परमाणु बम नहीं, मजदूर वर्ग की सत्ता के ख़ौफ़ में किया था जापान ने आत्मसर्मपण
By मनमीत
दूसरे विश्वयुद्ध का अंतिम दिन। जापान लगभग हर मोर्चे पर मात खा रहा था कि अमेरिका दो परमाणु बम गिराकर उसकी शिकस्त को अंतिम मुकाम पर पहुंचा दिया।
जापान ने घुटने तो टेके ही, साथ ही अमेरिका ने परमाणु शक्ति का प्रदर्शन कर दुनिया में अपनी धाक जमा ली।
इतनी ही बात आमतौर पर कही सुनी जाती है। लेकिन हकीकत कुछ और थी। फासिस्ट मोर्चे के जापानी शासकों को दो परमाणु बमों से तबाही और लाशों के ढेर से शायद ही हिम्मत पस्त हुई।
ठीक वैसे ही, जैसे अमेरिकी साम्राज्यवादियों को कीड़े मकोड़े की तरह जापानी नागरिकों को सैकड़ों डिग्री तापमान पर भून डालने का कोई अफसोस नहीं था।
ये सुनने में अजीब लग सकता है लेकिन एक अमेरिकी लेखक सियोसी हेसेगावा ने इस थ्योरी को प्रोपेगैंडा पाया कि परमाणु बम के डर से जापान ने आत्मसमर्पण किया था।
असल में जानलेवा जंग के बावजूद दोनों ओर के शासक असल में मजदूर वर्ग की सोवियत सत्ता की धमक से घबराए हुए थे। वे असल में एक दूसरे से ज्यादा मजदूरों की सत्ता से लड़ रहे थे और आत्मसमर्पण के दस्तावेज में उन्होंने अपनी शासक वर्गीय दोस्ती निभाई।
9 अगस्त को नागासाकी शहर पर गिराया गया था परमाणु बम
जापान के हिरोशिमा में अमेरिका ने छह अगस्त को ‘लिटिल ब्वाय’ नामक परमाणु बम गिराया था, जिसमें लगभग दो लाख जापानियों की मौत हुई।
इसके तीन दिन बाद 9 अगस्त को नागासाकी शहर में ‘फैट मैन’ बम गिराकर तबाही मचाई। इसमें भी तकरीबन दो लाख लोग मरे।
दोनों बमों के गिराने के कुछ दिन बाद ही जापान ने आत्मसमर्पण कर दिया और अमेरिका ने पूरी दूनिया को बताया कि परमाणु बम के कारण जापान ने आत्मसमर्पण किया। बम नहीं गिराता तो युद्ध जारी रहता।
अमेरिका के इस बयान को पूंजीवाद समर्थक इतिहासकारों ने दस्तावेजों का रूप दिया और फिर सभी देशों के पाठ्यक्रमों में शामिल करके पढ़ाया जाने लगा।
अमेरिकी लेखक ने किताब में किया दावा
घटना के कई साल बाद अमेरिकी लेखक और इतिहासकार सियोसी हेसेगावा ने दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान के दस्तावेजों को पलटा, ऑडियो-वीडियो आर्काइव खंगाला।
हेसेगावा को जापान के आत्मसर्मपण की कुछ और वजहें मिलीं। यही नहीं, कुछ दस्तावेजों से तो ये भी जानकारी मिली कि ऐसा संभव था कि 9 अगस्त को नागासाकी शहर की जगह कहीं और बम गिरता।
अमेरिका इसकी लाइव वीडियो और फ़ोटोग्राफ़ी कराना चाहता था। बम बर्षक विमान के नीचे एक टोही और फ़ोटोग्राफ़ी करने वाला विमान जब काफी देर तक नहीं आया और बम के बोझ से वापसी का ईंधन भी खत्म हो चला तो बम नागासाकी की पोजीशन पर गिरा दिया गया।
हेसेगावा ने अब तक प्रचारित रहे अमेरिका के तर्क को पलट दिया। उन्होंने तथ्यों और तर्कों के साथ अपनी किताब ‘रेसिंग द एनिमी: स्टालिन लिन, ट्रूमैन एंड द सरेंडर ऑफ जापान’ लिखी।
किताब 2005 में प्रकाशित हुई। इस किताब के लिए 2006 में रोबट फेरल अवार्ड मिला, जिसे अमेरिका में इतिहासकारों का सबसे बड़ा सम्मान माना जाता है।
किताब में हेसेगोवा बताते हैं, जब ‘ऑपरेशन बारबरूसा’ में रूस के हाथों जर्मनी को उल्टे पांव दौड़ना पड़ा, सोवियत सेना बर्लिन तक घुस आई। दूसरी तरफ अमेरिका और जापान आस्ट्रेलिया से ऊपर न्यू गिनी द्वीप में उलझे थे।
इसके अलावा मंचूरिया में भी जापान और अमेरिका आपस में भिड़े थे। अमेेरिका चाहता था कि, रूस जापान पर ऊपरी दिशा से हमला बोले, जबकि दूसरी तरफ़ से अमेरिका खुद मोर्चा लेगा। ऐसे में जापान घिर जाएगा और वो आत्मसमर्पण जल्द ही कर देगा।
लेकिन, अभी रूस ने हिटलर को पूरी तरह परास्त नहीं किया था और उसने अमेरिका को भरोसा दिलाया कि वो 15 अगस्त 1945 को जापान पर हमला कर देगा। ये भरोसा सोवियत संघ के प्रमुख जोसेफ़ स्टालिन ने मार्च महीने में दिया था।
जर्मनी की शिकस्त के बाद ठिठका अमेरिका
हिटलर के आत्महत्या के सात दिन बाद, सात मई 1945 को जर्मनी आत्मसमर्पण करने वाला था। उधर, अमेरिका के राष्ट्रपति हैरी एस ट्रूमैन को उनके सिपहसालारों ने रूस की मदद लेने से रोक दिया।
उन्हें बताया गया कि ‘कम्युनिस्ट सोवियत संघ जर्मनी को जीत कर अपने को अजेय समझ रहा है। सोवियत संघ ने पोलैंड के साथ ही तमाम बाल्टिक देशों को नाजीवाद से आज़ाद कर लाल झंडा फहरा दिया है। अब अगर उसने जापान पर हमला किया तो वो जापान के राजतंत्र को उखाडक़र, वहां भी कम्युनिस्ट शासन स्थापित कर देगा।’
एक थी जापान और अमेरिकी शासकों की सोच
वर्गीय एकता की सोच देखिए, यही बात जापान का शासक वर्ग भी सोच रहा था। इतिहासकार सियोसी हेसेगावा इसकी तस्दीक करते हुए लिखते हैं, ‘जापान का वॉर रूम उस समय टोक्यो के एक बंकर में हुआ करता था। जिसमें तीन सदस्य पीस पार्टी के और तीन सदस्य वॉर पार्टी के होते थे।’
सिपहसालारों की बात मानकर अमेरिका ने जापान के दोनों महानगरों में बम गिरा दिया। उसके बाद भी जापान ने आत्मसमर्पण नहीं किया, वो लड़ता रहा।
क्योंकि जापान की ‘हुसीडो परंपरा’ के तहत जापान की सेना आत्मसमर्पण कर ही नहीं सकती थी। हुसीडो परंपरा के तहत वहां की सेना केवल सम्राट के प्रति शपथ लेती है कि वो कभी आत्मसमर्पण नहीं करेगी और ज़रूरत पडऩे पर आत्मघाती दस्ते में तब्दील हो जाएगी।
उधर, जापान की रूस से एक दूसरे पर हमला न करने और आपसी सहयोग की संधि थी। लिहाजा, उसने रूस के विदेश मंत्रालय से मदद मांगी। सोवियत संघ को जैसे ही पता चला कि अमेरिका ने बम गिरा दिए हैं और जापान आत्मसमर्पण कर सकता है। उसने संधि की परवाह किए बिना ही जापान पर हमला कर दिया।
चाहे सभी जापानी मर जाएं, लेकिन सत्ता न जाए
रूसी हमले की सूचना जैसे ही जापान के सम्राट को मिली तो उसने अगले ही दिन 14 अगस्त 1945 को बंकर में बैठक बुलाई। जिसमें पीस पार्टी और वॉर पार्टी के सदस्य मौजूद थे।
जापानी सम्राट ने कहा, ‘अगर कम्युनिस्ट सोवियत रूस ने कब्जा कर लिया तो उनकी सत्ता चली जाएगी और देश में कम्युनिस्ट शासन स्थापित होगा। वहीं, अगर अमेरिका कब्जा करता है तो वो आग्रह कर सकते हैं कि अमेरिका की अगुवाई में उनका शासन चलता रहे। अमेरिका मान भी जाएगा, लेकिन सोवियत रूस नहीं मानेगा।’
लगभग 4 लाख से ज्यादा जापानी नागरिकों और दस लाख सिपाहियों के मरने के बाद भी वहां के सम्राट को केवल अपने शासन की फ़िक्र थी।
वह ये भी जानता था कि जापानी सेना हुसीडो परंपरा के तहत आत्मसमर्पण नहीं करेगी। इसलिए सम्राट को खुद ही आत्मसमर्पण के लिए रेडियो पर भावनात्मक भाषण देना पड़ा।
भाषण में सम्राट ने कहा, पीस पार्टी और वॉर पार्टी ने उनको धोखे में रखा और वह जापान की जनता की खातिर अब युद्ध नहीं चाहते।
लिहाजा, उन्होंने तत्काल अमेरिका के राष्ट्रपति को पत्र लिखकर बिना शर्त आत्मसमर्पण की पेशकश की। अमेरिका ने इस पेशकश को स्वीकार किया और उनके शासन को कायम रखने का भरोसा दिया।
इसके बाद सोवियत रूस पीछे हट गया, क्योंकि वह शांति चाहता था, शांति के लिए सबसे ज़्यादा मेहनत करने वाले उसने खो दिए थे।
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