एनजीओ और विदेशी पैसे का सवाल: 3 सालों में मिले विदेश से 49,000 करोड़ रुपये
By रवींद्र गोयल
आजकल फिर देश में एनजीओ (स्वयं सेवी संस्थाएं या गैर सरकारी संस्थाएं) और उनको मिलने वाली विदेशी मदद चर्चा में है। इस सवाल से जुड़े विभिन्न पहलुओं पर बात करने से पहले ये जानना उचित रहेगा की इस समय वर्तमान चर्चा की शुरुआत क्यों हुई।
दरअसल ये सवाल तब चर्चा में आया जब पिछले साल 25 दिसम्बर को भारत सरकार ने “प्रतिकूल इनपुट”(सरकारी विशेष जानकारी ) के आधार पर मदर टेरेसा कि संस्था “मिशनरीज ऑफ चैरिटी” को विदेशी पैसा लेने या उसका इस्तेमाल करने से रोकने के उद्देश्य से उसके एफसीआरए ( फॉरेन कॉन्ट्रिब्यूशन रेगुलेशन एक्ट) पंजीकरण का नवीनीकरण करने से इनकार कर दिया।
बेशक पंजीकरण 6 जनवरी को बहाल कर दिया गया था, और अब मिशनरीज ऑफ चैरिटी के एफसीआरए प्रमाणपत्र को 2026 के अंत तक वैध बना दिया गया है। इस बीच यह भी खबर आई की करीबन और 6000 संस्थाओं के एफसीआरए पंजीकरण या तो रद्द कर दिए गए हैं या उन संस्थाओं ने नवीनीकरण की अर्जी ही नहीं लगायी। फिलवक़्त करीबन 12000 संस्थाओं के नवीनीकरण कि प्रक्रिया जारी है।
जानकारी के लिए बता दें की आज देश में विदेशी सहयोग पाने वाली संस्थाओं का भारी तंत्र है। हाल ही में राज्य सभा में बताया गया की पिछले तीन सालों में भारतीय स्वयं सेवी संस्थाओं को 49000 करोड़ रूपया मिला है। राज्य गृह मंत्री नित्यानंद राय के अनुसार 2017-18 में एनजीओ को 16,940.58 करोड़ रुपये, 2018-19 में 16,525.73 करोड़ रुपये और 2019-20 में 15,853.94 रुपये करोड़ मिले। यानि प्रत्येक भारतीय नागरिक के लिए करीबन 120 रुपये सालाना की विदेशी मदद इन संस्थाओं को मिली है।
यूँ तो स्वयं सेवी संस्थाएं या गैर सरकारी संस्थाएं बरसों से सामाजिक क्षेत्र में काम करती रही हैं और इससे कोई इनकार नहीं कर सकता है यदि कई संस्थाएं काफी अच्छा काम कर रही हैं तो समाज सेवा के नाम पर धंधा करने वाली संस्थाएं भी कम नहीं हैं। इनके संसाधनों के स्रोत भी कई है। कुछ संस्थाएं अपने कार्य क्षेत्र से ये अपने समर्थकों से ही अपने संसाधन जुटती हैं।
कुछ सरकारी अनुदान पाती हैं तो कुछ बड़े औद्योगिक घरानों से सीधे या परोक्ष रूप में सीएसआर (कंपनी सोशल रेस्पांसबिलिटी) फंड्स के रूप में अनुदान पाती हैं और कुछ संस्थाओं को विदेशों से विभिन्न स्रोतों से अनुदान के रूप में पैसा आता है। इसके समझने के लिए कोई राकेट वैज्ञानिक होने की जरूरत नहीं है कि आर्थिक मदद करने वाले लोग मदद की गयी संस्थाओं के कार्य कलापों को प्रभावित करेंगी ही। और यदि वो संस्थाएं प्रभावी हों तो वो देश की नीतियों पर भी प्रभाव डालेंगी ही।
स्वाभाविक है कि देश की सरकारों का ऐसी संस्थाओं के प्रति रवैय्या इस बात पर निर्भर करता है कि वो संस्थाएं सरकारी समर्थन में हैं या उनका विरोध कर रही हैं। हिंदुस्तान या भूतपूर्व उपनिवेश के देशों में इन स्वयं सेवी संस्थाओं के कामों पर लगाम लगाने के लिए या इनको बदनाम करने के लिए या इनके काम को अपने प्रिय कामों तक सीमित करने के लिए सरकारों द्वारा विदेशी पैसे का सवाल उठाना सबसे आसान है।
हिंदुस्तान में स्वयंसेवी संस्थानों को मिलने वाले विदेशी पैसे का सवाल संसद में सबसे पहले 1969 में उठाया गया और 1976 में आपातकाल के दौरान, इंदिरा सरकार ने, इस तर्क पर कि विदेशी शक्तियां स्वतंत्र संगठनों के माध्यम से धन मुहैय्या करके भारत के मामलों में हस्तक्षेप कर रही हैं एफसीआरए (फॉरेन कॉन्ट्रिब्यूशन रेगुलेशन एक्ट) पारित किया।
कानून ने राजनीतिक दलों और ‘राजनीतिक प्रकृति के संगठनों’, सिविल सेवकों और न्यायाधीशों के साथ-साथ संवाददाताओं, स्तंभकारों और पंजीकृत समाचार पत्रों और समाचार प्रसारण संगठनों के संपादकों/मालिकों और यहां तक कि कार्टूनिस्टों को भी विदेशी योगदान प्राप्त करने से प्रतिबंधित कर दिया।
साल 2010 में, यूपीए सरकार ने इस कानून में संशोधन किये ताकि विदेशी धन के उपयोग पर “कानून को मजबूत” किया जा सके, और “राष्ट्रीय हित के लिए हानिकारक किसी भी गतिविधि” के लिए उनके उपयोग को “प्रतिबंधित” किया जा सके। वर्तमान सरकार द्वारा 2020 में कानून में फिर से संशोधन किया गया, जिससे सरकार को गैर सरकारी संगठनों द्वारा विदेशी धन की प्राप्ति और उपयोग पर सख्त नियंत्रण करने के लिए अधिकार मिले।
कोई आश्चर्य नहीं कि कांग्रेसी या अब बीजेपी की सरकारें इस कानून का इस्तेमाल अपने विरोधियों के खिलाफ इस्तेमाल करने को तत्पर रहती हैं। पिछली यूपीए सरकार ने तमिलनाडु में कुडनकुलम परमाणु ऊर्जा परियोजना का विरोध करने वाले गैर सरकारी संगठनों पर इस कानून के तेहत कार्रवाई की थी।
साल 2012 में, मनमोहन सिंह सरकार ने लगभग 4,000 गैर सरकारी संगठनों का पंजीकरण रद्द किया था। पिछले कुछ वर्षों में, नरेंद्र मोदी सरकार ने 16,700 से अधिक गैर सरकारी संगठनों का पंजीकरण रद्द कर दिया है। इनमें से 10,000 से अधिक पंजीकरण 2015 में रद्द किए गए थे।
कुछ लोगों ने आरोप लगाया है कि प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने भी आलोचकों को निशाना बनाने के लिए इस कानून का इस्तेमाल किया है। इस बार निशाने पर वो संस्थाएं हैं जो मोदी के हिंदू राष्ट्रवादी एजेंडे के रास्ते में खड़ी हैं। देश भर के ईसाइयों ने हाल के वर्षों में धर्मांतरण विरोधी कानूनों के तहत उत्पीड़न का सामना किया है, और देश के कई हिस्सों में मुसलमानों को हिंसा और उत्पीड़न का भी सामना करना पड़ा है।
शायद मित्रों को याद होगा कि मोदी भक्तों ने कुछ समय पहले CAA विरोधी आन्दोलन या हाल में किसानों के आन्दोलन के खिलाफ भी विदेशी धन द्वारा संचालित होने का आरोप लगाया था। कोई ठोस सबूत होने के आभाव में ये मुहिम आगे नहीं चल पाई। विदेशी मदद के आधार पर लगायी गयी सरकारी रोक के खिलाफ कुछ संस्थाएं कोर्ट में भी गईं लेकिन सही ही सरकारी कार्यकलाप में दखल न देने के नाम पर कोर्ट ने उनको कोई राहत देने से मना कर दिया।
अगर गंभीरता से सोचा जाये तो हम पायेंगे कि जो संस्थाएं अपनी सामाजिक प्रतिबद्धता के प्रति जिम्मेवार हैं उन्हें जनपक्षधर आंदोलनों के प्रति इस विदेशी मदद के नकरात्मक सरकारी या उसके गुर्गों द्वारा प्रचार से सचेत रहना चाहिए। ऐसे बहुत से उदहारण हैं जो ऐलानिया विदेशी पैसा नहीं लेते हैं तथा समाज में बहुत ही सार्थक काम कर रहे हैं। कुछ मित्र बताते हैं कि नर्मदा बचाओ आन्दोलन ने कोई विदेशी मदद न लेने का फैसला कर रखा है। 1950 के संविधान के बाद से देश का सबसे सशक्त कानून- 2005 का आरटीआई कानून – राजस्थान में एक किसान समूह, मजदूर किसान शक्ति संगठन (एमकेएसएस) के प्रयासों का नतीजा है।
वो भारत या विदेशों से संस्थागत वित्त पोषण स्वीकार नहीं करते हैं। इनकी बचत पर बैंक का ब्याज और व्यक्तियों द्वारा मदद एमकेएसएस के वित्त पोषण के स्रोत हैं। अपनी वेबसाइट पर वो बताते हैं ‘एमकेएसएस बाहरी (गैर भारतीय) या आंतरिक (भारतीय) संस्थागत वित्त पोषण स्वीकार नहीं करता है। आंदोलन सहित स्थानीय गतिविधियों के लिए जुटाया गया सारा पैसा स्थानीय निवासियों से आया है। सूचना का अधिकार आंदोलन जैसी गतिविधियों और आंदोलनों, जो एक बड़े कैनवास को कवर करते हैं, को पूरे देश के लोगों द्वारा समर्थन मिला है।’
इसी तरह इस देश में जनवादी अधिकारों के क्षेत्र में कार्यरत संस्था पीपल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स (पीयूडीआर) अपनी वेबसाइट पर बताती हैं कि वो पूरी तरह से साहित्य की बिक्री और ज्यादा से ज्यादा 3000 रुपये के छोटे सहयोग से मिली मदद से अपने साधनों की जरूरत पूरी करते हैं।
पीयूडीआर विदेशी धन स्वीकार नहीं करता है, या किसी भी राष्ट्रीय वित्त पोषण एजेंसी से धन स्वीकार नहीं करता है। यही और केवल यही सार्थक जनकार्य को बिना आर्थिक अवरोध या सरकारी ब्लैकमेल के बिना चलाने की कुंजी है।
लेखक वर्कर्स यूनिटी के सलाहकार संपादकीय टीम का हिस्सा हैं और दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व शिक्षक और आर्थिक मामलों के जानकार हैं। यह लेख पहले समयांतर प्रत्रिका में प्रकाशित हो चुका है और यहां साभार प्रकाशित है।
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