संसद में मोदी सरकार का सफ़ेद झूठ, लॉकडाउन में मरे प्रवासी मज़दूरों का आंकड़ा नहीं, इसलिए नहीं मिलेगा मुआवज़ा

संसद में मोदी सरकार का सफ़ेद झूठ, लॉकडाउन में मरे प्रवासी मज़दूरों का आंकड़ा नहीं, इसलिए नहीं मिलेगा मुआवज़ा

By आशीष आनंद

लॉकडाउन के दौरान सडक़ों पर लाचार होकर प्रवासी मजदूरों की तस्वीरें सबने देखी है। इस तरह असहाय होकर सैकड़ों हजारों मील का सफर बिना दाना-पानी करने की मजबूरी का मंजर।

कितने ही पैदल चलते दम भूखे-प्यासे दम तोड़ गए, किसी को वाहन ने रौंद दिया तो कितने ही सडक़ दुर्घटनाओं का शिकार होकर काल के गाल में समा गए।

देश के हर संवेदनशील इंसान की आंखें नम थीं, पूरी दुनिया हैरान थी, लेकिन सरकार का दिल नहीं पसीजा।

अब उसी सरकार से जब संसद में सवाल पूछा गया, ‘लॉकडाउन में कितने प्रवासी मजदूरों की जान गई?’। केंद्रीय श्रम व रोजगार मंत्री संतोष गंगवार का जवाब था, ‘ऐसा कोई डाटा नहीं है, डाटा ही नहीं है तो मुआवज़ा या सहायता का कोई सवाल नहीं उठता’।

क्या सरकार के इस जवाब से कोई सहमति हो सकती है? लॉकडाउन के दिनों में प्रवासी मजदूरों की मौत सडक़ों पर ही नहीं, क्वारंटीन सेंटरों तक में हुईं।

क्या संतोष गंगवार ये भूल गए कि रेलवे सुरक्षा बल (आरपीएफ़) के डेटा से इस बात का खुलासा हुआ था कि 9 मई से लेकर 27 मई के बीच श्रमिक स्पेशल ट्रेनों में 80 मज़दूरों की मौत हुई थी।

आठ मई को महाराष्ट्र के औरंगाबाद में रेलवे पटरी पकड़ कर चलत चलते थककर सो गए मज़दूरों पर ट्रेन गुजरने से 17 प्रवासी मज़दूरों की मौत हो गई थी। ये ख़बर उस समय अंतरराष्ट्रीय ख़बरों की सुर्खियां बनी थी।

दो महीने के कठोर लॉकडाउन में 750 मज़दूर मारे गए

लखीमपुर खीरी में दलित समुदाय के एक प्रवासी युवा मजदूर को पुलिस ने पीटा, जिसके बाद उसने आत्महत्या कर ली। बिहार में भी क्वारंटीन सेंटर में एक ने फांसी लगाकर जान दे दी। सांप काटने से भी कई मौतें हुईं।

सडक़ों पर पैदल या किसी साधन से घर पहुंचने की कोशिशों का सिलसिला दो महीने तक चलता रहा। इन दो महीनों में 198 मजदूरों की मौत सडक़ दुर्घटना में हुई, ये दावा तो सेव लाइफ फाउंडेशन का है।

सडक़ दुर्घटनओं और यातायात पर काम करने वाले सबसे बड़े इस एनजीओ की रिपोर्ट बताती है कि 25 मार्च से 31 मई तक राष्ट्रव्यापी तालाबंदी के दौरान कम से कम 1,461 दुर्घटनाएं हुईं, जिसमें 198 प्रवासी श्रमिकों सहित कम से कम 750 लोग मारे गए थे।

आंकड़ों के अनुसार, 1,390 लोग घायल हुए। इन आंकड़ों के अनुसार, 25 मार्च से 31 मई तक राष्ट्रव्यापी तालाबंदी के दौरान कम से कम 1,461 दुर्घटनाएं हुईं, जिसमें 198 प्रवासी श्रमिकों सहित कम से कम 750 लोग मारे गए थे। आंकड़ों के अनुसार, 1,390 लोग घायल हुए।

रिपोर्ट में ये भी कहा गया है कि इन दुर्घटनाओं की वजह बसों और ट्रक चालकों की थकान बड़ा कारण है। कामचलाऊ तरीके से प्रवासियों को ही परिवहन के लिए काम पर रखा गया।

सडक़ों पर तेज रफ्तार और सडक़ों की खराब इंजीनियरिंग इतनी मौतों का सबब बना।

migrant worker
migrant worker

सबसे अधिक मौतें यूपी में

बताई गई मौतों में उत्तर प्रदेश में सबसे ज्यादा 245 मौतें हुईं, जो कि मौत के आंकड़ों का 30 प्रतिशत है। इसके अलावा तेलंगाना में 56, मध्य प्रदेश में 56, बिहार में 43, पंजाब में 38 और महाराष्ट्र में 36 मौतें हुईं।

सडक़ हादसों में भी उत्तरप्रदेश शीर्ष पर रहा, जहां 94 प्रवासी मजदूरों की जान गई। इसके अलावा मध्यप्रदेश में 38, बिहार में 16, तेलंगाना में 11 और महाराष्ट्र में 9 मजदूर असमय मरे।

रिपोर्ट कहती है कि डेटा को मीडिया-ट्रैकिंग और मल्टी-सोर्स सत्यापन का उपयोग करके संकलित किया गया है।

फाउंडेशन का विश्लेषण है कि लगभग 27 प्रतिशत पीड़ित प्रवासी श्रमिक थे। पांच प्रतिशत में पुलिस, डॉक्टर आदि रहे। लॉकडाउन-4 मौतों के मामले में सबसे घातक साबित हुआ, इस दरम्यान 322 मौतें (43 प्रतिशत) हुईं।

लॉकडाउन-3 प्रवासी श्रमिकों के लिए मौत का सफर साबित हुआ। मीडिया में दर्ज सूचनाओं के हिसाब से तीसरे चरण के लॉकडाउन के दौरान हुई सडक़ दुर्घटनाओं में हुई मौतों में 60 प्रतिशत प्रवासी मजदूर थे, जबकि चौथे चरण में प्रवासियों की मौत की सूचना 19 प्रतिशत रही।

साज़िश ढूंढ रही सरकार

ये भयावह सिलसिला जब चल रहा था, सरकार एक के बाद एक आदेश करके मजदूरों को कभी कहीं तो कभी कहीं ठेल रही थी। कभी रेल चलाने का निर्णय हुआ तो कभी प्रवासियों को रोककर बंधक बनाने जैसी स्थिति थी।

स्पेशल ट्रेनों में किराया वसूलने से लेकर, भूखे-प्यासे नॉन स्टॉप यात्रा से तमाम मौतों की खबरें भी आईं।

इसी दौरान सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में कहा कि मीडिया हालात पर गलत तस्वीर पेश कर रही है। एक-दो घटनाओं के आधार पर सरकार को बदनाम किया जा रहा है।

सरकार समर्थकों ने का कहना है कि ये सब वामपंथियों की साजिश है और उन्होंने मजदूरों को डराकर घरों को भागने का माहौल बनाया।

सरकारी अस्पतालों में बिना आधार कार्ड कोरोना जांच तक नहीं हो रही तो पुलिस रिकॉर्ड तो डाटा तो बता ही सकता है कि कहां, कितनी, कैसे मौतें हुईं।

 

इस पर भी सरकार ये कहे कि डाटा न होने से कोई मुआवजा नहीं दिया जा सकता तो हैरानी होना स्वाभाविक है।

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ashish saxena

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