मजदूरों के जख्मों पर राहत पैकेज का फाहा कितना कारगर होगा- नज़रिया

मजदूरों के जख्मों पर राहत पैकेज का फाहा कितना कारगर होगा- नज़रिया

By आशीष सक्सेना

लॉकडाउन के चौथे चरण की शुरुआत होने वाली है और मजदूरों के कदम नहीं ठहरे हैं। मजदूरों को जो जख्म अब तक मिले हैं, उन पर सरकार के राहत पैकेज का फाहा कितना कारगर होगा, जबकि उनके दर्द को भी कायदे से नहीं समझा जा रहा है।

कोरोना के खौफ में जीने वालों के लिए ये अब आम बात सी होती जा रही है कि मजदूर पैदल या फिर किसी साधन से लुटकर अपने गांव जा रहे हैं। अलबत्ता, वहां पहुंचकर उनके जीने-खाने का बंदोबस्त क्या है, किसी को परवाह नहीं है।

सरकार के पास फिलहाल तक किसी तरह मनरेगा का काम कराके राहत देने के अलावा कोई चारा नहीं है। बल्कि, छोटे-छोटे मनरेगा के कामों में इन मजदूरों की संख्या इतनी ज्यादा हो गई है कि सोशल डिस्टेंसिंग का फॉर्मूला भी फेल हो चुका है।

किसी तरह उनकी संख्या कम की जाए, इसके लिए अभी से प्रशासन हाथ-पांव मार रहा है, भले ही ये बात सीधे की न जा सके।

खास बात ये भी है कि घर लौटे मजदूरों में आमतौर पर अनुसूचित और पिछड़ी जातियों के लोग हैं। जिनको घेरने बटोरने की सियासी कवायद अब नए सिरे से करने की कोशिशें हो रही हैं। इसमें हल्के तरीके की मजाकिया अंदाज में जाति या सांप्रदायिक सोच को सींचना बारीकी से हो रहा है।

सरकार शायद गांव में पसरी इस आबादी को भी अपने वोट बैंक के नजरिए से देखने की कोशिश कर रही है। उनकी माली हालत जैसी भी हो, उन्हें केवल इतना बताने का प्रयास हो रहा है कि उन्हें यहां लाने में भी सरकार का प्रयास जारी है और यहां काम और खाना देने का भी।

इस काम को बदस्तूर पटरी पर लाने के लिए उत्तरप्रदेश में रोजगार सेवकों का तीन साल से अटका मानदेय जारी कर दिया गया है। रोजगार सेवक देहात की वो कड़ी हैं, जो मनरेगा के कामों की देखरेख से लेकर मजदूरी तक का हिसाब रखते हैं।

migrant labourers

उनका मनरेगा मजदूरों से सीधा जुड़ाव रहता है। जबकि बड़ी तादाद ऐसे रोजगार सेवकों की भी है, जो पंचायत के अन्य कामों में भी सक्रिय रहकर अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज कराते हैं। उनके इर्द-गिर्द वोट बैंक का बड़ा हिस्सा होता है, जिसे वे प्रभावित करते हैं।

दीगर बात ये है कि उत्तरप्रदेश में तो त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव भी टले हुए हैं, जो स्थिति सामान्य होने पर होना लगभग तय हैं। इन चुनावों के नतीजे से बहुत कुछ विधानसभा चुनाव का रुख तय होता है।

बहरहाल, ये राहतें कितनी और कब तक काम आएंगी, कोई सटीक जवाब नहीं है। दूसरे शहरों से लौटे मजदूरों में काफी लोग फिलहाल वापस न जाने की बात कह रहे हैं, तो कई का मानना है कि वापस तो जाना ही होगा, यहां गुजारा कैसे होगा? मतलब, असली सवाल गुजारे का ही है, जिसके लिए पुख्ता इंतजाम होना जरूरी हैं।

कृषि और अन्य उद्यमों का विकास देहात में ही हो तो काफी आबादी वापस हरगिज नहीं जाएगी। इसके लिए खेती का औद्योगिक स्वरूप, छोटी जोत की कृषि का समाप्त होना तेज हो सकता है।

लेकिन, ये औद्योगिक घरानों के या फिर निजी हाथों के जरिए होने से कारगर नहीं होने वाला, इसके लिए उन्हीं लोगों का नेतृत्व भी होना जरूरी है, जो शहरों से औद्योगिक अनुशासन और सामूहिकता का पाठ पढक़र लौटे हैं।

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ashish saxena