हम रेडियोएक्टिव बच्चे-2ः मज़दूरों की तबाही पर महाशक्ति बनने की जालसाजी का नाम जादूगौड़ा

हम रेडियोएक्टिव बच्चे-2ः मज़दूरों की तबाही पर महाशक्ति बनने की जालसाजी का नाम जादूगौड़ा

By जे सुशील

आज से कई साल पहले की बात है। तब मैं सातवीं कक्षा में पढ़ता था। विज्ञान की किताब में एक जगह लिखा हुआ था कि बिहार के पूर्वी सिंहभूम ज़िले में यूरेनियम की एकमात्र खदान है जादूगोड़ा में।

मैं किताबों में कभी भी पेन से लाइनें नहीं खींचता था और लाइन खींची हुई पुरानी किताबें तक पढ़ने के ख़िलाफ़ था लेकिन उस दिन मैंने किताब में कलम से उन दो पंक्तियों को लाल कर दिया था ताकि यदा कदा उन पंक्तियों को देख सकूं। उन पंक्तियों को पढ़ता तो लगता कि हमारा भी कोई वजूद है इस संसार में।

हम भी कुछ हैं। मैंने अपने पिता को स्कूल से लौटकर दिखाया था कि किताब में जादूगोड़ा का नाम भी लिखा है। उस दिन पहली बार मुझे ये समझ में आया कि स्कूल के नाम का क्या मतलब है। परमाणु ऊर्जा केंद्रीय विद्यालय।

उस समय क्लास में अणु परमाणु की पढ़ाई शुरू नहीं हुई थी लेकिन लगता था कि परमाणु कुछ बड़ी महत्वपूर्ण चीज़ होती है।

उसके बाद किताब में कभी न तो परमाणु ऊर्जा का जिक्र हुआ और न ही जादूगोड़ा का। आगे चलकर न्यूक्लियर फ्यूजन, रेडियोएक्टिविटी, मैडम क्यूरी और यूरेनियम 235, 238 आते जाते रहे।

जादुई दुनिया और हकीक़त

लेकिन साइंस की पढ़ाई में ध्यान इस पर नहीं दिया जाता था कि इसी जगह पर यूरेनियम मिलता है बल्कि फोकस इस पर रहता था कि ये याद रखा जाए कि पिरियोडिक टेबल में यूरेनियम कहां पर है।

ऐसी ही गफलतों में हम लोग बड़े हो रहे थे। शाम ढले खदान से निकल कर दोस्तों के पिता घर आते तो उनके शरीर से अजीबोगरीब बदबू फैली रहती।

ऐसा अक्सर होता था कि लोग कपड़े बदले बिना घर आ जाते। बड़े भाई को नौकरी मिली थी तो वो घर आकर ही नहाता था। पसीने, मिट्टी, रसायनों और अंडरग्राउंड की मिली जुली गंध से उबकाई आने लगती थी और मैं उस पर चिल्लाता कि तुम नहा कर क्यों नहीं आते।

वो कुछ बोलता नहीं था। एक दिन मां ने कहा तो बोल पड़ा कि कंपनी में साबुन नहीं रहता है अच्छा। जो साबुन नहाने के लिए देते हैं उससे शरीर लसलस करने लगता है। कपड़े भी नहीं धुलते हैं ठीक से।

तब वाशिंग मशीन जैसी चीजें बन तो गई थीं लेकिन हमारी जादुई दुनिया में नहीं पहुंची थी।

पिताजी के खाकी कपड़े साल भर में इतने छेदों से भर जाते कि उनकी छाती दिखने लगती थी। अंदर पहनी जाने वाली सफेद टी शर्ट में भी छेद ही छेद। मेरे पिता की छाती पर बाल नहीं थे। लेकिन भूरे भूरे कई निशान थे जो जलने पर होते थे।

मुझे बाद में पता चला कि वेल्डिंग से चिंगारियां निकलती हैं तो वो पहले कपड़े को और बाद में शरीर जलाती हैं। कपड़े साल में एक बार मिलते थे भले ही वो छह महीने में पूरी तरह फट जाएं।

हम लोग एक महान कंपनी के लिए काम करते थे जहां सबको पता था कि ये एक खतरनाक काम है लेकिन कोई कुछ कहता नहीं था क्योंकि सबको पता था कि ये काम नहीं करेंगे तो खाएंगे क्या।

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जादूगोड़ा का जादू

जब परमाणु परीक्षण हुए दोबारा तो मैंने पिताजी से पूछा कि चौहत्तर के परीक्षणों के समय क्या उन्हें पता था कि यूरेनियम से परमाणु बम बनता है तो उन्होंने हंसते हुए कहा कि उस समय तो कुछ पता ही नहीं चलता था और वैसे भी चौहत्तर में परमाणु बम नहीं बल्कि उसी के आसपास नसबंदी के डर से हमलोग भागे भागे फिर रहे थे।

जब 98 में परमाणु परीक्षण हुए तो मैं दिल्ली जा चुका था। मुझे पहली बार उस समय समझ में आया कि जादूगोड़ा में कुछ भी जादू नहीं है सब कुछ लाॉजिकल है। सबकुछ समझने लायक है।

हमारे जैसे लोग दिल्ली मुंबई कलकत्ता में अल्पसंख्यक थे। नहीं नहीं मुस्लिम, दलित या आदिवासी अल्पसंख्यक नहीं। हम लोग औद्योगिक कॉलोनियों के लोग थे जो एक दूसरे की भाषा समझते थे पर हम लोगों की संख्या कम थी हर जगह और लोग समझते थे कि हम छोटे शहरों के लोग हैं।

हम छोटे शहर के भी नहीं थे और न ही कस्बों के। हम न ही गांव से थे और न ही शहर से थे। हम कहीं के नहीं थे। हमारे बापों का खून भारत के राष्ट्र निर्माण में खप चुका था और हम लोग कोशिश कर रहे थे कि हम मजदूरों के बच्चे डॉक्टर इंजीनियर बन जाएं किसी तरह तो हमारे घरों में भी टीवी फ्रिज कार हो जाए।

हमारे पास भाषा भी नहीं थी साहित्य की और न ही हमने साहित्य पढ़ा था। हम लोग जंगल, नदी, मशीन, पसीना, अफसरों की डांट, चमचागिरी, मजदूर यूनियनों की राजनीति और उसमें फंसते मजदूरों को देख कर पले बढ़े थे। हम डरपोक थे।

हमारे पास बोलने को झूठ नहीं था। हमारे पास जाति की समझ नहीं थी क्योंकि इन कॉलोनियों में बाह्मन हो या राजपूत या फिर दलित सब गरीब, मध्यवर्ग, थोड़े अमीर, ठीक ठाक अमीर और बहुत अमीर में बंटे थे।

इसे ऐसे समझा जाता था कि ए टाइप, बी टाइप, सी टाइप और डी टाइप। ए टाइप जहां मजदूर रहते थे और पूरा जीवन नौकरी करते हुए वो बी टाइप तक पहुंचते पहुंचते या तो मर जाते थे या रिटायर हो जाते थे। मेरे पिताजी बी टाइप तक पहुंच पाए लेकिन कुछ ही सालों में रिटायर हो लिए।

बी टाइप वाला यही जद्दोजहद सी टाइप के लिए करता था। डी टाइप वाले इंजीनियर डॉक्टरों के बच्चे हुआ करते थे। समानता यह थी कि सबके स्कूल एक ही थे। हिंदी मीडियम या इंग्लिश मीडियम।

एडमिशन में भेदभाव नहीं था। हम सब लोग एक ही क्लास में पढ़ सकते थे और पढ़ने में ठीक हों तो आगे बढ़ सकते थे।

हां ये ज़रूर था कि आप कितना भी अच्छा लिख लें लेकिन अगर आपकी क्लास में किसी बड़े अफसर का बच्चा है तो आपके नंबर उससे कम ही रहते थे। लेकिन अगर क्लास में चार पांच अफसर के बच्चे हों तो मामला ओपन हो जाता था।

हमारे संघर्ष ऐसे ही थे। लोग एक दूसरे की गरीबी का मजाक नहीं उड़ाते थे और न ही इस बात के लिए जज करते थे कि किसी का बाप मजदूर है या गरीब है। जाति को लेकर जानकारी सिर्फ शादी के दौरान होती थी और उससे पहले किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता था।

एक ही ब्लॉक में सब जाति धर्म के लोग जमे रहते थे। हमारे ब्लॉक में टीवी खरीदने वाला परिवार एक ऐसे वर्ग से था जिसका छुआ मेरी दादी नहीं खाती थी और उन्होंने हमारे यहां आना इसलिए बंद कर दिया था क्योंकि हम लोग दिन रात उस परिवार के घर में न केवल पड़े रहते थे बल्कि वहीं खाते पीते भी थे।

दादी ने एकाध बार पिताजी को समझाने की कोशिश की तो पिताजी ने कहा कि बूढ़ी हो शांति से रहो। बच्चा लोग जो करता है करने दो। प्रेमलाल मेरे साथ काम करता है और ज़रूरत पड़ने पर वही काम आता है।

हमारी कालोनियों से गरीबों के बहुत कम बच्चे इंजीनियर डॉक्टर बन पाए। ज्यादातर सी टाइप और डी टाइप के बच्चे ही इंजीनियर डॉक्टर या एमबीए कर पाए। ए टाइप के कम बच्चे आगे बढ़े। आगे बढ़कर वो दिल्ली बंबई तक आए और यहां प्रवासी मजदूर होकर कंप्यूटरों में खप गए।

मैं आज भी जब जादूगोड़ा वापस जाता हूं तो अपने ए टाइप वाले घर को देखता ज़रूर हूं। उसे देखते हुए लगता है कि कोई जादू ही था कि तीन भाई और मां बाप इस घर में रह लिए कई साल तक। (समाप्त)

(जे सुशील ने बीबीसी हिंदी में लंबे समय तक काम किया है। फिलहाल वो अमेरिका में स्वतंत्र शोधार्थी हैं। फ़ेसबुक पोस्ट से साभार।)

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