सिंघु बॉर्डरः छावनी जैसे दिखते किसानों के तंबू के बीच एक बदलाव की कहानी: भाग-1
By एस. वी. सिंह
दिल्ली की सभी सीमाओं पर पिछले 55 दिन से जनवरी की हाड़कंपाऊ ठण्ड में अपनी जान कि परवाह किए बगैर लाखों किसान दिन-रात डटे हुए हैं।
दिल्ली आने-जाने वाले पांचों हाईवे किसानों के क़ब्ज़े में हैं। अभी तक 60 के करीब किसान इस आन्दोलन में ठण्ड कि वज़ह से शहीद हो चुके हैं लेकिन किसान आन्दोलनकारियों के उत्साह में कोई कमी नज़र नहीं आ रही।
30 दिसम्बर को किसान प्रतिनिधियों और सरकार के मंत्रियों के बीच छटे दौर की वार्ता विज्ञान भवन में संपन्न हुई।
सरकार के बर्ताव में कुछ परिवर्तन नज़र आया और सरकार ने किसानों की चार मांगों में से कम महत्त्व वाली दो मांगें;परालीप्रदुषण क़ानून के आपराधिक प्रावधानों को, जिनमें किसानों पर एक साल तक की सज़ा और एक करोड़ रुपये का जुर्माना हो सकता है; को किसानों के विरुद्ध इस्तेमाल ना करने और दूसरा प्रस्तावित बिजली बदलाव ड्राफ्ट जिसके तहत किसानों और घरेलु उपभोक्ताओं को मिलने वाला अनुदान हटा लेने का प्रावधान है; को वापस लेने का आश्वासन दिया है।
हालाँकि अभी तक लिखित में कुछ भी नहीं दिया गया है और पराली जलने से होने वाले प्रदुषण वाले मुद्दे पर उच्चतम न्यायलय कड़ाई करने का आदेश ज़ारी कर चुका है।
आन्दोलन पूरी शिद्दत के साथ ज़ारी है। इसी बीच किसानों ने 6 दिसम्बर को किसान मार्च के साथ आन्दोलनों का प्रोग्राम घोषित किया है जिसकी परिणति 26 जनवरी को दिल्ली में ट्रैक्टरों के साथ ‘किसान परेड’ में होनी है।
बेनतिजा होते वार्ताओं के बीच सरकार की रणनीति कृषि कानून वापस ना लेने और एम एस पी पर कानूनी गारंटी ना देकर वार्ताओं से किसानों को थकाकर आन्दोलन की हवा निकालने की है।
पहला मोर्चा: सिंघु बॉर्डर
जी टी करनाल रोड पर दिल्ली से 29 किमी दूर सिंघु गाँव के पास देश के ऐतिहासिक एन एच 1 वाले 6 लेन वाले सारे मार्ग को पिछले 50 दिन से किसानों ने अपने क़ब्ज़े में लिया हुआ है।
इस धरना स्थल को जो एक छावनी की तरह नज़र आता है किसान आन्दोलन का मुख्यालय भी कहा जा सकता है।
दिल्ली से वहाँ पहुँचने पर पहले बड़ी खाइयाँ, कंटीले तार, विशालकाय पुलिस बेरिकेड और बड़ी तादाद में हथियारबंद पुलिस ऐसा अहसास दिलाते हैं मानो दूसरे देश की सीमा पर पहुँच गए हैं।
उसे पार करते ही असंख्य ट्रेक्टर,ट्रालियां और रंग बिरंगी पगड़ियाँ पहने मनुष्यों का महासागर नज़र आता है।
आगे जाईये तो पाएंगे, अनोखे तरीक़ों से ट्रालियों को रिहाईश वाले सुसज्जित कमरों में कैसे रूपांतरित किया जा सकता है।
एक के बाद एक लंगर, भोजन के लिए बड़े और चाय-पकौड़े के लिए छोटे लंगर नज़र आते जाते हैं और वहाँ कार्य कर रहे किसान कार्यकर्ता आपको बिलकुल ना जानते हुआ भी ऐसी आत्मीयता से आमंत्रित करते हैं मानो आप से पुरानी पहचान है।
इस ‘किसान छावनी’ में घुसते ही एक ख़ास पहलू को आप नज़रंदाज़ नहीं कर पाएँगे और वो है पुलिस वालों और किसानों का आपस में घुल मिल जाना, साथ में लंगर छकना, गप्पें मारना, हंसना बोलना।
आखिर इन किसानों के ही तो बच्चे हैं ये पुलिस वाले, किसानों का दर्द महसूस करते हैं।आन्दोलनकारियों और पुलिस वालों के बीच इस तरह का भाईचारा कहीं नज़र नहीं आता।
एक मुख्य मीटिंग स्थल है, ऊँचा पंडाल है जहाँ बाक़ी तस्वीरों के साथ शहीद ए आज़म भगतसिंह और अमर शहीद उधमसिंह की तस्वीरें सजी हुई हैं। यहाँ हर वक़्त तीखे,आक्रोशपूर्ण भाषण व बुलन्द लगातार नारे ज़ारी रहते हैं।
सीमांत किसानों खासतौर पर जो नेता नहीं हैं, उनके भाषण जो उनके खून पसीने और खेतों की धूल में सने होते हैं, बहुत अलग लगते हैं। मुख्य सभा स्थल के आलावा भी दो सभा स्थल हैं।
आन्दोलनकारियों के हुलिए को देखकर समझ आ जाता है कि वहाँ खेत मज़दूर, सीमांत, लघु, मध्यम और धनी सभी श्रेणी के किसानों का जमावड़ा है। वहाँ जमा राशन और उसकी सतत आपूर्ति और उपस्थित लोगों से बातचीत कर पता चल जाता है कि वे लम्बी लड़ाई का मन बना चुके हैं।
वे सरकार के चरित्र के बारे में कोई मुगालता पाले हुए नहीं हैं। इसलिए सरकार अगर वार्ताओं को लम्बा खींचकर किसानों को थकाने की सोच रही है तो निराशा ही हाथ लगेगी।
ये जानने के लिए कोई विशेष योग्यता की ज़रूरत नहीं कि किसानों के आक्रोश के निशाने पर तीन व्यक्ति हैं; मोदी-अडानी-अम्बानी।
हर भाषण में उनके बारे में सभी ज्ञात विशेषण इस अंदाज़ में बोले जाते हैं मानो वे साझेदार हों। “बहुत बड़ी ग़लती हो गई हम मोदी को पहचाने नहीं और उसे समर्थन देते गए, हमें इस गुनाह की सज़ा मिलनी ही चाहिए थी’ ऐसे उदगार चौपाल के अंदाज़ में हुक्के के चारों ओर जमे हरियाणवी किसानों ने भी व्यक्त किए, पंजाबी किसानों का गुस्सा तो फूट पड़ ही रहा है।
एक और ख़ास डायलॉग जो इस रिपोर्टर को, जो 11 दिसम्बर को किसानों के बीच था, अच्छी तरह याद है;‘हम क़र्ज़ में डूब रहे हैं, बच्चे पढ़ नहीं पा रहे लेकिन हम फांसी का फंदा इस बार अपने गले में नहीं डालेंगे, भले जो वसूली के लिए आता है उसके गले में क्यों ना डालना पड़े।’
कोशिश कर भी छावनी के अन्तिम छोर तक पहुंचना मुमकिन नहीं। हर तरफ रंग बिरंगे झंडे खास तौर पर हरे-पीले लेकिन कम्युनिस्टों के लाल झंडे भी कुछ कम नहीं।
मोर्चे के अंदाज़ में हाथ में लाल झंडा लहराते हुए एक युवा कार्यकर्ता को जैसे ही बात करने की इच्छा व्यक्त की, वे ख़ुशी से साइड में खड़े हो गए।
मोहिंदर सिंह सैनी अनंतपुर के रहने वाले हैं और वे सीपीएम से सम्बद्ध किसान सभा के पूर्णकालिक कार्यकर्ता हैं।
‘आपके पास कुल कितनी ज़मीन है? डेढ़ एकड़। उसमें परिवार का गुज़ारा हो जाता है? बिलकुल नहीं, हम तीन भाई हैं उसमें तो एक का भी गुजारा नहीं हो सकता। आपको लगता है, एम एस पी लागू रही और ये काले कानून वापस हो गए तब गुजारा हो पाएगा? वे चुप रहे।
आपको नहीं लगता कि आपको खेत मज़दूरों के आन्दोलन में होना चाहिए था, गलत जगह आ गए?चेहेरे पर कुछ हैरानी और उदासी झलक गई। ये ज़मीन तो हमारे पास रहनी नहीं, हम जानते हैं, इसीलिए दोनों भाई ज़मीन ठेके पर देकर शहर में काम करते हैं, मैं पार्टी में हूँ, इतना डिटेल में तो किसी ने कभी बताया नहीं। अब आ गए हैं तो वार पार करके ही जाएँगे’।
जो भी वहाँ जाता है किसान उसे अपना मानकर खुश होते हैं। शाम को हवा सर्द होने लगी, ये रिपोर्टर अपने घर की दिशा में प्रस्थान कर रहा था लेकिन वे सभी वहीँ पीछे छूट रहे थे।
चाय पकौड़े इतने लज्ज़तदार कभी नहीं लगे। किसी को शक़ है तो सिंघु बॉर्डर जाकर जांबाज़ किसानों की गर्मजोशी, महसूस कर सकता है और साथ में भाप उठते चाय पकौड़ों का लुत्फ़ भी ले सकता है। क्रमश:
(यथार्थ पत्रिका से साभार)
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