कोरोना से लड़ाई में सरकार ने कैसे लूटी मजदूरों के खून-पसीने की कमाई?

कोरोना से लड़ाई में सरकार ने कैसे लूटी मजदूरों के खून-पसीने की कमाई?

भारत में कोरोना वायरस के पहले मामले की पुष्टि 30 जनवरी 2020 को हुई। फरवरी के महीने तक यह साफ़ हो चुका था कि ऐसा नहीं होने वाला कि कोरोना वायरस भारत को बस छू कर निकल जायेगा।

लेकिन इसके साथ ही दुनिया भर में इसकी वजह से हो रही तबाही भी नज़र आने लगी थी।

फिर भी मार्च महीने तक भारत सरकार इसकी रोकथाम करने में बस पाँव घसीटती रही।

फिर अचानक 24 मार्च 2020 की शाम को बिना किसी तैयारी के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन कि घोषणा कर दी।

सरकार की संवेदना किसके प्रति?

29 मार्च 2020 को गृह मंत्रालय ने एक आदेश जारी करते हुए निर्देश दिया कि, “लॉकडाउन के दौरान काम बंद होने के कारण सभी मालिक मज़दूरों को नियत दिन और समय पर बिना किसी कटौती के उनकी पूरी मजदूरी दें”।

चतुराई दिखाते हुए सरकार ने इस आदेश का पालन करवाने के लिए किसी प्रणाली की जिम्मेदारी तय नहीं की। आदेश का पालन नहीं करने वाले मालिकों पर क्या क़ानूनी कार्यवाही होगी या, क्या सज़ा दी जाएगी इसका भी कोई ज़िक्र नहीं किया।

जब मालिक इस आदेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट पहुंचे तो सरकार ने अपने आदेश का बचाव करने की कोई ज़हमत नहीं उठाई। अपने आदेश के बचाव में पक्ष रखने के बदले सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में मालिकों और मज़दूरों के बीच सामूहिक समझौते करने की पैरवी की।

अदालत ने भी जी हुजूरी करते हुए अपने फैसले में यही बात ज्यों की त्यों रख दी और सरकार के आदेश की बची-खुची साख भी ख़त्म हो गई।

लेकिन अदालत ने मालिकों का पक्ष लेते हुए अपने फैसले में यह भी कहा कि जिन मालिकों ने अभी तक आदेश का पालन नहीं किया है उन पर कोई कानूनी कार्यवाही नहीं कि जाये।

राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में प्रधानमंत्री ने कहा था कि वे चाहते हैं कि सभी मालिक अपने साथ काम करने वाले लोगों के प्रति संवेदना दिखाएं।

भाजपा सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में मालिकों का साथ दे कर साफ़ कर दिया है कि उसकी संवेदना किसके प्रति है।

अगर 29 मार्च 2020 के आदेश का सरकार ने सख्ती से पालन करवाया होता और मेहनतकश लोगों को उनकी तनख्वाह मिली होती तो वे दर –दर की ठोकरें खाने पर मजबूर नहीं होते।

लॉकडाउन कैसे बना कहर?

• राष्ट्र भर में अलग-अलग कौशल वर्ग के लगभग 12 करोड़ लोगों की नौकरी चली गई और काम के पैसे भी नहीं मिले

• यदि मान लें की हर परिवार में केवल 4 सदस्य थे तो इसका मतलब हुआ लगभग 44 करोड़ लोग प्रभावित हुए यानी 139 करोड़ की आबादी में हर 3 में से 1 व्यक्ति नौकरी जाने और उसके परिणामस्वरूप हुए पैसों के नुक्सान से सीधे-सीधे प्रभावित हुआ।

• किसी के पास इस बात का आंकड़ा नहीं है कि जिन लोगों की नौकरी नहीं गयी उसमें से कितने लोगों लॉकडाउन के समय सैलरी मिली। घरेलु कामगारों में ऐसे बहुत कम लोग हैं जिन्हें लॉकडाउन के दौरान सैलरी मिली।

• इस बात का भी कोई आंकड़ा नहीं है कि कितने लोगों को आधी सैलरी या उससे भी कम सैलरी मिली। कई संस्थानों ने बस उन मजदूरों को लॉकडाउन की अवधि के लिए आधी सैलरी दी जिन्हें लॉकडाउन ख़त्म होने पर काम पर वापिस बुलाया गया

• एक बात जो हम जानते हैं वह यह कि चाहे निर्माण क्षेत्र हो या सेवा क्षेत्र ठेका मज़दूरों को उनके पैसे नहीं मिले। यहाँ तक कि सरकार ने भी आशा, आंगनवाड़ी, और मध्याहन भोजन कर्मचारियों को वेतन नहीं दिया।

इससे यह साफ़ पता चलता है कि मजदूर वर्ग के एक बड़े तबके को लॉकडाउन के समय सैलरी नहीं मिली।

लॉकडाउन के शुरुआत में ही अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन ने अंदेशा जताया था कि, भारत में 40 करोड़ लोगों के गरीबी की चपेट में आ जाने का खतरा है।

यह आंकड़ा भी वास्तविकता से कम आँका हुआ हो सकता है। इस बात के तो साक्ष्य हैं ही कि लॉकडाउन के दुसरे हफ्ते के बाद से मजदूरों के पास रोज़-मर्रा की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए भी पैसे नहीं थे।

अगर इसमें उन लोगों को भी जोड़ दें जो छोटा-मोटा कारोबार करते थे जैसे कि रेहड़ी-ठेले पर सामान बेचना आदि जिनकी कमाई लॉकडाउन शुरू होते ही प्रभावित हो गयी थी तो समझिये कि हमारे मुल्क की आधी आबादी को अपने परिवार की जरूरतें यहाँ तक ही खाने का इंतज़ाम करने में भी बहुत मुश्किल हुई।

राहत पैकेज में मज़दूरों को क्या मिला?

• सरकार ने हर व्यक्ति के लिए 5 किलो आटा या गेंहूँ और 1 किलो दाल की घोषणा की है।

यह अपर्याप्त तो है ही साथ ही साथ अनाज वितरण की हमारी लचर व्यवस्था की मार भी झेलेगा जिसकी समस्याओं के बारे में सब जानते हैं।

• मेहनतकश वर्ग का एक बड़ा तबका अनाज पाने से वंचित ही रह गया है क्योंकि उनके पास जरूरी कागज़ात नहीं हैं जैसे कि राशन कार्ड पर वहां का पता नहीं है जहाँ वे रहते हैं या काम करते हैं।

• भाजपा शासन के 6 साल में मनरेगा के तहत मिलने वाली दिहाड़ी में पहली बार इतना बड़ा इजाफा हुआ है दिहाड़ी को 182 रुपये से बढ़ा कर 202 रुपये कर दिया गया है।

• फिर भी यह रकम देश के सबसे कम न्यूनतम वेतन का आधा ही है। इसका मतलब यह हुआ कि मनरेगा परिवारों को गरीब ही बनाये रखेगी वे गरीबी के चक्र से उबर नहीं पाएंगे।

• देश में सबसे अच्छी सैलरी पाने वाले लोग हैं सरकारी कर्मचारी उनकी सैलरी बढ़ने पर भी रोक लग गयी है और महंगाई भत्ता भी बंद कर दिया गया है।

यह कटौती अच्छी सैलरी पाने वाले अधिकारीयों से ले कर सफाई कर्मचारियों तक यानी ऊपर से ले कर नीचे तक हर कर्मचारी के वेतन में की गयी है। यानी सबकी सैलरी में अनुपातिक कमी होने वाली है।

मोदी के इशारे पर श्रम क़ानून ध्वस्त?

इसके साथ ही उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा सभी श्रम कानूनों को निरस्त करने का जो निर्णय लिया गया है जिसमें मजदूरी संहिता 2019 भी शामिल है उस पर केंद्र सरकार ने पूरी तरह से चुप्पी साध ली है।

गुजरात और मध्य प्रदेश द्वारा श्रम कानूनों में बदलाव और काम के घंटे 8 से बढ़ा कर 12 करने के फैसले पर भी मोदी सरकार पूरी तरह से चुप रही है हालाँकि काम के घंटे बढाने के फैसले को बाद में वापिस लेना पड़ा क्योंकि इन्हें जारी करने में सही कानूनी प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया था।

साथ ही देखें तो मजदूरी संहिता दो अलग-अलग दिहाड़ी तय करती है – एक है न्यूनतम मजदूरी जो कि राज्य सरकारों द्वारा तय की जाएगी जैसा कि पहले से होता आया है।और दूसरा है मानक मजदूरी जो केंद्र सरकार तय करेगी जो कि न्यूनतम मजदूरी से कम भी हो सकती है।

न्यूनतम मजदूरी की कानूनी वैधता को ख़त्म करने से इस मानक मजदूरी को बल मिलेगा जिसे न्यूनतम दर से भी कम पर तय किया जा सकता है।

यदि इसे काम के लम्बे घंटों के साथ जोड़ कर देखें तो साफ़ हो जाता है कि सरकार एक ऐसी कानूनी व्यवस्था बनाना चाहती है जहाँ काम के घंटे ज्यादा और दिहाड़ी बहुत ही कम हो।

भाजपा सरकार चाहती है कि हर मजदूर फिर चाहे उसकी मजदूरी कितनी ही कम क्यों न हो, चाहे वह न्यूनतम मजदूरी पर किसी तरह जीवन जी रहा हो उनकी सैलरी में कटौती हो।

मजदूर मालिकों और पूँजीपतियों के मुनाफा बनाने के अधिकार के लिए कुर्बानी दें। भाजपा के हिसाब से यही असली समानता है।

(यह लेख एनटीयूआई की ओर से प्रसारित किया गया था। वहीं से साभार प्रकाशित।)

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