32 लाख प्रवासी कामगारों के जख्मों पर फाहा रखने की जगह वोट पर लार टपकाते नेता
By आशीष आनंद
बूढ़े मां-बाप, जवान बहन, छोटे भाई, नई नवेली दुल्हन को छोड़ सैकड़ों मील जाकर जिंदगी में खुशहाली आने की तमन्ना। महीनों बाद ट्रेन में गठरी बने घर पहुंचने का सफर। इतनी मुश्किलों के बाद भी दो वक्त का निवाला और मुट्ठी भर खुशियां सरकार के एक हुक्म से छिन जाएं तो आसमान ही फट पड़े।
ऐसा हुआ भी। पूरा बिहार लॉकडाउन के जख्मों से कराह रहा है। वहीं, डेढ़ दशक से सत्ता के सिंहासन पर बैठी नीतीश सरकार और भारतीय जनता पार्टी प्रवासी जिंदगी की तकलीफों को दूर करने की जगह 32 लाख मजदूरों और उनके परिवारों के वोट पाने को लार टपका रही है। हमदर्दी तो दूर, अहसान जताने के अंदाज में बाकायदा प्रधानमंत्री मोदी के होर्डिंग लगाकर बेगैरती का नमूना पेश किया जा रहा है।
वर्कर्स यूनिटी की टीम जब बिहार के रोहतास जिले के गांवों में हालात जानने पहुंची तो अंदाजे से कहीं ज्यादा बदहाली का मंजर दिखा। गुरुग्राम से लॉकडाउन में वापस लौटे प्रवासी मजदूर अमरजीत ने कहा, ‘नेता बड़े पैमाने पर रैलियों-सभाओं की तैयारी कर रहे हैं, हवाहवाई वादे कर रहे हैं। इस पर कोई बात नहीं कर रहा कि गरीबी से बेहाल लोग कैसे जी रहे हैं।’
खेती-किसानी करने वाले 40 साल के अमित कुमार कहने लगे, ‘सरकार को गरीबों से कोई हमदर्दी नहीं है। लॉकडाउन के बाद नरेगा से कुछ आस थी, वह भी खत्म हो चुकी है।’
यहां के युवा कहते हैं, ‘बिहार में रोजगार मिलने की बातें अखबारों में पढ़ते हैं, लेकिन ये कहां हैं, हमें आज तक पता नहीं चला।’ मनरेगा से कितनी राहत मिली है? ये सवाल सुनकर मुंबई में दिहाड़ी मजदूरी कर चुके अनिल परमार ने कहा, ‘मनरेगा योजना की मौत हो चुकी है, अब तो इसके लिए रोना भी बंद कर दिए हैं। यहां गुजारा नहीं है, जाना पड़ेगा फिर।’ कहां? ‘जहां कुछ दिन जीने का सहारा मिले’, अनिल ने रुआंसे से होकर कहा।
यहां के लोग मनरेगा को लेकर उकताए नजर आए। कहते हैं, ‘मजदूरी बेहद कम है और पैसा भी समय पर नहीं मिलता। हम गरीब किसान और मजदूर हैं। हम छह महीने तक इंतजार नहीं कर सकते। हमारे परिवार भूख से मर जाएंगे।’ सब्जी उगाकर परिवार की जरूरतें पूरी करने की कोशिश कर रहे मनोज सिंह कहते हैं, ‘मई से बेरोजगार हूं, इस हाल में आठ लोगों के परिवार को कैसे पालूं, जिनमें चार बच्चे और माता-पिता भी हैं।’
बिहार को जिधर से भी देखो, कागजों में सरकारी इरादों और चुनावी वादों से हर ओर उदासी और थकान का माहौल है। देशभर में अपने श्रम से रौनक लाने वाले यहां के मजदूरों के चेहरे फक पड़े हैं। हरियाणा के गुरुग्राम से छह महीने पहले लौटे दिहाड़ी मजदूर देवेंद्र राम कहते हैं, ‘भुखमरी से जिंदा बचेंगे, तब न कोरोना वायरस मारेगा’।
कैमूर के अधौरा प्रखंड के रहने वाले देवेंद्र महादलित श्रेणी के हैं। उनके पास मनरेगा का जॉब कार्ड नहीं है। वे कहते हैं, ‘काम नहीं है, लेकिन बहुत से लोगों पर तो मेरी तरह कार्ड भी नहीं है। हम तो मनरेगा से काम के लिए भी हाथ भी नहीं जोड़ सकते, किसी गिनती में नहीं है हमारे जैसे। ’
यहां बता दें, बिहार में चुनाव के लिए प्रवासी मजदूर बड़ा मुद्दा हैं। लॉकडाउन में पैदल, साइकिल, रिक्शा, ट्रकों पर घर वापसी का जानलेवा सफर पूरी दुनिया ने देखा। इन श्रमिकों में बड़ी संख्या बिहार की ही थी। वे जो जनसेवा और जननायक एक्सप्रेस जैसी साधारण बोगी वाली ट्रेनों में भूसे की तरह अमानवीय हालात से जूझते हुए आम दिनों में आते-जाते हैं।
नीतीश सरकार और उसकी हमजोली भाजपा की कारगुजारी से इन श्रमिकों ने संकट के उस दौर को देखा, जब हर पल सदियों के मानिंद रहा। हर निवाला छप्पन भोग सा था, जो सरकार ने नहीं, समाज के संवदेशनशील लोगों ने दिया। अचानक लॉकडाउन बिना इंतजाम मोदी सरकार ने किया तो नीतीश सरकार ने अपने लोगों को घर की चौखट पर न आने देने का फरमान जारी कर दिया।
ये बात कोई भूला नहीं है, यही मुसीबत है नीतीश एंड मोदी गठबंधन की। निर्वाचन आयोग ने पिछले छह महीनों में 6.5 लाख नए मतदाताओं को मतदाता सूची बनाई है, जिनमें तीन लाख प्रवासी मजदूर होने का अनुमान है, जिन्हें लॉकडाउन दुश्वारियों में घर लौटना पड़ा।
मीडिया रिपोट्र्स के अनुसार, जून 2020 तक 32 लाख से ज्यादा प्रवासी श्रमिक बिहार लौटे थे। सरकार ने रोजगार देने के नाम पर उनके कौशल का मूल्यांकन किया, लेकिन काम नहीं दिया। गांवों में मनरेगा के अलावा था भी क्या, वही मनरेगा, जिसके बारे में लोग कह रहे हैं, ‘उसकी तो मौत हो चुकी है’।
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