भारत में क्रांति ही एक मात्र उपाय बचा हैः जस्टिस मार्कंडेय काटजू

भारत में क्रांति ही एक मात्र उपाय बचा हैः जस्टिस मार्कंडेय काटजू

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस मार्कंडेय काटजू का कहना है कि भारत में क्रांति अपरिहार्य हो गई है क्योंकि सरकार की सारी संस्थाएं ध्वस्त हो गई हैं और अंदर से खोखली हो चुकी हैं। उनके लेख का भावानुवाद पढ़ें-

रिकॉर्ड ऊंचाई पर पहुंच चुकी बेरोज़गारी, भारी संख्या में बच्चों के कुपोषण, खाने और ईंधन के आसमान छूते दाम, आम जनता के लिए लगभग पूरी तरह ख़त्म हो चुकी स्वास्थ्य सुविधाएं और शिक्षा व्यवस्थाएं और किसानों की लगातार बढ़ती आत्महत्याओं ने जनता के बीच हताशा को ख़तरनाक स्तर पर पहुंचा दिया है।

इन सबसे ध्यान भटकाने के लिए सरकार केवल भ्रमित करने वाले मुद्दे उछाल रही है जैसे राम मंदिर, पाकिस्तान और जनता को साम्प्रदायिक आधार पर बांटना। लेकिन उसे ये नहीं सूझ रहा है कि इन विकराल समस्याओं से कैसे निपटा जाए, जिनसे आज देश दोचार हो रहा है। इसलिए क्रांति तो आनी ही है।

महान रूसी लेखक मैक्सिम गोर्की ने मार्च 1901 में एक कविता लिखी थी- ‘तूफ़ानी पितरेल पक्षी का गीत।’ ये कविता जल्द ही रूसी क्रांति का युद्ध गीत बन गई। ठीक उसी तरह जैसे 1792 में रोगट डी लेज्ली का लिखा ‘ला मार्सेलाइज़’ फ़्रांसीसी क्रांति का युद्ध गीत बना।

इसी तरह ‘सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है,’ भारत की आज़ादी की लड़ाई का गीत बन गया था। यह लेनिन को बेहद पसंद था।

1901 में रूस पर तानाशाह ज़र निकोलस द्वितीय का शासन था। उस ज़माने में प्रेस पर बहुत कड़े प्रतिबंध हुआ करते थे और ज़ार या उसकी सरकार की आलोचना करना ख़तरनाक था। इसलिए लेखकों को संकेतों में लिखना पड़ता था। जैसे उर्दू कवि फ़ैज़ को पाकिस्तान में मार्शल लॉ के दौरान करना पड़ा था।

‘तूफ़ानी पितरेल पक्षी का गीत’ में पितरेल के बहादुर और महान संघर्षों का बखान किया गया है जो तूफ़ानों के समय में अंधेरे आकाश के नीचे लेकिन समुद्री लहरों के ऊपर उड़ान भरता है। जबकि अन्य पक्षी जैसे समुद्री बत्तख, लून और पेंग्विन डर जाते हैं। असल में यहां पितरेल की क्रांतिकारियों से तुलना की गई है। समुद्री लहरों की तुलना बेचैन जनता से, तूफ़ान की तुलना क्रांति से, बाकी पक्षियों की तुलना मध्यवर्ग और धनी वर्ग से है।

तूफ़ानी पितरेल आने वाले क्रांति का दूत है।

सन 1901 में रूस में प्रकाशित होने के बाद इस कविता का तत्काल और व्यापक असर पड़ा।

हर कोई इन संकेतों को समझ गया और कुछ ही दिनों में इसकी दसियों लाख प्रतियां हाथ और मशीन से छप कर बांटी गईं।

पूरे रूस में हर क्रांतिकारी बैठकों में ये कविता पढ़ी जाती थी, चाहे वो मज़दूरों की बैठक हो या छात्रों की। इसे संगीत की धुनों के साथ गाया जाता था।

गोर्की की सहानुभूति क्रांतिकारियों के साथ है, ये जगजाहिर था और उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया।

क्या भारत में आने वाले तूफ़ान के लिए कोई कवि ऐसा युद्ध गान रच पाएगा? या फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की कविता ‘हम देखेंगे’ इस मकसद को पूरा करेगी?

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Workers Unity Team

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