मजदूर वर्ग व उत्पीड़ित जनता के दोस्त फादर स्टैन स्वामी -2
By मुकेश असीम
फादर स्टैन को आईएसआई के सांस्थानिक ढांचे के भीतर कार्य करते रहना ही मंजूर नहीं था। आदिवासी जनजातीय समूहों के बीच वह पहले रह चुके थे और उनके अपने अधिकारों के लिए संघर्ष के मध्य काम ही उनके लिए सर्वप्रिय था, और वे वास्तव में 3 दशकों तक झारखंड की जनता के न्यायपूर्ण संघर्षों के अभिन्न अंग बने रहे।
झारखंड के पत्रकार रूपेश कुमार सिंह लिखते हैं, “पूरे झारखंड में ‘सत्य और न्याय’ की आवाज के प्रतिनिधि के बतौर अगर कोई एक व्यक्ति थे, तो वो थे फादर स्टेन स्वामी। संथाल परगना से लेकर, उत्तरी छोटानागपुर, दक्षिणी छोटानागपुर, पलामू प्रमंडल तक में समान रूप से फादर स्टेन स्वामी दलित-आदिवासियों में मशहूर थे। संथाल आदिवासी हो या मुंडा या फिर हो या उरांव आदिवासी, सभी के चहेते थे फादर स्टेन स्वामी।
झारखंड के हरेक कोने में मुझे सुनने को मिला कि हमारे यहां तो कार्यक्रम में फादर स्टेन स्वामी आए थे।“ झारखंड के आदिवासी जनसमुदायों के संघर्षों में जीवन लगाने की प्रेरणा का स्रोत समझने के लिए हमें भारत के पूंजीवादी राज्य द्वारा आदिवासी समुदायों के शोषण संबंधी फादर स्टैन की समझ को जानना जरूरी है। अपने आत्मकथ्य में वे कहते हैं:
“1947 के बाद ‘आदिवासियों’ को ‘अनुसूचित जनजाति’ के रूप में जाना जाने लगा। स्वतंत्रता के बाद से उनकी एक-चौथाई आबादी राष्ट्रीय विकास के नाम पर बड़ी संख्या में विस्थापित हो गई। उनकी भूमि के हस्तांतरण का अनुमान लगभग 22 लाख एकड़ है। उनके जंगल और खनिज संसाधन उनसे छीन लिए गए हैं। भारतीय पूंजीवादी शासक वर्ग ने दो प्रकार की नीतियों का अनुसरण किया। वर्ष 1950 और 1975 के बीच, सरकार द्वारा अपनाई जाने वाली नीति को ‘जातीयता से विकासवाद तक’ के रूप में संक्षेपित किया जा सकता है। लोगों को बताया गया कि उन्हें अपनी जातीय आकांक्षाओं को भूलने की जरूरत है। इसके बजाय, उन्हें खुद को आर्थिक रूप से विकसित करना चाहिए। सभी प्रकार की योजनाएं/परियोजनाएं तैयार की गईं और बहुत सारा पैसा खर्च किया गया। हालांकि, इस तरह के खर्च के वास्तविक लाभार्थी गैर-आदिवासी व्यवसायी, ठेकेदार और नौकरशाह थे। आदिवासी समाजों को धीरे-धीरे एहसास होने लगा कि उनके साथ कैसे धोखा किया जा रहा है। वर्ष 1975 से अब तक की नीति को संक्षेप में ‘विकासवाद से क्षेत्रवाद तक’ के रूप में संक्षेपित किया जा सकता है। विकास के मामले में विफल होने के बाद, शासक वर्ग ने उनसे कहना शुरू कर दिया कि यदि उन्हें अधिक स्वायत्तता मिले हैं तो वे खुद को बेहतर विकसित कर सकते हैं, पहले एक क्षेत्र के रूप में (झारखंड क्षेत्र स्वायत्त परिषद)। उसमें भी असफल होने पर अलग राज्य (झारखंड राज्य) के नाम पर विकास के वादे किए गए।“ (पृष्ठ 17), एवं,
“मैंने उनकी हो भाषा सीखी और युवाओं के साथ बहुत समय बिताया, जिनमें से अधिकांश प्राथमिक या मध्य विद्यालय स्तर से आगे की शिक्षा नहीं ले सके। समानता के उनके सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्य, परिवार और व्यक्ति पर समुदाय की प्रधानता, आपसी सहयोग, बिना गिनती के साझा करने की तत्परता, प्रकृति से निकटता और सर्वसम्मति से निर्णय लेने की प्रथा मेरे और मेरे दोस्तों के लिए नए खुलासे के रूप में आई। मैंने पहले से कहीं अधिक महसूस किया कि कैसे वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था इन मूलवासी मूल्यों के सीधे विपरीत है क्योंकि पूंजीवादी समाज में असमानता जीवन में सफलता की पहचान है, गला घोंटना प्रतिस्पर्धा की आम बात है, साझा करना एक बुरा शब्द है, उपलब्धि ही अंतिम लक्ष्य है और बहुसंख्यक बनाम अल्पसंख्यक लोकतंत्र की निशानी है। लेकिन जब मैंने देखा कि कैसे बेईमान बाहरी-व्यापारियों ने साधारण आदिवासी ग्रामीणों का शोषण किया और उन्हें धोखा दिया, जब वे स्थानीय बाजारों/बाजारों में अपनी वन उपज का आदान-प्रदान करने के लिए कपड़े और घरेलू बर्तन जैसी वस्तुओं के लिए गए। और भी सख्त सदमा यह देखना था कि कैसे हर स्तर पर सरकारी नौकरशाहों ने आदिवासियों को नीचा दिखाया और उनके साथ बेहद अवमानना भरा व्यवहार किया। मैंने अपने आप पर एक नज़र डाली और खुद से पूछा कि क्या मुझे अपना शेष जीवन आदिवासी समाजों के लिए इस तरह से समर्पित नहीं करना चाहिए ताकि मेरा जीवन उनके स्वाभिमान और गरिमा की खोज/संघर्ष में थोड़ा सा भी अंतर ला पाये। आदिवासियों के पक्ष में कानून केवल दिखावा हैं, जिन्हें लागू करने के लिए नहीं बनाया गया है। मैंने आदिवासियों के पक्ष में बनाए गए विभिन्न कानूनों का अध्ययन करना शुरू किया। एक कहावत इस प्रकार है: “लिखित कानून मकड़ी के जाले की तरह होते हैं; वह कंगाल और निर्बल को फँसाएगा, परन्तु धनी और बलवान उसे तोड़ कर फेंक देंगे।” संक्षेप में, यह हमारे देश में मूलवासी आदिवासी समाजों की कहानी रही है। यह सच है कि कुछ कानून आदिवासियों के पक्ष में बनाए गए हैं, लेकिन साथ ही, इन कानूनों को प्रभावी न होने देने के लिए पर्याप्त खामियां भी रखी गई हैं।“ (पेज 13-14)
सार यह कि फादर स्टैन के इन संघर्षों में इतनी गहराई व निष्ठा के साथ जुटने की सबसे बड़ी वजह है कि उनकी नजर में मध्य भारत के जनजाति-दलित समूह प्रचुर प्राकृतिक संपदा वाले स्थानों के हजारों वर्ष पुराने मूलवासी हैं परंतु वे पूंजीवादी सत्ता द्वारा उनके साथ किए गए अन्याय ने उन्हें बेहद गरीबी एवं लाचारगी की स्थिति में पहुंचा दिया है। खनिज पदार्थों से संपन्न उनके निवास स्थलों से उनको विस्थापित किया जा रहा है। उनके अनुसार, “जल, जंगल, जमीन, जैसा कि हम जानते हैं, आदिवासी समाज के आर्थिक जीवन का आधार हैं। लेकिन औद्योगीकरण के प्रसार हेतु वैश्वीकरण, बाजारीकरण और निजीकरण मूलवासी लोगों के आर्थिक निर्वाह पर क्रूर आघात कर रहे हैं। विशेष बात यह है कि वन क्षेत्रों में पाए जाने वाले संसाधनों पर उनके पारंपरिक अधिकारों का दशकों से व्यवस्थित रूप से उल्लंघन किया गया है।“ (पेज 25) एवं “एक आदिवासी समाज की सामाजिक-सांस्कृतिक विशिष्टता की बुनियाद इसके जातीय भूखंड में जमीन, जंगल व अन्य प्राकृतिक संसाधनों पर आधारित सदियों से चली आती एक विशिष्ट उत्पादन प्रणाली है। अगर एक समुदाय को इन संसाधनों से बेदखल कर दिया जाए, तो एक विशिष्ट सामाजिक समूह के रूप में इसका अस्तित्व ही जोखिम में आ जाएगा।“ (Page 13)
अतः फादर स्टेन ता-उम्र आदिवासियों को मिले संवैधानिक अधिकारों को जमीनी धरातल पर लागू कराने के लिए तत्पर रहे। वे वन अधिकार कानून 2006, पंचायत (अनुसूचित क्षेत्र में विस्तार) एक्ट (पेसा) 1996, अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) कानून 1989, संविधान की 5वीं अनुसूची क्षेत्र को दिये गये विशेष अधिकारों। सुप्रीम कोर्ट का समता फैसला, 1991, आदि को सख्ती से लागू कराना चाहते थे। वे केंद्र की संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) की सरकार के द्वारा आदिवासी क्षेत्र में 2009 से चलाए जा रहे ‘ऑपरेशन ग्रीन हंट’ के सख्त विरोधी थे। वे हमेशा आदिवासियों पर सुरक्षा बलों द्वारा ढाये जा रहे जोर-जुल्म की खिलाफत करते थे। जहां कहीं भी फर्जी मुठभेड़ में आदिवासियों की हत्या सुरक्षा बलों द्वारा कर दी जाती थी, तो वे तुरंत फैक्ट फाइंडिग टीम बनाने के लिए सक्रिय हो जाते थे। झारखंड में 2010 में जब ‘ऑपरेशन ग्रीन हंट विरोधी नागरिक मंच’ का गठन हुआ, तब इसमें भी फादर स्टेन अग्रिम पंक्ति में रहे। परंतु इन कानूनी अधिकारों के संरक्षण के संघर्ष में उन्होने निरंतर पाया कि मौजूदा पूंजीवादी व्यवस्था में यह कर पाना अत्यंत मुश्किल है और इसकी सीमा बेहद संकुचित है, क्योंकि सुविधानुसार ‘अवैध’ को ‘वैध’ बनाया जा सकता है, अवैध खनन कंपनी को न्यायिक फैसले से ‘कानूनी’ बनाया दिया गया।“ (पेज 51)
फादर स्टैन आदिवासियों की जमीन की लूट के खिलाफ बोलने वालों में अग्रिम पंक्ति के व्यक्ति थे। विस्थापन की समस्या उन्हें बड़ा ही व्यथित करती थी, इसलिए 2005 में जब ’झारखंड विस्थापन विरोधी समन्वय समिति’ और 2007 में राष्ट्रीय स्तर पर ‘विस्थापन विरोधी जनविकास आंदोलन’ का निर्माण हुआ, तो वे इसकी अगली कतार में शामिल रहे। इसने झारखंड में कई सफल-असफल आंदोलनों का नेतृत्व किया। उनकी नजर में इन आंदोलनों का आधार भी यह परंपरागत विशिष्ट सामाजिक समूह ही थे। कोयल-कारो बांध विरोधी आंदोलन पर वे लिखते हैं, “पूरा समुदाय अपने परंपरागत नेतृत्व के आधार पर संगठित हो गया। बांध निर्माण के खिलाफ पूरे समुदाय को संगठित करने हेतु गांव-गांव में घंटो विशाल पैदल रैलियाँ निकाली गईं। आम सभाएं की गईं। विस्थापन विरोधी आंदोलन में समुदाय को जुटाने का तरीका बहुत दिलचस्प व शिक्षाप्रद है। नगाड़े की एक विशिष्ट ताल है जो समुदाय को खतरे का बोध कराती है। एक गांव द्वारा यह ताल बजाते सुन दूसरा गांव भी इसे दोहराता है। इस तरह अगले गांव तक जाते हुये कुछ ही घंटों में सारे प्रभावित गांवों तक संदेश पहुंच जाता है। अगले दिन समुदाय एकत्र होता है, हर व्यक्ति एक मुट्ठी चावल और एक रुपया योगदान लाता है। अपने विस्थापन प्रतिरोध के सामूहिक हित हेतु आदिवासी समुदाय ऐसे ही समूहबद्ध होते हैं।“ (Page 11)
कह सकते हैं कि फादर स्टेन पहले औपनिवेशिक सत्ता एवं बाद में स्वतंत्र भारत के पूंजीपति शासक वर्ग द्वारा बांधों, खानों एवं उद्योगों के लिए मध्य भारत के मूलवासी आदिवासी जनसमुदायों की खनिज एवं वन संपदा से धनी पारंपरिक जमीन को छीनकर उन्हें विस्थापित एवं उजरती मजदूर बना देने एवं आदिवासी समुदायों की पारंपरिक सामूहिकता आधारित समाज को छिन्न भिन्न कर व्यक्तिवादी खुदगर्जी आधारित पूंजीवादी समाज में रूपांतरण की बेहद दर्दनाक प्रक्रिया से अत्यंत व्यथित व दुखी थे। आदिवासी समुदायों की नई पीढ़ियों द्वारा शिक्षित होकर शहरों में नया पर आत्मकेंद्रित जीवन बनाने या अपनी भूमि से वंचित होकर विस्थापित मजदूरों के रूप में देश भर में बिखरकर अत्यंत शोषण का सामना करने खास तौर पर आदिवासियों युवतियों के घरेलू नौकरानियों या वस्त्र उद्योग की अत्यंत कम मजदूरी वाले काम या यौन व्यापार में धकेले जाने की स्थिति उनके लिए अत्यंत कष्टदाई थी। इससे कुछ हद तक मिलती-जुलती स्थितियों वाले दक्षिण अमरीकी देशों में मूलवासी समुदायों की हिमायती एव्डर कमारा की लिब्रेशन थिओलोजी एवं पाओलो फ्रेरे की ‘पेडागोगी ऑफ द ओप्रेस्ड’ वाले फादर स्टेन के ‘मार्क्सीय’ विश्लेषण ने उन्हें मूलवासियों के इस साथ हो रहे इस अत्याचार से लड़ने के लिए अपना जीवन होम करने के लिए प्रेरित किया।
फादर स्टेन इस अत्याचार से लड़ने के लिए आदिवासी जनसमुदायों को उनके पारंपरिक ढांचे के आधार पर संगठित कर उन्हें उनके परंपरागत आर्थिक-सामाजिक सामुदायिक जीवन को बचाना, संरक्षित रखना चाहते थे। उनकी नजर में जमीन छिन जाने के बाद इस जीवन पद्धति के नष्ट होकर आदिवासियों का मात्र उजरती मजदूर बन जाना अवश्यंभावी है – “यह वास्तविकता होगी यदि झारखंडी आदिवासी/मूलवासी/दलित, न केवल जीवित रहने के लिए बल्कि एक संयुक्त राजनीतिक शक्ति के रूप में पनपने के लिए अपने अधिकारों और उपकरणों के तरीकों और साधनों का दावा करने के लिए एक मजबूत एकजुट शक्ति के रूप में उभरने में विफल रहते हैं। (पेज 18)“ जबकि फादर स्टैन की आकांक्षा इसके विपरीत है, “एक समय आएगा जब किसान-जमींदार और आदिवासी पर्याप्त रूप से जागृत होंगे, मजबूत होंगे और सरकार और उद्योगपतियों को बताएंगे कि वे अपनी भूमि में खनिजों के प्राकृतिक मालिक हैं; और अगर सरकार और उद्योगपतियों को ये खनिज चाहिए तो उन्हें इनसे खरीदना होगा। आइए
आशा करते हैं कि वह समय जल्द ही आएगा। (पेज 32)”
अपने इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए वे आदिवासी जनसमुदायों द्वारा स्वायत्तता के संघर्ष ‘पत्थलगड़ी’ की ओर आशा से देखते हैं पर जिसे भारतीय पूंजीपति शासक वर्ग ने एक अपराध, राष्ट्रद्रोह, घोषित कर दिया है। “पत्थलगड़ी का शाब्दिक अर्थ है पत्थर की पटिया का निर्माण। सदियों पुरानी आदिवासी परंपरा में, जब कोई महत्वपूर्ण और यादगार घटना होती है, तो ग्राम समुदाय गांव के प्रवेश द्वार पर एक पत्थलगड़ी का आयोजन करता है और पत्थर की पटिया पर नाम या घटना अंकित करता है। मुंडारी भाषी आदिवासी समूहों में यह परंपरा विशेष रूप से अनूठी है, जिन्हें झारखंड के छोटानागपुर क्षेत्र में सबसे पहले बसने वाला माना जाता है। अब देर से, 1990 के दशक के मध्य से, आदिवासी केंद्र और राज्य सरकारों और पूंजीवादी शासक वर्ग दोनों के संबंध में मोहभंग की प्रक्रिया से गुजर रहे हैं, क्योंकि उनके जातीय-क्षेत्रों में कोई सार्थक सामाजिक-आर्थिक विकास नहीं हुआ है। (पेज 60) इसका मतलब है कि पूंजीपति शासक वर्ग नहीं चाहता कि आदिवासी समाज खुद पर शासन करे। जाहिर है, आदिवासी कहने की स्थिति में आ गए हैं कि ‘बहुत हो गया’। वे खुद पर शासन करने की चुनौती लेने के लिए तैयार हैं। सच है, उन्होंने अपनी बहुत सी जमीन, जंगल और प्राकृतिक संसाधनों को खो दिया है; और सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के उद्योगों द्वारा उनके पैरों के नीचे से सचमुच खोदी गई खनिज संपदा में उनका कोई हिस्सा नहीं था। फिर भी, उनके पास इसमें से कुछ बचा है और उन्होंने इसे रखने और इसे अपने स्वयं के सशक्तिकरण और मुक्ति के लिए उपयोग करने का फैसला किया है: उनकी वर्तमान और भविष्य की पीढ़ियों के कल्याण के लिए। इसलिए, 2000 के दशक के मध्य से, मुंडा गांवों ने पत्थलगड़ी शुरू कर दी, जिसमें उन्होंने संविधान की पांचवीं अनुसूची और पेसा अधिनियम के अनुसार ग्राम सभा की शक्तियों को अंकित किया। (पेज 61)”
निश्चय ही इस बात से असहमति की रत्ती भर गुंजाइश नहीं कि पूंजीपति वर्ग के तीव्र व अधिकतम पूंजी संचय के लिए औद्योगीकरण के नाम पर भारतीय राजसत्ता ने अन्य क्षेत्रों के साथ-साथ ही मध्य भारत के आदिवासी जनसमुदायों के पारंपरिक निवास क्षेत्रों की वन एवं खनिज संपदा का जबर्दस्त दोहन किया है। उसके लिए इन समुदायों को बड़े पैमाने पर उजाड़ा और बेदखल किया गया जिसके लिए सरकारी तंत्र ने उनके साथ पुनर्वास, विकास के लाभों, और रोजगार, आदि के तमाम दिखावटी वादे किए जो कभी पूरे नहीं किए गए। इसके बाद अफसरशाही ने तमाम कानूनी गैरकानूनी धोखाधड़ी का भी सहारा लिया और जब इन समुदायों ने प्रतिरोध शुरू किया तो सशस्त्र पुलिस एवं भाड़े के निजी गिरोहों के जरिये भारी दमन किया गया। विरोध करने वालों को बड़ी तादाद में अपराधी, देशद्रोही, नक्सली, आतंकवादी, आदि करार दे उन्हें कैद किया गया और फर्जी मुठभेड़ों में भी मारा गया। आदिवासी समूह बड़े पैमाने पर अपने निवास क्षेत्रों से उजाड़ दिये गए और उन्हें ‘विकास’ के रोजगार जैसे लाभ भी प्राप्त नहीं हुये। अतः स्वाभाविक है कि अपनी बेदखली के खिलाफ इन समुदायों में भारी विक्षोभ है और वे इसका प्रतिरोध करना चाहते हैं। पूंजीवादी व्यवस्था के व्यक्तिवादी, आत्मकेंद्रित, खुदगर्ज जीवन ने उनके पुराने सामुदायिक जीवन को भी ध्वंस कर दिया है, जिसके बदले जन्म से पहले से ही संकटग्रस्त व बीमार भारतीय पूंजीवाद ने कोई नया स्वस्थ जनवादी सामाजिक ढांचा भी उनके समक्ष प्रस्तुत नहीं किया है। स्वाभाविक तौर पर इसकी प्रतिक्रिया विभिन्न आदिवासी समूहों की स्थानिक स्वायत्तता और पुराने जनजातीय सामुदायिक जीवन के संरक्षण की आकांक्षा में प्रकट होती है।
पर यहां सवाल उठता है कि क्या ‘आदिवासी/दलित/मूलवासी’ समुदायों को ‘आदिवासी/दलित/मूलवासी’ समुदाय के रूप में ही जीवित रखने या बचाने की बात वास्तव में शोषणमुक्त समाज बनाने की बात है? क्या एक बार पूंजीवादी व्यवस्था द्वारा आदिवासी जनजातीय या सामंती उत्पादन प्रणाली को तोड़ पूंजीवादी उत्पादन संबंधों को कायम कर देने और पुरानी जनजातीय सामूहिकता आधारित सामुदायिक जीवन के ध्वंस पश्चात व्यक्तिपरक जीवन पद्धति के आगमन पश्चात वापस पुराने जीवन में जाना मुमकिन है? फिर क्या ये सामुदायिक जीवन पूरी तरह शोषण मुक्त व समानता आधारित आदर्श न्यायपूर्ण समाज थे? तमाम शोध बताते हैं कि ऐसा नहीं था। इन आदिवासी समाजों में भी निजी संपत्ति व पितृसत्ता बहुत पहले पैदा हो चुकी थी, स्त्रियों की स्थिति दोयम दर्जे की थी और वर्ग विभाजन भी हो चुका था। वैसे भी इतिहास बताता है कि दुनिया भर में ऐसी प्रतिक्रिया के तमाम उदाहरणों के बावजूद समय का पहिया उलटा मोड़ना संभव नहीं हुआ है। अगर आज हम पूंजीवाद के शोषण और खुदगर्जी वाले समाज के बजाय एक शोषणरहित व सामूहिकता वाला समाज बनाना चाहते हैं तो हमें पीछे की ओर नहीं बल्कि आगे की ओर, पूंजीवादी सामाजिक व्यवस्था के उन्मूलन और निजी संपत्तिरहित समाजवादी समाज के निर्माण की ओर बढ़ना होगा जिस समाज में सामूहिक श्रम से सामूहिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए नियोजित उत्पादन पद्धति लागू हो। ऐसी उत्पादन पद्धति ही आज नए सिरे से सामूहिकता युक्त सामुदायिक जीवन संस्कृति का आधार बन सकती है। ऐसे ही समाज में वंचित-उत्पीड़ित समुदायों की सारी जनता की सामाजिक जीवन के हर क्षेत्र में और हर स्तर पर पूर्ण व समान भागीदारी की गारंटी की जा सकती है। वास्तविक मार्क्सवादी विचार तो यही है।
हमने पहले ही बताया है कि फादर स्टेन भी समाजवादी समाज के विचार के पक्षधर थे। पर एक और समाजवादी समाज व्यवस्था की आकांक्षा व दूसरी ओर आदिवासी जीवन को बचाने की बात में जो अंतर्विरोध नजर आता है, उसके लिए सिर्फ उन्हें ही जिम्मेदार मानना ठीक नहीं, इसे भारतीय मजदूर वर्ग राजनीति के संदर्भ में देखना चाहिए। इस समय अधिकांश मजदूर वर्ग राजनीतिक समूह खुद ही छोटे स्तर के उत्पादन को बचाने, किसानी को बचाने, आदिवासी जीवन को बचाने, ग्राम्य जीवन को बचाने जैसे तमाम भ्रम में पड़े हों तो समाजवादी समाज के हिमायती व उसके लिए आंदोलन के मित्र के नाते फादर स्टेन भी वही तक रहे तो इसमें कैसा आश्चर्य?
इन सीमाओं के बावजूद भी हम कह सकते हैं कि फादर स्टैन शोषित, उत्पीड़ित, वंचित मेहनतकश जनता के न्यायपूर्ण जनवादी संघर्षों के सच्चे, गहरे व निष्ठावान मित्र थे और उन्होने इन संघर्षों के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया। मेहनतकश जनता को शोषणमुक्ति के लिए अपने संघर्षों में जीवन के हर क्षेत्र से ऐसे बहुत से मित्रों की जरूरत है। अतः वह फादर स्टैन स्वामी जैसे मित्रों के लिए गहरा सम्मान रखती है और उनसे प्रेरणा लेती रहेगी। अपनी गिरफ्तारी के बाद बंदी जीवन के 6 महीने होने पर आए नववर्ष पर फादर स्टैन ने यह पंक्तियां लिखी थीं, जो हम सब को इस संघर्ष में डटे रहने की प्रेरणा देती रहेंगीं।
नया वर्ष हमारे लिए नई जागृति लाये
नई जागृति हमारे दिलों में नई ज्वाला जगाये
नई ज्वाला हमें सत्य-असत्य में भेद और सत्य पर डटना सिखाये
सत्य हमें साहस दे, सत्ता के मुकाबिल सच बोलने का,
और उसकी कीमत चुकाने के लिए तैयार रहने का। (Page 109) (अंतिम किश्त)
(लेखक यथार्थ पत्रिका के संपदकीय सदस्य हैं।)
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