इस तरह आईएलओ ने साफ कर दिया कि उसे मजदूर वर्ग की नहीं, मुनाफाखोर ढांचे को बनाए रखने की ज्यादा चिंता है
By आशीष सक्सेना
संयुक्त राष्ट्र की 100 साल पुरानी स्पेशल एजेंसी अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन ने ताजा हालात और अनुमानों के आधार पर जो रिपोर्ट जारी की है, उसमें मजदूर वर्ग से ज्यादा चिंता दुनियाभर में स्थापित मुनाफे पर टिके ढांचे की चिंता साफ झलक रही है।
आईएलओ दुनियाभर में मजदूरों के सामने आने डरावने हालात के बारे में तो बता रहा है, लेकिन हालात संभालने को मजदूरों के जख्मों पर फाहा रखने भर की गुजारिश मुनाफाखोर व्यवस्था चलाने वालों से कर रहा है।
आईएलओ की सिफारिश इतनी ही है कि मजदूरों के साथ कुछ राहत की खुराक का बंदोबस्त हो जाए, जिससे चंगे होकर वे नई क्रूर शर्तों के साथ मुनाफा पैदा करने के काम आ सकें।
ऐसा होना शुरू भी हो चुका है। काम के घंटे बढ़ाने से लेकर मनमाने तरीके से नौकरियों से निकालना और यूनियनबद्ध होने पर शिकंजा कसने में क्या इस वक्त कोई रियायत है, बिल्कुल नहीं।
100 साल के तजुर्बे का ये हाल
इस विश्वस्तरीय संस्था का सौ साल का तजुर्बा है और उसने दुनिया में मजदूर वर्ग की सत्ताओं का शौर्य भी देखा है। उन सत्ताओं को, जहां मुनाफा नहीं, बल्कि श्रमिक वर्ग, उत्पीडि़त जनता का ख्याल ही सर्वोपरि रहा है।
आईएलओ ने देखा है कि मजदूरों की सत्ताएं कुछ ही समय में दुनिया की महाशक्ति बन गईं, जब उनकी अर्थव्यवस्था दूसरे विश्वयुद्ध से एक तिहाई तक तबाह हो गई और जबकि उनका दो करोड़ लोगों का श्रम बल साम्राज्यवादियों के अनैतिक युद्ध की वजह से बलि चढऩे को मजबूर हो गया।
श्रमिक न तलाशें वैकल्पिक रास्ता
आईएलओ ये कहना नहीं चाहता कि दुनियाभर में पसरा मुनाफे पर आधारित ढांचा समाप्त करने की जरूरत है, जिससे न सिर्फ वैश्विक श्रम बल, बल्कि मानवता के भविष्य को नई ऊंचाई पर पहुंचाया जा सके।
दरअसल, कोरोना वायरस से विश्व महामारी से जिस तरह भय व्याप्त किया गया है, उसी को आगे बढ़ाने का ही काम आईएलओ भी कर रहा है। बल्कि वह दुनिया को संवारने वाली शक्ति श्रमिकों को डराने की भूमिका निभा रहा है।
हालात दूसरे विश्वयुद्ध से भी खराब
आईएलओ का कहना है कि वैश्विक कार्यबल का 81 प्रतिशत यानी हर पांच में से चार से ज्यादा लोग फिलहाल कार्यस्थल के पूरी तरह या आंशिक तौर पर बंद होने से प्रभावित हैं।
ये हालात दूसरे विश्वयुद्ध के बाद सबसे खराब हैं। वैश्विक स्तर पर 6.7 प्रतिशत काम के घंटे इस साल की दूसरी तिमाही में खत्म हो जाएंगे, जो कि लगभग 20 करोड़ स्थायी श्रमिकों के बराबर है।
वैश्विक कार्यबल लगभग 38 प्रतिशत यानी उद्योगों में कार्यरत सवा दस करोड़ श्रमिक उत्पादन ठप होने या बड़ी गिरावट की वजह से रोजगार से हाथ धो बैठे हैं, या लगभग उसी स्थिति में आने वाले हैं।
आईएलओ महानिदेशक का कहना है कि इस साल की पहली तिमाही में तीन से चार करोड़ नौकरियां खत्म हो गईं, ऐसे आंकड़े इससे पहले कभी नहीं देखे गए।
अरब राज्यों में 8.1 प्रतिशत (50 लाख स्थायी श्रमिकों के बराबर), यूरोप में 7.8 प्रतिशत (लगभग सवा करोड़) और एशिया व प्रशांत क्षेत्र में 7.2 प्रतिशत (साढ़े बारह करोड़) स्थायी श्रमिकों की नौकरी खत्म होने के आसार हैं।
आईएलओ का नीमहकीमी नुस्खा
आईएलओ समस्या के हल के तौर पर मशविरा दे रहा है कि नीतिगत मामलों को अब आजीविका और व्यवसायों की रक्षा किया जाए। श्रमिकों और उद्यमों को तत्काल राहत देने की जरूरत है।
इसके लिए अंतरराष्ट्रीय सहयोग किया जाए। ये सहायता देने की जिम्मेदारी अमीर देशों की है, जिससे संसाधनों में कमजोर विकासशील देश हालात से पार पा सकें।
आईएलओ की तरकीब का नतीजा
क्या ये वही घिसीपिटी तरकीब नहीं है, जो विश्वयुद्धों के बाद साम्राज्यवादी देशों ने गरीब और विकासशील मुल्कों को कब्जे में लेने, अपनी पूंजी को खपाकर फिर से सांसें जुटाने के पहले भी इस्तेमाल की हैं।
इसके लिए विश्वबैंक और आईएमएफ जैसी संस्थाओं का इस्तेमाल किया गया। सहायता के नाम पर तमाम देशों की संप्रभुता और संसाधनों को मु_ी में कर लिया गया।
हाल ही में भारत समेत 65 देशों को विश्वबैंक की ओर से दी गई कथित सहायता क्या बिना शर्त दिया गया दान है, बिल्कुल नहीं। निश्चय ही ऐसे कर्जों के साथ हमेशा की तरह वे शर्तें होंगी, जिनका संबंध देशों के संसाधन और तरक्की गिरवीं हो जाती हैं। ऐसा पहले भी हो चुका है।
इस बात पर संदेह क्यों नहीं किया जाना चाहिए कि अमेरिका के धमकी देते ही भारत सरकार झुक गई। कुछ दिन पहले ही विश्वबैंक ने भारत को एक अरब डॉलर का कर्ज दिया है, जिस पर अमेरिका का सिक्का चलता है और उसका बैंक का मुखिया अमेरिकी राष्ट्रपति के अहसानों तले दबा हुआ है।
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