सुप्रीम कोर्ट के दो फैसलों ने वर्किंग क्लास को बर्बाद किया और कैसे भारत को गुलामों का देश बना दिया: कोलिन गोंसाल्विस
सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील और लेबर लॉ के बड़े जानकार कोलिन गोंसाल्विस ने ट्रेड यूनियन आंदोलनों और मौजुदा दौर में चल रहे विभिन्न विषयों पर अपनी बातें रखी।
केजी कन्नाबिरेन मेमोरियल में अपने अनुभव साझा करते हुए कहा की ” मैनें कन्ना से बहुत कुछ सीखा है। अपनी स्पीच में मैं बताना चाहूंगा कि कैसे उन्होंने मेरे काम पर असर डाला, मुझे समझाया कि कानून, गरीबों के लिए है। मैं आपके साथ कानून और मानवाधिकार आंदोलनों, अपने निजी केसों और दूसरी बातों का जिक्र भी करना जरूरी समझता हूं। आज के माहौल में यह सब साझा करना इसलिए जरूरी है क्योंकि यह आंदोलनों के लिए बहुत मुश्किल समय है।”
उन्होंने बताया कि कन्ना अगर इस क्रूर समय में जीवित होते तो निश्चित तौर पर उन दूसरे वकीलों की तरह जेल में डाल दिए जाते, जिन पर आज देशद्रोह का केस लगा हुआ है और जो राज्य के खिलाफ युद्ध लडने की धाराओं में जेल में डाल दिए गए हैं।
कन्ना ने ही मुझे सिखाया कि केस के मामले में पहले यह देखो कि तुम्हारा अपना अवचेतन क्या कहता है और तुम्हारे दिल से क्या आवाज आ रही है। इसके बाद ही अपने तर्क तैयार करो और फिर अपने सिद्धांतों की कसौटी पर उन्हें कसो।
सुप्रीम कोर्ट के वे दो फैसले, जो वर्किंग क्लास के खिलाफ गए
पहला केस आरके पंडा वर्सेज स्टील अथॉरिटी आफ इंडिया लिमिटेड (सेल) का था। यह कांट्रैक्ट लेबर एक्ट 1970 के प्रावधानों की व्याख्या का सरल मामला था, जिसके अनुसार अगर कोई संस्था या कंपनी स्थायी नेचर की है तो वर्कर भी स्थायी होने चाहिए, कांट्रैक्चुअल नहीं।
सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच ने इसी व्याख्या के अनुकूल शानदार फैसला दिया था लेकिन यह इंडस्ट्रिलिस्टस को पसंद नहीं आया और चमत्कारिक ढंग से तत्कालीन चीफ जस्टिस ने इसे बडी बेंच को भेज दिया, जिसने यह फैसला पलट दिया। इस एक फैसले ने लाखों मजदूरों को गुलामी की राह पर धकेल दिया।
दूसरा मामला उमा देवी का था, जो सरकारी विभागों में कैजुअल वर्कर्स से जुडा था, जिन्हेांने ठेका मज़दूर के तौर पर दशकों काम किया था।
इससे पहले ऐसे मामलों में आए फैसले शानदार थे, जिनमें कहा गया था कि पांच साल या इसके आसपास काम कर चुके ठेका मज़दूर को स्थायी करना होगा।
ये फैसला सरकार को पसंद नहीं आया और इसे भी बदल दिया गया। सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच ने फैसला दिया कि अगर कोई कर्मचारी जीवन भर भी अनुबंध पर काम करता है तो भी वह स्थायी नहीं होगा।
इस फैसले की वजह से आज सरकारी विभागों और सार्वजनिक उपक्रमों में लाखों लोग अनुबंध पर काम करते है, जिन्हें कम से कम वेतन मिलता है और न ही उन्हें रोजगार बने रहने की कोई गारंटी भी नहीं दी जाती।
इन दो फैसलों ने ही भारत को गुलामों का देश बनाने में मदद की।
मजदूरों की ताकत का दौर
आगे उन्होंने बताया “मैनें इमरजेंसी का दौर देखा, तब मैं आइआइटी मुंबई में था। उसके बाद कपड़ा मजदूरों की बडी हडताल हुई थी। जयप्रकाष नारायण की संपूर्ण क्रांति के आह्वाहन पर दत्ता सामंत के नेतृत्व में लाखों मज़दूर सडकों पर थे। लोगों के गुस्से का ही नतीजा यह हुआ कि सरकार तक को जाना पडा। ऐसा क्रांति के दौर में ही होता है कि लाखों लोग अपने जीवन के सवाल पर सिस्टम से भिड जाएं और उसे झुकने पर मजबूर कर दें।”
सोशल मूवमेंट को नहीं समझते कोर्ट
कोलिन गोंसाल्विस ने अपने अनुभव बाटंते हुए कहा कि मैंने जाना कि कोर्ट के अंदर सोशल मूवमेंट को समझने की इच्छा ही नहीं है। 1980 के पहले तक न्यायिक प्रक्रिया से जुड़े लोग आम आदमी की ताकत समझते थे क्योंकि आजादी आंदोलन का दौर ज्यादा पीछे नहीं गया था।
उन्होंने कहा “मेरे लिहाज से ग्लोबलाइजेशन को तीन शब्दों में समेटा जा सकता है और वह यह कि सब्सिडी बुरी चीज़ है। लोगों को रोजगार और सामाजिक सुरक्षा उपलब्ध कराना सरकार का काम नहीं है, बल्कि सरकार महज एक सर्विस प्रोवाइडर है।
कोविड 19
पिछले साल कोरोना के दौरान लॉकडाउन का समय याद करें, जब लाखों प्रवासी मजदूर अपने घर जाने के लिए बीवी, बच्चों के साथ सडकों पर थे। तब हमने पूंजीवाद का नंगा चेहरा अपनी आंखों से देखा, किसी को फिक्र नहीं थी कि मजदूर जी रहे हैं या मर रहे हैं। मजदूरों ने मान लिया था कि किसी पर भरोसा नहीं किया जा सकता और देश का हर आदमी सच बोलने की ताकत खो चुका है। तब लगा कि देश में अमीर और गरीब के बीच किसी तरह के मानवीय रिश्ते बुनियादी तौर पर खत्म किए जा चुके हैं ।
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