नौकरी के तनाव में पत्रकार ने एम्स से छलांग लगा खुदकुशी की, छत्तीसगढ़ में 90 पत्रकारों की नौकरी गई
By आशीष सक्सेना
दैनिक भास्कर अखबार के प्रमुख संवाददाता और स्वास्थ क्षेत्र की रिपोर्टिंग करने वाले तरुण सिसौदिया ने एम्स के ट्रॉमा सेंटर की चौथी मंजिल से कूदकर आत्महत्या कर ली। कोरोना पॉजिटिव रिपोर्ट आने के बाद से 37 साल के तरुण अस्पताल में भर्ती थे।
जिस बीट के वे रिपोर्टर थे, जाहिर है वही इस वक्त सबसे ज्यादा चर्चा में है। खबर से साथ ही कोरोना संक्रमण की जानकारियों, बचाव और सुझाव से लोगों को जागरुक करना भी इस बीट की प्रमुख जिम्मेवारी है। बेशक, इसकी खबरें डराने वाली भी हैं।
इससे भी बड़ी समस्या लोगों के सामने रोजी-रोटी छिन जाने की खड़ी हो गई है। फैक्ट्रियों में ताबड़तोड़ छंटनी करके सस्ते लोगों से ज्यादा काम लेने का सिलसिला तेजी पकड़ता जा रहा है।
मीडिया संस्थानों में छंटनी की आवाज भी नहीं
कमोबेश इसी तरह का हाल मीडिया क्षेत्र में भी है। बरसों से विज्ञापन से करोड़ों अरबों कमाने वाले मीडिया संस्थानों को अपने कर्मचारी बोझ लग रहे हैं।
कई बड़े संस्थानों ने अपने कई छापेखाने बंद कर दिया, जहां काम करने वाले मशीनमैन से लेकर अन्य कर्मचारियों को निकाल दिया गया।
चल रहे प्रकाशन के कर्मचारियों से दोगुना तीन गुना बोझ डालकर रात-रातभर काम कराया जा रहा है।
कई संस्करण बंद
कई संस्करण बंद होने या फिर दूसरी जगह से प्रकाशन कराने के चलते संवाददाताओं और संपादन करने वाले स्टाफ की भी छुट्टी हो गई।
जो लोग काम कर रहे हैं, उनसे मनमाने तरीके से काम लिया जा रहा है। वेतन कटौती से लेकर भत्तों को रोकने के बावजूद वे खामोशी से काम करने को मजबूर हैं।
दफ्तर से बाहर भले ही मीडिया कर्मचारी लोकतांत्रिक अधिकारों का अतिरिक्त इस्तेमाल कर लेते हों, लेकिन दफ्तर में दाखिल होते ही वे फैक्ट्री के मजदूर से भी बदतर लोकतंत्र के नागरिक बचते हैं।
उनकी रोजमर्रा की जिंदगी इतनी तनावग्रस्त हो चुकी है कि जीने की तमन्ना और ख्वाब खबरों की कतरनों में दब जाते हैं।
दैनिक भास्कर संवाददाता तरुण की मौत पर मीडिया आलोचक विनीत कुमार ने भी सोशल मीडिया लगभग यही बात साझा की है।
उनका कहना है, ‘कुछ रिपोर्ट के मुताबिक तरुण पिछले कई दिनों से तनावग्रस्त थे और मीडिया में लगातार जा रही नौकरियों की ख़बर को लेकर परेशान भी थे। अपनी इस परेशानी को उन्होंने अपने दोस्तों से भी साझा किया था।’
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बेरोज़गार पत्रकारों के लिए क्यों नहीं उठ रही आवाज़?
विनीत कुमार लिखते हैं, ‘कारपोरेट मीडिया अपनी चमक बरकऱार रखने के लिए मीडियाकर्मियों की आंखों की चमक कैसे लील जा रहा है, इसे मैं रोज़ देख रहा हूं। एक हवा-हवाई जीवन शैली और झूठी शान के बीच मीडियाकर्मियों की जिंदगी एकदम से जकड़ जा रही है।’
छत्तीसगढ़ के पत्रकार आलोक पुतुल ने अपने फ़ेसबुक पर लिखा है, “छत्तीसगढ़ के अख़बारों में फ़रवरी के बाद से 90 से अधिक लोगों को बाहर कर दिया गया है. कई बड़े अख़बारों ने जिलों के ब्यूरो कार्यालय बंद कर दिये हैं, पत्रकारों को नौकरी से हटा दिया गया है।”
वो कहते हैं, “दिल्ली से लेकर बस्तर तक हालात ख़राब हैं।”
कुछ दिन पहले एनडीटीवी के पत्रकार रवीश कुमार ने पत्रकारों की नौकरी जाने को लेकर एक लेख लिखा था। उसमें उन्होंने बताया था कि अमेरिकी मीडिया में भी कई पत्रकारों की नौकरी गई, ऐसे में एक मीडिया हाउस की अगुवाई में एक फंड बनाया गया और बेरोज़गार हुए हर पत्रकार को एकमुश्त आर्थिक मदद पहुंचाई गई, ऐसा भारत में क्यों नहीं है?
बीते कुछ दशकों में पत्रकारों की यूनियनें लगभग निष्कृय हो चुकी हैं और 2014 के बाद से पत्रकारों में साफ़ साफ़ दो धड़े हो गए हैं। इसके अलावा मीडिया का एक बड़ा हिस्सा क्रास ओनरशिप का शिकार हो गया है यानी अन्य उद्योग धंधों में लगे पूंजीपति अब मालिक बन बैठे हैं।
ऐसे में श्रमजीवी पत्रकारों को तोड़ने में, उनके अंदर मतभेद डालने और फूट का फ़ायदा उठाने में यहां का पूंजीपति वर्ग अभी तक सफल रहा है।
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