आओ, अरबपतियों के लिए झुग्गियों को उजाड़ दें, पक्ष लेने वालों को मिटा दें!

आओ, अरबपतियों के लिए झुग्गियों को उजाड़ दें, पक्ष लेने वालों को मिटा दें!

By शुभा

अगर कोई न्यायालय 48 हज़ार घर तोड़ने का आदेश दे जिसमे लाखों लोग रहते हों और बेघर होने वाले लोगों से अपील का अधिकार छीन ले, राजनीतिक हस्तक्षेप को प्रतिबन्धित कर दे और फैसला एक अध्यादेश की तरह जारी करे तो समझ लीजिए न्याय का घर पहले ही उजड़ चुका है।

वहां दमनकारी ताक़तों का कब्ज़ा है। यह एक मनुष्यद्रोही, नागरिक द्रोही संरचना है। इस आततायी की क्रूरता की पहचान ज़रूरी है।महामारी के समय यह फरमान कोई दुश्मन ही सुना सकता है।

बहुत अधिक लोगों को लगता है। झुग्गी-झोपड़ी तो घर नहीं है। वह तो अस्थायी बसेरा है और उनका उजड़ जाना न केवल स्वाभाविक है बल्कि उचित भी है।

इस तरह झुग्गी-झोपड़ी को वही लोग देखते हैं जिनके पास प्रापर्टी है कहीं पुश्तैनी इलाका है ज़मीन है, घर है या कहीं भी मकान, दुकान, ज़मीन या स्थाई नौकरी है या बस निजी प्रापर्टी से जुड़़ी दृष्टि है।

ऐसे लोगों को अक्सर झुग्गी-झोपड़ी एक फालतू, अवांछनीय , बद्सूरत और मिटा दिये जाने लायक चीज लगती है। साफ़ तौर पर इसे वे किसी का आवास या घर नहीं मानते।

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मेहनतकशों के जायज हक़ भी अवांछनीय

वहां रहने वालों के बीच मानवीय सम्बन्ध हैं, एक सामाजिक व्यवहार है, उनके बीच भी स्मृति मौजूद है, इच्छा और आकांक्षा है। वहां गहरा ,पेचीदा, डायनेमिक, अनुभव-संसार है। वहां तरह -तरह के कारीगर और उनके हुनर मौजूद हैं।

खाते-पीते लोगों की “हैल्प” यानि घरों मे काम करने वाली औरतें हैं। यहां भी पढ़ने वाले बच्चे हैं। गर्भवती औरतें हैं, थके-मांदे बुज़ुर्ग हैं।

यहां भी किसी की प्रतीक्षा, किसी का आदर-सत्कार और आतिथ्य होता है। त्योहार, ख़ुशी और गमी होती है। सवाल ये है कि इस सारे जीवन को व्यर्थ और मिटाने योग्य क्यों माना जाता है।

हमारे यहां, सफेदपोश लोगो की अनधिकृत कॉलोनी भी हैं, फार्महाउस, बंगले और छोटी- मोटी रियासतें हैं लेकिन उन्हें फालतू नहीं माना जाता।

“समरथ को नहीं दोष गुसांई” समर्थ लोगों का अपराध भी वांछनीय है, आकर्षक है और मेहनत करने वाले का जायज़ हक़ भी अवांछनीय है।

कितनी पिटी हुई अनाकर्षक बात है न! झुग्गी-झोपड़ी की तरह! इस बात को मिटा दो। इस बात को कहने वाली राजनीति मिटा दो। इसका पक्ष लेने वाले लेखक-कलाकार को मिटा दो। इसका पक्ष लेने वाले न्याय को मिटा दो।

किसकी सेवा में?

कितना स्वाभाविक है रेलवे किसी अरबपति को बेचने से पहले लाखों लोगो के घर उजाड़ कर ज़मीन ख़ाली करवाना।

न्यायालय और सरकार, पुलिस और प्रशासन, मीडिया, भांड और नक्काल, शरीफ़ और अपराधी, माफिया और सामाजिक नेता, पंच और सरपंच सब मिलकर मेहनत करने वालों के घर अरबपतियों के लिए उजाड़ दें। ज़मीन ख़ाली करा लें।

आओ मेहनकश को बेदख़ल करें शहर से, शिक्षण संस्था, अस्पताल, बाज़ार, न्यायालय, खेत, नदी, पहाड़, पृथ्वी से उसे बेदखल करें। उसे भुखमरा अशुभ बतायें।

उसकी हिमायत करने वाले को कामरेड कहकर, अर्बन नक्सल कहकर निशाना बनाएं उसे देशद्रोही सिद्ध करें।

न्यायालय के निर्देश की दिशा में अरबपति की सेवा करें नहीं तो देशद्रोही कहलाएं। अरबपति, खरबपति, ग्लोबल जुआरियों की सेवा में यह हिन्दू राष्ट्र समर्पित है!

(लेखिका शिक्षिका और कवियत्री हैं। उनके फ़ेसबुक पोस्ट से साभार।)

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Workers Unity Team

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