घोड़े को जलेबी खिलाती और दर्शकों को Reality Trip कराती फ़िल्म
By भाषा सिंह
घोड़े को जलेबी खिलाने ले जा रिया हूं… फ़िल्म का नाम, फ़िल्म के पोस्टर और यहां तक कि फ़िल्म के ट्रेलर एक फंतासी कथा से लगते हैं। पोस्टर पर एक लकड़ी का घोड़ा है, हवा में उछलते से कुछ किरदार हैं और खच्चर पर बैठा एक शख़्स है। इसी तरह से ट्रेलर को देखकर जो विजुअल असर पड़ता है, वह एक फंतासी कथा की गुफा में घुसकर डॉक्यूमेंट्री के किरदारों से टकराते हुए, एनिमेशन की दुनिया में खो जाने सा है। यह पूरी फ़िल्म जादुई यथार्थवाद को बेहद कलात्मक ढंग से जलेबी खिलाने ले जा रही (रिया) है और एक बिल्कुल मिक्स विधा में मौजूदा समय की कड़वी सच्चाई से मुठभेड़ करती है।
इसमें नाटक है, डॉक्यूमेंटरी है, रिसर्च है, वर्तमान से मुखातिब इतिहास है, सपनों की दौड़ है, ज़बान की मिठास है और सबसे बढ़कर मेहनतकश भारतीय नागरिक अपनी पूरी ख़ूबसूरती के साथ दुख-सुख की चादर लपेटे है। वे सब इस बात का जिंदा दस्तावेज पेश करते हैं कि जिंदा रहने के अनगिनत हुनर इतिहास को इतिहास के बंद सीखचों के खींचकर, सबाल्टर्न इतिहास से जोड़ते हैं और इंसानियत को सदा जगमग रखते हैं।
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कॉरपोरेट लूट जब नया नार्मल बन चुकी है, नफ़रती राजनीतिक एजेंडा देश की जम्हूरियत को मटियामेट करने पर उतारू है, तब नेपथ्य से यह फ़िल्म लाल झंडे को लहराती है और जो धुन बजती है, वह कम्युनिस्ट इंटरनेशनल की रिद्म पर है—उठ जाग ओ भूखे बंदी…। इस फ़िल्म में बीच में लाल झंडे को लहराने, मजदूर के उठने का जो शॉट है वह रूसी क्रांति के दौरान की गई पेंटिग्स की छाप लिये हुए है। इसके साथ ही यह दृश्य भारतीय वाम की तमाम जर्जर हालत के बावजूद, यह बतलाने का काम करता है कि आमूल-चूल परिवर्तन का सपना ही आज भी मजदूर और मेहनतकश अवाम को राहत देता है।
लंबी फ़िल्म बनाने, उसे अनगिनत स्तरों पर गूंथने, मांजने और पिरोने के लिए अनामिक हक्सर अपनी पूरी टीम के साथ निश्चित तौर पर बहुत बधाई की पात्र हैं। साथ ही फ़िल्म में दिल्ली-6 का जो हसीन दिल धड़कता है, जो पेचीदा गलियां, बिल्कुल देसी-रियलिस्टिक अंदाज में कैमरे के साथ-साथ डायलॉग में बांधी गई हैं, उसने इस फ़िल्म को बहुत ख़ास बनाया है। यही वजह है कि दरियागंज के डिलाइट सिनेमा हॉल में इन गलियों को गुलज़ार करने वाले शख्स लाइन लगाकर फ़िल्म देखने पहुंच रहे हैं।
दिल्ली-6 में साइकिल-ई-रिक्शा में इस फ़िल्म के बैनर-पोस्टर लगाकर प्रचार होता देख लगता है कि जब फ़िल्म में आम लोग और उनकी जिंदगी धड़कती है, तो फ़िल्म को कैसे वे अपना मानते हैं। मैं यह दावे से कह सकती हूं कि दिल्ली में लगी किसी भी फ़िल्म को इस तरह के दर्शक नसीब नहीं हुए होंगे।
इसके लिए फ़िल्म में एक्टिंग करने के साथ-साथ बेहतरीन डायलॉग डिलीवरी करने वाले कलाकार लोकेश जैन का हुनर बहुत मकबूल रहा। उन्होंने अपनी जीवन साथी छवि जैन, जो खुद बहुत मंझी हुई कलाकार हैं, के साथ मिलकर इस फ़िल्म के लिए जो रिसर्च की वह तारीफ के काबिल है।
इस प्रक्रिया में बेहद विपरीत परिस्थितियों में जीने वाले मजदूरों के सपनों को जिस तरह से डॉक्यूमेंट किया—उसने इस फ़िल्म को एक ठोस आधार दिया, गहराई दी, जिस पर पैर जमाकर निर्देशक अनामिका उड़ते हुए कालीन पर दर्शकों को बैठाकर हकीकत की टूर गाइड बन जाती हैं। यहां सबाल्टर्न हिस्ट्री यानी आम लोगों के जरिये इतिहास की नब्ज को पकड़ने वाले जो दृश्य हैं, उनका पैनापन, उनका व्यंग्य मार्के का है। इसमें जिस तरह से पतरु के जरिये यह बताने की कोशिश की गई है कि दिल्ली के शाहजहांनाबाद के भव्य इतिहास की सैर करते हुए क्यों ज़रूरी है, मेहनतकश जनता से टकराना। गरीबों की जिंदगी—उनकी मौत पर निगाह को भी एक हकीकत भरी ट्रिप में जो तब्दील किया गया है, उससे मौजूदा दौर की विडंबना पूरे नंगेपन के साथ सामने आती है।
इस फ़िल्म में कई किरदार हुबहू अपने स्वाभाविक रूप में एक्टिंग करते नजर आते हैं—जैसे सामाजिक कार्यकर्ता इंदु प्रकाश सिंह और चंगेजी साहेब। इंदु प्रकाश सिंह फ़िल्म को डॉक्यूमेंटरी का टच देते हुए अपने कुर्ते और कुर्ते पर बेटियों के पक्ष में लगे लोगो के साथ एक्टिंग करते हैं। वह उस टीम का हिस्सा हैं तो पुरानी दिल्ली की मौजूदा स्थिति के ट्रिप में फंसी सी हुई है। जिसे गरीबी-भुखमरी, मौत का दर्शन कराता, रंगबाज-पॉकेटमार पतरु, लगातार कलाबाजी करता रहता है। इसमें जब एनजीओ से जुड़ी एक किरदार विभत्स हकीकत से मुठभेड़ के बाद घबराकर यह कहती हैं कि इससे ज्यादा अच्छा है कि मैं पोलर बियर बचाने वाले अभियान पर ही काम करूं, वहीं दूसरा नौजवान ऐलान करता है कि इनके लिए सीएसआर यानी कॉरपोरेट सोशल रिस्पान्सेबिलिटी फंड मिलना असंभव है—तो मानो एनजीओ की दुनिया का ढोंग बेपर्दा हो जाता है। यह सारे शॉट्स दौड़ते-भागते आते हैं और परदे से हट जाते हैं, लेकिन अपना काम कर जाते हैं।
चंगेजी साहेब के वालिद को देख गलियों का इतिहास जिंदा होता है। वहां चल रही (पुरानी दिल्ली में, जामा मस्जिद के पास) अनूठी लाइब्रेरी की याद ताज़ा होती है। साथ ही साथ, पास के मंदिर पर खड़े हिंदुत्व के फरमाबरदारों से आकाश जैन की भिंडत, पिछले दिनों इस इलाके में फैले सांप्रदायिक तनाव के ज़ख्म को हरा कर जाती है। चूंकि मैंने उस दौरान (2020-21) यह पूरा इलाका घूमा था, मैं खुद यहां हुई अमन की बैठकों की गवाह रही थी, लिहाजा इस पूरे शॉट को किस संदर्भ में फिल्माया गया है—इसे बेहद शिद्दत से महसूस कर पाई। हिंदू आकाश जैन जो उर्दू जबान बोलने के जबर्दस्त माहिर हैं, को किस तरह से खुद हिंदू खतरे के तौर पर देख रहे हैं, इसे बखूबी उकेरा गया है। आकाश जैन को अपने ढंग का हिंदू बनाने के लिए धमकाने वाली आवाज़ों को जगह दिये बिना फ़िल्म सच्ची न मानी जाती।
पुरानी दिल्ली के मजदूरों के जितने रूपों को विविधता के साथ इस फ़िल्म ने पूरी संवेदनशीलता के साथ बड़े पर्दे पर उतारा है, वह बिना वाम दृष्टिकोण के संभव नहीं है। हर तरह की मजदूरी, मजदूरों की हाड़-तोड़ मेहनत, मजदूर की फड़कती मांसपेशियों पर जब कैमरा मछली की तरह दौड़ता है, तो एक आधुनिक पेंटिंग स्क्रीन पर उभरती है। पसीने की एक-एक बूंद को जिस तरह से कैप्चर किया गया है, उससे दर्शक के दिमाग में मेहनत के पसीने की कमाई की अनगिनत छवियों को जगह मिलती है। अपने कैमरे ट्रीटमेंट, अपनी थीम में यह मजदूर केंद्रित फ़िल्म है।
तमाम मजदूरों के सपनों में कितनी सघनता से उनका अतीत, दमित इच्छाएं, अतृप्त वासनाएं कौंधती हैं—इसके लिए जिस तरह से रंग-बिरंगे एनिमेशन का प्रयोग किया गया है, वह मौजूदा दर्द से एक तरफ जहां राहत देता है, वहीं यह भी बताता है कि जड़ें पीछा नहीं छोड़ती। चाहे वह गांव में आई बाढ़ हो, जला हुआ घर हो, कचरे में हुई मौत हो, भूखे पेट कचरे पर सोई लड़की की आंखों में स्वादिष्ट खाने की तस्वीरें हों, या फिर जादुई उड़ते कालीन पर सफर, कचौड़ियों से इठलाती लक्ष्मी हों…सब के सब यथार्थ की किरचनों को जोड़कर आज के समय की विडंबनाओं को पेश करते हैं।
थक कर, मेहनत कर चूर हुआ मजदूर जब बोझ पर सिर टिकाता है, तो जिस तरह से हरियाली की रेखा खिंचती है, जो उसे दूर अपने गांव ले जाती है, जहां खेत में उसके बच्चे बिलखते नज़र आते है। यह जो दुख से दुख का रिश्ता है, यह कनेक्शन बहुत तरह से व्याखायित किया जा सकता है। लेकिन इस एक शॉट में पलायन के अनगिनत आयामों को समेटने की कोशिश की गई है, वह असाधारण है। निश्चित तौर पर, इस शॉट को या इस तरह के अनगिनत गहरे अर्थों को, कई समानांतर स्तर पर चलने वाले कहानी के टुकड़ों को जोड़ना साधारण दर्शक के लिए चुनौती भरा है। लेकिन जैसे कहा जाता है कि दुख की कोई ज़बां नहीं होती, वैसे ही मछली की गति से लहर-दर-दर फ़िल्म में शॉट दूसरे शॉट से जुड़ते जाते हैं।
कलाकारों के लिहाज से यह फ़िल्म बेजोड़ है—चाहे वह कचौड़ी बेचते, गाना गाते छादमी की भूमिका में रघुबीर यादव हों, पतरू पॉकेटमार के अवतार में रविंद्र साहू, मजदूर एक्टिविस्ट लाल बिहारी के किरदार में गोपालन हों या फिर इतिहास के पुराने पन्नों को अपनी दिलफरेब अंदाज में, साझी तहजीब की जुबान में कहने वाला आकाश जैन जुनूनी के रूप धरे लोकेश जैन हों—सब दर्शकों के साथ हॉल के बाहर तक सफर तय करते हैं।
कहने की ज़रूरत नहीं कि इन सबका और यूं कहें तो फ़िल्म में आए हर एक्टर ने अपने किरदार को पूरी ईमानदारी के साथ जीने की कोशिश की है।
यहां इस बात को याद रखना ज़रूरी है कि इस फ़िल्म को रियल लोकेशन यानी दिल्ली-6 की गलियों में ही शूट किया गया है, वहां के 300 लोगों को एक्टिंग की ट्रेनिंग देते हुए, वहीं की कहानियों को पिरोते हुए रंगीन परदे पर उतारा। इसीलिए इस फ़िल्म को देखते हुए डॉक्यूमेंटरी का गहरा असर दिखाई देता है। हालांकि, कई जगह अनामिका और उनकी टीम इस मोह में भी फंसी नजर आती हैं कि किस शॉट को काटें, किसे हटाएं। इसके कई हिस्से अनावश्यक विस्तार लिये हुए, जिन्हें आसानी से काटा जा सकता था। जैसे इतिहास का एक व्याख्यान, जिसमें सूफी-इतिहास-बादशाह, मौत की सज़ा आदि का बेहद लंबा चित्रण है, जो फ़िल्म की पटकथा के साथ सिंक नहीं करता, मेल नहीं खाता। इसी तरह एक और शॉट, जिसमें इलाके में चलने वाले छोटे-छोटे कारखानों-उनकी मशीनों का क्लोज-अप शॉट। बिना किसी संदर्भ के यह शॉट—जो वैसे बहुत सशक्त हैं, लेकिन आम दर्शकों के लिए किसी मतलब के नहीं हैं।
वहीं अधिसंख्य शॉट गहरी irony विडंबना से भरे हुए हैं और बहुत हल्के-फुल्के अंदाज में बहुत बड़ी लकीर खींच देते हैं। मजदूर के साथ जब उसका मालिक बदतमीजी करता है तो दिल से वह कैसे मालिक को सबक सिखाना चाहता है और किस तरह से परिस्थितिवश नहीं कर पाता। इस तरह की अनगिनत जगहों पर जो एनिमेशन का कमाल किया गया है, वह वाकई क्रूर-बर्बर हकीकत से निपटने के देसी तरीकों जैसा लगता है। सपनों में सांप, बाढ़, आग, आग में बच्चों का झुलसना, लाशें, घर के भीतर तनी लाशें, लाशों का तैरना, खंडहर-खंडहरों की खिड़कियों से इंसानों का झांकना—सारी तस्वीरों का पानी के भीतर, लहर-दर-लहर गड-मड होना—फ़िल्म की निरंतरता को मजबूत करता है।
अलग-अलग हिस्सों में बंटी सी लगती है यह फ़िल्म। कई बार फिसलती-फिसलती सी और फिर वापस फ़िल्म पटरी पर। ताना-बाना थोड़ा और कसने की ज़रूरत लगती है, फिर लगता है कि जिस तरह की उड़ान इस फ़िल्म में भरी गई है, वह शायद ऐसे ही ताने बाने में संभव थी। कुछ डायलॉग जिस अंदाज में बोले गए—उनकी डायलॉग डिलिवरी का जो पेस है—वह पूरे दृश्य को आंखों के आगे और फैला देता है—जैसे कचरा बीनने वाली लड़की जब कहती है—पापा जहाज में काम करते थे, उसी में मर गये, अब बहुत डर लगता है मंदिर दिखता है, लाशें दिखती हैं, हम चल रहे हैं, उड़ रहे हैं…ऊपर जा रहे हैं।
अब मिसाल के तौर पर देखिये यह डायलॉग को आगे चलकर एक बड़े सपने से भी जुड़ता है—
नमाजी निकल रहे हैं। मैं उनकी जेब काट रहा हूं। इतने में बारिश आ गई, मैंने जेब काटना बंद करके भीख मांगना शुरू कर दिया…
आगे देखिये यह पतरू के वृहद सपने में खुलता है। गरीब जब अमीर होने का सपना भी देखता है, तो उसमें वह अपनी दौलत को सबमें बांटने की बात करता है—सबको भरपेट खाना, नौकरी, घर…। यह सपना पूंजीवाद के मॉडल के बिल्कुल उलट है।
ये सारे बहुत महीन धागे हैं। जिसमें एक संस्कृति किस तरह से बदहाली का शिकार हो खच्चर से गिरती है, जैसे आकाश जैन गिरता है। हमारी साझी संस्कृति कैसे खामोशी से गिरती जा रही है, कैसे इसमें भरोसा करने वाले, अपना सब कुछ दांव पर लगाकर मोहब्बत की बात करते जाते हैं और फ़ना हो जाते है…यह कह जाता है आकाश जैन का गिरना।
लाइट-कैमरे के कमाल से तो लोग अभिभूत हुए बिना नहीं रहेंगे, लेकिन जो कॉस्ट्यूम हैं वह इतने हकीकत से भरे हैं कि लगता ही नहीं कि आप फ़िल्म के परदे पर उन्हें देख रहे हैं। यह कमाल है स्नेहा कुमार का, जिन्होंने कॉस्ट्यूम डिजाइन किये। फ़िल्म के चार मुख्य किरदारों के साथ-साथ बाकी करीब 400 दूसरे एक्टर के भी। सबके कपड़े उनके परिवेश और काम के मुताबिक। पतरू जो पॉकेटमार है, बैंड वाला है, जब वह सब-अल्टर्न हिस्ट्री का टूर गाइड बनता है तो वह सफेद शर्ट पहनता है, जिस पर लाल-लाल फूलों की कढ़ाई बनी है। स्नेहा कुमार ने इस बारे में बताया कि चूंकि यह शर्ट पतरू को 40 फीसदी समय पहननी थीं, इसलिए ऐसी चार शर्ट तैयार की गईं, दो जींस। पतरु इसी शर्ट में पोस्टर में जगमगा रहा है। ऐसे ही कचौड़ी तलते, आम पना बेचते रघुवीर यादव या कचरा बीनती टोली। एनिमेशन में जो लोक कला का इस्तेमाल किया गया वह जगमग रहता है।
फ़िल्म का शीर्षक भी खास है, एक खास दौर का हवाला देता है। जब दिल्ली में घोड़े चला करते थे, घोड़े से बेहद मेहनत कराकर उसे मालिक दूध संग जलेबी खिलाने या इनाम दिलाने ले जा रिया होता था, या फिर ग्राहक को टालने-टरकाने के लिए ग्राहक को मालिक कहता था- बीबी, अभी घोड़े को जलेबी खिलाने ले जा रिया हूं। फ़िल्म की विषय वस्तु, फ़िल्म के शिल्प, फ़िल्म के कथानक, फ़िल्म का ट्रीटमेंट—सब इस फ़िल्म को अनूठी फ़िल्म बनाता है।
लंबी फ़िल्म है, उससे कई गुना लंबी इस पर बात करने का मसाला है। यह फ़िल्म निश्चित तौर पर एक लंबा सफर तय करेगी। अनेक-अनेक शहरों तक पहुंचेगी। अपने ढंग के नये दर्शकों को सिनेमा हॉल तक पहुंचाएगी। अनामिका हक्सर की पूरी टीम की मेहनत रंग लाएगी, ला रही है, घोड़े को लोग जलेबी खिलाने ले जा रिये हैं…है न!!
(Newsclick हिन्दी से साभार)
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