दर्द के साथ मोदी को थोड़ी शर्म भी होती तो लाशों के बीच आलीशान बंगला नहीं बनवा रहे होते- नज़रिया
By दीपक भारती
कोरोना से पीड़ित ‘लोगों के दर्द को अपना दर्द’ बताने के नरेंद्र मोदी के दावे पर अंग्रेजी अखबार टेलीग्राफ ने कड़ा तंज किया है।
अखबार ने पीएम के बयान को पहले पेज की लीड बनाया और लिखा है- ‘द पेन दैट पीपल हैव सफर्ड, आई फील इट इक्वली- पीएम ।’ यानी, मैं लोगों के दर्द को उतना ही महसूस कर रहा हूं, जितना उन्होंने झेला है-पीएम। इसके नीचे अखबार ने दो फोटो लगाए हैं।
पहले फोटो में पीएम नरेंद्र मोदी हाथ में रिमोट लिए हुए चैनल बदलते हुए सक्रिय और उत्साहित नजर आ रहे हैं। अख़बार ने लिखा है- ‘इफ यू काॅल दिस पेन’ यानी अगर आप इसे दर्द कहते हैं.. तो ये क्या है?
दूसरा फोटो बेंगलुरू का है, जिसमें गुरूवार को श्मशान में अपने परिजनों को अंतिम विदाई देने के बाद एक दूसरे को ढांढस बंधाते दो लोग हैं, पीछे कई चिताएं जलती दिख रही हैं।
इस फोटो के बाईं ओर अखबार ने सवाल पूछा है, ‘व्हाट डू यू काॅल दिस’ यानी इसे आप क्या कहेंगे?
शुक्रवार को मोदी ने किसानों को सालाना 6000 रुपये देने वाली घोषित स्कीम की एक किश्त जारी करने के मौके पर ये कहा और उनका ये पूरा भाषण सोशल मीडिया मैनेजमेंट से अधिक कुछ नहीं था जिसमें पहले से चुने गए कुछ किसानों के साथ दिखावटी बातचीत शामिल की गई थी।
‘भारत हिम्मत हारने वाला देश नहीं है। ना भारत हिम्मत हारेगा, ना कोई भारतवासी हिम्मत हारेगा। हम लड़ेंगे और जीतेंगेय़’ जैसे मुंबईया फ़िल्मों जैसे जुमलों से भरे मोदी के भाषण में कहीं भी गंगा में बहती हज़ारों लाशों का न ज़िक्र था, न ऑक्सीजन, दवाएं, वैक्सीन और अस्पताल बेड की कमी को ठीक करने का कोई आश्वासन।
देसी मीडिया को साधने के बावजूद जब विदेशी मीडिया में मोदी की अकर्मण्यता की धुलाई होने लगी तो उनकी सौम्य छवि गढ़ने के लिए सारे मंत्रियों, बीजेपी नेताओं, कार्यकर्ताओं और समर्थकों की फौज लगा दी गई। बीजेपी के पूर्व मुख्यमंत्री ने बेशर्मी की हद पार करते हुए कोरोना को प्राणी बता दिया और उसके जीने के हक़ की पैरवी तक कर बैठे।
मोदी के सबसे बड़े सपोर्टर बाबा रामदेव ने तो कोरोना मरीज़ों की खिल्ली उड़ाते हुए कहा कि वे नाक को ही अपना ऑक्सीजन सिलेंडर मान लें और जितनी ऑक्सीजन चाहें खींच लें। यहां तक कि मोदी की सपोर्टर और अभिनेत्री कंगना राणावत ने यूपी में नदी में बहती लाशों को नाइजीरिया का बता दिया। लेकिन विदेशी अख़बार मोदी को नहीं छोड़ रहे।
विदेशी मीडिया में मोदी की महात्वाकांक्षी परियोजना सेंट्रल विस्टा, जिसमें पीएम का आलीशान बंगला के साथ साथ नई संसद बननी है, जिसकी लागत 20,000 करोड़ रुपये है, की तीखी आलोचना हो रही है। और जिसके बनाने में सालों पुराने 4000 पेड़ों की बलि दे दी गई।
कहा जा रहा है कि जब देश संकट में है मोदी अपने लिए आलीशान बंगला बनवाने में लगे हुए हैं। ऐसे में जनता का दर्द अपना बताने वाले मोदी की बातों में साफ़ साफ़ खोखलापन दिखाई दे रहा है।
गौरतलब है कि अप्रैल मध्य से मई के पहले सप्ताह तक देश में कोरोना की दूसरी लहर के तांडव के बीच पीएम मोदी चुप रहे। जाहिर तौर पर उनकी राजनीति और संकट से निपटने की क्षमता पर सवाल खड़े हुए।
जिस दौरान संकट को भांपकर उससे निपटने की रणनीति बनाई जा सकती थी, पीएम और सरकार का ध्यान बंगाल चुनाव में 200 सीटें जीतने में लगा रहा।
बंगाल जीतने के लिए पीएम, अमित शाह और पार्टी का आक्रामक प्रचार जब चुनाव आयोग की नाफरमानी की हद तक पहुंचने लगा तो आम आदमी भी सवाल पूछने लगा कि क्या कोरोना बंगाल, असम में नहीं फैलेगा, जहां धड़ल्ले से रैलियां और रोड शो हो रहे हैं।
पीएम की लापरवाही और संवादहीनता के चलते रोजाना केसों का आंकड़ा एक लाख से दो लाख, दो से तीन और फिर चार लाख को पार कर गया। आज की तारीख में भी हर रोज लगभग साढ़े तीन लाख केस और चार हजार लोगों की मौत रिकाॅर्ड में दर्ज हो रही है।
पिछली बार कोरोना के कहर से बचे यूपी में इस बार दूसरी लहर का कहर बरपा, जिसके पीछे भी योगी सरकार की लापरवाही रही। केंद्र सरकार ने इसका भी संज्ञान नहीं लिया।
हालत यह हो गई कि मरीज इतने बढ़ने लगे कि अस्पतालों में बेड कम पड़ गए, ऑक्सीजन कम पड़ने लगी और श्मशानों में मरने वालों के अंतिम संस्कार के लिए वेटिंग कई घंटे लंबी होने लगीं।
पानी सिर से गुजरने लगा तब, पीएम ने हरिद्वार में कुंभ खत्म करने के लिए एक लचर अपील की, आईपीएल के खिलाड़ी जब कोरोना संक्रमित होने लगे तो उसे रोका गया और बंगाल की एक रैली भी तीखी आलोचनाओं के बाद टाली गई, लेकिन तब तक अंधभक्तों को छोड़कर बड़ी आबादी को समझ आने लगा था कि यह लापरवाही दरअसल एक बहुत बड़ी आपदा के सामने लोगों को झोंक देने वाली साबित होने जा रही है।
सरकार ने मान लिया था कि दूसरी लहर से निपटने के प्रयासों में गलती हो चुकी है और अब लोगों को बदहाल सड़क पर रोते, बिलखते छोड़ने के अलावा कोई और रास्ता नहीं बचा है।
डैमेज कंट्रोल के लिए विदेशों से ऑक्सीजन मंगाई गई, हर राज्य के सीएम से अलग- अलग बात की गई, यहां तक कि राज्यपालों से भी। अब तो हर जिले के डीएम से भी पीएम संवाद करने जा रहे हैं। पर इस सबका क्या मतलब है, यही अब बड़ा सवाल है।
16 जनवरी को देश में वैक्सिनेशन की शुरूआत हुई थी, अगर ईमानदार प्रायास होते तो अब तक लगभग 70-80 करोड़ लोगों को वैक्सीन मिल चुकी थी लेकिन यह आंकड़ा अभी बीस लाख तक भी नहीं पहुंचा है।
वैक्सीन की किल्लत का आलम यह है कि 45 साल से ज्यादा उम्र वालों को दूसरी डोज मिल सके, उसके लिए 18 साल से ज्यादा उम्रवालों का वैक्सिनेशन रोकना पड़ रहा है।
दुनिया को देखें तो अमेरिका के प्रेसीडेंट ने एलान कर दिया है कि जिन लोगों को टीके की दोनों डोज मिल चुकी हैं, उन्हें घर या बाहर मास्क लगाने की जरूरत नहीं है।
स्पेन में इसी सप्ताह छह महीने से जारी पाबंदियां हटाने का जश्न मनाया गया।
हमारे यहां हर राज्य में लाॅकडाउन बढ़ाने की खबरें आ रही हैं। पीएम ने अपनी छवि चमकाए रखने के लिए इस बार लाॅकडाउन की जिम्मेदारी राज्यों पर डाल दी।
वैक्सीन की डोज के लिए भी राज्यों को ग्लोबल टेंडर जारी करने पड़ेंगे और वे केंद्र की तुलना में महंगे दामों में इसे खरीदने को मजबूर होंगे।
जाहिर है, यह खेल-तमाशा लोगों को नजर आ रहा है। ताज्जुब उन्हें बस इतना है कि यह आदमी लाशों के ढेर पर खड़ा होकर भी कैसे मसीहा बनने की कोशिश में है। आत्मग्लानि या पश्चाताम जैसा कोई शब्द इसके कानों में नहीं गूंजता होगा।
शायद इसीलिए अंग्रेजी का एक बड़ा अखबार बिना किसी संकोच के यह कह रहा है कि प्रधानमंत्री जी लोगों के मरने की कोई चिंता आपके चेहरे पर नहीं दिखती, भले ही आपकी बातों से भावुकता टपक रही हो।
अगर पीएम नरेंद्र मोदी के दिल में जनता के दर्द के साथ साथ उनकी आंखों में थोड़ी शर्म बची होती तो अपना आलीशान बंगला नहीं बनवा रहे होते।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
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