निजीकरण-1ः कोयले की कालिख़ में रंग चुका है नरेंद्र मोदी का चेहरा

निजीकरण-1ः कोयले की कालिख़ में रंग चुका है नरेंद्र मोदी का चेहरा

By . प्रिया

कोरोना महामारी की गिरफ्त में पूरी दुनिया त्राहिमाम कर रही है और कुछ भी सामान्य नहीं रह गया है। इस अभूतपूर्व स्थिति के साथ ही, मौजूदा व्यवस्था की कमियां और सड़ांध भी सतह पर आ गई हैं।

इतनी उथल-पुथल की स्थिति में बड़े क्रांतिकारी उभार के बीज जरुर छुपे होते हैं, लेकिन साथ ही पूंजीपतियों के लिए भी इतनी अराजकता के बीच अपना मकसद सिद्ध करने के अवसर होते हैं।

और इसी अवसर का पूरा लाभ उठाते हुए 18 जून 2020 को मोदी सरकार ने 41 कोल ब्लॉक की वाणिज्यिक खनन की अनुमति दे दी है।

इससे निजी कंपनियों को निकाले गए कोयले या अन्य खनिज को किसी भी तरह इस्तेमाल करने की पूरी छूट मिल जाएगी, अर्थात वे इसे कच्चे माल या उर्जा स्रोत की तरह अपने कारखानों में इस्तेमाल कर सकते हैं या बाजार में बेच सकते हैं या एक्सपोर्ट भी कर सकते हैं।

मोदी सरकार के सत्ता में आते ही कोयला क्षेत्र में तीव्र निजीकरण के लिए धीरे-धीरे जमीन तैयार की जा रही थी।

2015 मेंकोल माइंस (स्पेशल प्रोविजन्स) एक्ट के ज़रिये निजी कंपनियों को कोल ब्लॉक की नीलामी में हिस्सा लेने की अनुमति दे दी गई लेकिन शर्त थी इसका इस्तेमाल वे केवल अपने उद्योग में कच्चे माल या उर्जा स्रोत की तरह ही कर सकते थे।

इसी शर्त (कैप्टिव खनन) की वजह से सरकार निजी कंपनियों को कोयला क्षेत्र में निवेश करने के लिए राजी नहीं कर पाई।

2018 में सरकार ने अपनी कोशिशें और बढ़ाते हुएकोकिंग कोल माइंस (नेशनलाइजेशन) एक्ट, 1972औरकोल माइंस (नेशनलाइजेशन) एक्ट, 1973 को भंग कर दिया और इसके साथ ही निजी कंपनियों को कोयला उत्पादन का 25 प्रतिशत बाजार में बेचने की अनुमति मिल गई, लेकिन इसके बाद भी इस क्षेत्र में निजी कंपनियों की रुचि बहुत नहीं बढ़ पाई।

यहां तक कि एफडीआई (प्रत्यक्ष विदेशी निवेश) 100 प्रतिशत करने के बाद भी भारत की जटिल नौकरशाह प्रक्रियाओं और वैधानिक अनुमोदनों की लम्बी फेहरिस्त के कारण कुछ ही विदेशी कंपनियां आईं।

अतः अपने आकाओं को खुश करने के लिए मोदी सरकार ने खनन किए कोयले के इस्तेमाल पर लगी सारी शर्तें हटा दीं और बड़े पूंजीपतियों के लिए देश के खनिज और संसाधनों को लूटने के सारी प्रक्रियाएं भी आसान कर दीं।

नरेन्द्र मोदी ने निजी कंपनियों से अपने संबोधन में उनको रिझाने की कोई कसर नहीं छोड़ी। उनके पूरे संबोधन की समीक्षा उनके ही शब्दों में की जा सकती है, जब वे निजी मालिकों को कहते हैं, “आप दो कदम चलिए, मैं चार चलने को आपके साथ हूं।”

और वे ठीक इसी राह पर बढ़ चुके हैं। नीलामी में प्रवेश करने व बोली लगाने के लगभग सारे मानदंडों को हटा दिया गया है।

अब 100 प्रतिशत 0एफडीआई और प्रवेश के कोई मानदंड ना होने की वजह से कोई भी देशी या विदेशी कंपनी, जिसका खनन का कोई अनुभव नहीं रहा है, बस अग्रिम भुगतान कर नीलामी में हिस्सा ले सकती है।

और तो और, कोयला मंत्रालय के तरफ से यह वादा भी किया जा चुका है कि निवेश करने वाली कंपनियों को पर्यावरण, आदि से जुड़े वैधानिक अनुमोदन लेने में मदद की जाएगी।

इसका सीधा अर्थ है कि सरकार खनन से जुड़ी पर्यावरण, प्राकृतिक संसाधनों और उस इलाके की जनता के प्रति निजी मालिकों को उनकी जिम्मेदारियों से मुक्त करना चाहती है, जिसके बाद उन्हें वहां के मूल निवासियों की जिंदगियों और वहां की जैव विविधताओं को मुनाफे की होड़ में अपने पांव तले रौंदने की खुली छूट मिल जाएगी।

सरकार की प्राथमिकताएं इस बात से साफ हो जाती हैं कि ऐसे कष्टकर समय में, जहां एक बड़ी आबादी आर्थिक तंगी, बेरोजगारी, भुखमरी, कुपोषण, बेघरी जैसी समस्याओं से जूझ रही है, वहां सरकार ने निजी कंपनियों की ‘मदद’ हेतु कोयला खनन और परिवहन से जुड़ी आधारिक संरचना के लिए₹50,000 करोड़ खर्च करने का वादा किया है।

और तो और, प्रधानमंत्री ने कंपनियों को आश्वस्त किया है कि अगर वे निवेश करती हैं तो “उन्हें फाइनेंस (वित्त) की कोई चिंता नहीं करनी होगी”, मतलब सरकार इन निजी मालिकों को बैंकों से सस्ते और आसान लोन मुहैया करवा देगी।

यह कहने की जरूरत नहीं कि जब इनमें से कई तजुर्बेहीन कंपनियां (कोई पात्रता मानदंड नहीं होने से) डूबेंगी और उनका ये कर्ज बट्टे खाते में डाल दिया जायेगा तो इसका भारभी बढ़े हुए करों और स्वास्थ्य, शिक्षा जैसी सार्वजनिक सुविधाओं में होने वाली कटौती के रूप में जनता को ही उठाना पड़ेगा।

लेकिन जनता की परेशानियों का सिलसिला अभी थमा नहीं है। मोदी जी ने निजी कंपनियों के आने से आम जनता को होने वाले कई और “फायदे” गिनवाए।

पहले तो उन्होंने निजीकरण से पैदा होने वाली अनेकों नौकरियों और युवाओं के लिए रोजगार के अवसरों की बात की।

लेकिन क्या जनता को यह नहीं मालूम की निजी मालिकों द्वारा चलाए जा रहे निजी खदान केवल मुनाफे पर आधारित होते हैं? वे अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए नौकरियां बनाते हैं और अपने कर्मचारियों या मजदूरों के प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं महसूस करते।

भारी मशीनरी लगाते ही, श्रमिकों की संख्या बढ़ाने की बजाय, वे पुराने (कम मुनाफा बनाने वाले) कर्मचारियों की छंटनी करना शुरू कर देते हैं। प्रधानमंत्री के अन्य दावों की तरह यह भी देश के बेरोजगार युवाओं और मजदूरों को बरगलाने की ही साजिश है।

साथ ही, निजी मालिकों द्वारा की जा रही छंटनी और कार्य स्थलों पर खतरों के साथ मूलभूत सुविधाओं का अभाव किसी से छुपा नहीं है।

चाहे रेलवे हो या बैंकिंग या कोई और सेक्टर, निजीकरण के साथ हमेशा स्थाई नौकरियों का खात्मा और ठेका प्रथा की तरफ झुकाव ही देखने को मिला है।

ठेका प्रथा के तहत निजी कंपनियों को पिछड़े देहातों और आदिवासी इलाकों में उपलब्ध सस्ता श्रम निचोड़ने का अवसर मिल जाता है।

अल्पतम मजदूरी और बिना किसी सुविधा के काम करने के लिए तैयार बेरोजगारों की फौज के बीच बढ़ती प्रतिस्पर्धा और लाचारी का फायदा निजी कंपनियों ही उठाती हैं।

अपने संबोधन में आगे प्रधानमंत्री ने कोयले के उत्पादन में वृद्धि से उस पर निर्भर सेक्टर जैसे स्टील, बिजली, आदि को होने वाले फायदे का जिक्र किया।

यह सच है कि शुरुआत में निजी कंपनियों के बीच बढ़ती प्रतिस्पर्धा की वजह से उत्पाद बढ़ सकता है और इससे दाम में गिरावट भी आ सकती है।

लेकिन कंपनियों के बीच की प्रतिस्पर्धा और पूंजी के संकेन्द्रण और केंद्रीकरण की प्रवृत्ति की वजह से आगे चल कर कोयला जगत में कुछ ही कंपनियां रह जाएंगी, जैसा किटेलिकॉम/मोबाइल सेक्टर में देखा गया। यह पूंजीवादी विकास का आम नियम है।

अब बची हुई कंपनियों का ये एकाधिकार मनमाने तरीके से दाम तय करेगा और निर्भर उद्योग इसी दाम पर कोयला खरीदने के लिए विवश होंगे। इसका भार भी अंततः गरीब, निम्न मध्यम वर्ग पर, यहां तक कि मध्यम वर्ग के कंधों पर ही पड़ेगा।

निजीकरण के फलस्वरूप खदानों से जुड़े इलाकों के लोगों की बढ़ती समृद्धि और सम्पूर्ण कल्याण की बात भी मोदी जी ने कही। लेकिन यह दावा सच्चाई से कोसों दूर है।

असल में वहां के मूल निवासियों की जिंदगियां पूरी तरह बर्बाद हो जाएंगी। उन्हें उनकी जमीन से बिना किसी मुआवजे के या एक छोटी रकम दे कर बेदखल कर दिया जाएगा और इस ज्यादती के खिलाफ आवाज उठाने वालों को राजकीय दमन और हिंसा का सामना करना पड़ेगा।

खनन के कारण बंजर हुए खेतों, प्रदूषित हुई नदियों और सम्पूर्णता में नष्ट हुए पर्यावरण पर जिनकी जीवन-जीविका निर्भर होगी, उन्हें अब इन बड़े कॉर्पोरेट पूंजीपतियों के भरोसे छोड़ दिया जाएगा। (शेष अगली कड़ी में…)

(मज़दूर मुद्दों पर केंद्रित ‘यथार्थ’ पत्रिका के अंक तीन, 2020 से साभार)

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