते काफी बड़ी दिखाई देता है। इस वजह से ये समृद्धि और शक्ति का भ्रम पैदा करती है। यदि सरकार की रुचि लोगों की वास्तविक स्थिति के बजाय भारत को विश्व स्तर पर बड़ी शक्ति के रूप में दिखाना है तो जरूर ‘कुल जीडीपी’ महत्वपूर्ण होगी। यह आपको एक बड़ी सेना बनाने में मदद कर सकता है, लेकिन इसका विकास से कोई नाता नहीं है।
(साभार-वायर)
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