बर्बर राज़ा के ख़िलाफ़ 84 दिन आमरण अनशन करने वाले श्रीदेव सुमन कौन थे?
By मुनीष कुमार
माना जाता है कि भारत में भूख हड़ताल को प्रतिरोध का हथियार बनाने में गांधी ने रास्ता दिखाया। लेकिन अंग्रेज़ों और देशी राजाओं के ख़िलाफ़ सर्वाधिक दिन तक आमरण अनशन करने वालों में उत्तराखंड के शहीद श्रीदेव सुमन का नाम सबसे आगे है।
त्याग व संघर्ष की मिसाल श्रीदेव सुमन से बहुत कम लोग परिचित होंगे। उन्होंने संघर्ष के दम पर टिहरी रियासत की चूलें हिला दी थीं।
उन्होंने टिहरी जेल में एक बार नहीं बल्कि दो बार आमरण अनशन किया। दूसरी बार 84 दिनों तक जेल के भीतर आमरण अनशन करते हुए सुमन बाबू ने 25 जुलाई, 1944 को अपने प्राण त्याग दिये।
आजादी से पूर्व टिहरी राज्य की जनता न केवल अंग़्रेज़ी हुकूमत बल्कि टिहरी की राजशाही से भी बुरी तरह त्रस्त थी। बद्रीनाथ का अवतार माने जाने वाली टिहरी रियासत के राजाओं के राज में जनता के लिए स्कूल, पेयजल व रोजगार आदि पर ध्यान कम था लेकिन भारी संख्या में शराब की भट्टियां खुली हुयी थीं।
एकमात्र इंटर कालेज टिहरी में था जिसमें राजा के कृपापात्र बच्चे ही भर्ती हो सकते थे। टिहरी में सभा करने व भाषण देने पर भी पाबंदी थी।
टिहरी के शासक राजाओं के अत्याचारों के बारे में जनता को बहुत कम बताया गया है। टिहरी के बुर्जुग बताते हैं कि जनता को भयभीत रखने के लिए राजा द्वारा फांसी की सजा खुले में सेमल के तप्पड़ पर दिये जाने की प्रथा थी।
कहते हैं कि राजशाही के ख़िलाफ़ गीतों को रचने वाले एक कवि को भी टिहरी के राजा ने मरवा दिया और प्रचार कर दिया कि उसे परियां उठा कर ले गयीं हैं।
राजापुल पर चलने के लिए भी जनता से झूलिया कर वसूलता था। बहू-बेटी का विवाह होने पर सुप्पु स्योन्दी कर वसूला जाता था। टिहरी की जनता जहां बेहद अभाव में जीवन बसर करती थी वहीं टिहरी के राजाओं के महलों में धन दौलत का अम्बार लगा रहता था।
राजा जनता से लूटे गये सोना-चांदी आदि कीमती वस्तुओं को अपने राजमहलों की दीवारों में चिनवाकर रखता था।
टिहरी राज्य में खासतौर से वनों के समीप रहने वाले लोगों के लिए वन जीविकोपर्जन का एक मात्र साधन था। 1928-29 में टिहरी के राजा नरेन्द्र ने अंग्रेजों की शह और सुरक्षा व्यवस्था के नाम पर जंगलों की हदबंदी कर दी और जनता के पशु चराने, लकड़ी, घास लाने के सभी अधिकार समाप्त कर दिए।
इस सबसे आक्रोशित जनता ने टिहरी रियासत के ख़िलाफ़ संघर्ष का बिगुल बजा दिया। उस संघर्ष को कुचलने के लिए राजा की फौज ने 30 मई, 1930 को रवाई परगना के अंर्तगत तिलाड़ी के मैदान में वार्ता के लिए एकत्र निहत्थे आंदोलनकारियों पर गोलियों की बौछार कर दी जिसमें दर्जनों लोग शहीद हुए।
जान बचाने के लिए लोग जमुना नदी में कूदे। जमुना का पानी भी शहीदों के रक्त से लाल हो गया। टिहरी के लोग इसे टिहरी के जलियाबाला बाग कांड के नाम से जानते हैं।
1938 में कांग्रेस के गुजरात के हरिपुर अधिवेशन में निर्णय लिया गया कि देशी राज्य की प्रजा अपने प्रजा मंडलों द्वारा अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करेगी।
23 जनवरी, 1939 को देहरादून में टिहरी राज्य प्रजा मंडल की स्थापना की गयी।
श्रीदेव सुमन को इसकी कमान सौंपकर सचिव बनाया गया। प्रजा मंडल ने राजा के समक्ष पौण टोटी कर खत्म किया जाए, बरा बेगार बंद किया जाए तथा राज्य में उत्तरदायी शासन स्थापित किया जाए जैसी मांगे रखीं।
परन्तु राजा नरेन्द्र देव ने प्रजा मंडल की मांगों को मानने की जगह आंदोलन के दमन का तरीका अख्तियार किया।
1942 में देश में अंग्रजों के ख़िलाफ़ भारत छोड़ो आंदोलन शुरु हो गया। इसका असर टिहरी में भी था। जनता इस आंदोलन में बढ-चढ़ कर भागीदारी करने लगी। देश के राजे रजवाड़े अंग्रेजों के दलाल थे।
वे अंग्रेजों के दमन में हर वक्त उनके साथ थे। 29 अगस्त, 1942 को श्रीदेव सुमन जैसे ही देव प्रयाग पहुंचे उन्हें गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया। कुछ दिन मुनी की रेती व देहरादून जेल में रखने के बाद उन्हें आगरा जेल में 15 महीनों तक रखा गया। नबम्वर 1943 में श्रीदेव सुमन को रिहा किया गया।
जेल से रिहा होने के बाद श्रीदेव सुमन चुप नहीं बैठे। उन्होंने अंग्रेज़ी हुकूमत व राजशाही के खिलाफ संघर्ष जारी रखा। 30 दिसम्बर को श्रीदेव सुमन को फिर गिरफ्तार कर टिहरी जेल भेज दिया गया।
टिहरी जेल कैदियों को यातनाएं देने के लिये बेहद कुख्यात थी। श्रीदेव सुमन को लोहे की भारी जंजीरों से जकड़ कर, टिहरी जेल के बार्ड नं. 8 में बंद कर दिया। वहां उन्हें तरह-तरह की यातनाएं दी गयीं।
जिस फर्श वे सोते थे, उसे गीला कर दिया जाता। उनके खाने की रोटियों में भूसा व रेत मिला दिया जाता था और उन पर माफी मांगने के लिए दबाव बनाया गया।
प्रजामंडल का संचालक होने के नाते उन पर टिहरी शासन के ख़िलाफ़ नफ़रत और बग़ावत फैलाने का अभियोग चलाया गया। उनके खिलाफ झूठे गवाह पेश कर दफ़ा 124 ए के तहत 2 साल की कैद और 200 रु ज़ुर्माना लगाया गया।
श्रीदेवसुमन ने जेल प्रशासन से प्रजा मंडल को पंजीकृत करवाने व अपने लिए कपड़े व किताबें आदि उपलब्ध कराए जाने की मांग को लेकर जेल के भीतर अनशन प्रारम्भ कर दिया।
अनशन को 21 दिन बीत जाने पर जेल प्रशासन ने आश्वासन दिया कि शीघ्र ही उच्च अधिकारियों से वार्ता कर उनकी मांगों का समाधान किया जाऐगा। लेकिन आश्वासन झूठा निकला।
उनकी मांगों पर कार्यवाही करने की जगह जेल प्रशासन ने उनके साथ सख्त रवैया अपनाया। उन्हें काग़ज कलम की जगह बेतों की मार पड़ने लगी।
उन्होंने निर्भीकता के साथ कहा कि ‘मेरी यह तीन मांगें महाराज तक पहुंचा दो वरना 15 दिनों के बाद मुझे जेल के भीतर फिर से आमरण अनशन प्रारम्भ करना पड़ेगा।’
श्रीदेव सुमन की मांग थी कि प्रजामंडल को पंजीकृत कर उसे राज्य में जनसेवा करने की पूरी छूट दी जाए, उनके मुकदमे की सुनवाई स्वयं महाराज के द्वारा की जाए और उन्हें जेल से बाहर चिट्ठी भेजने की छूट दी जाए।
3 मई, 1944 को टिहरी जेल में श्रीदेव सुमन ने अपना ऐतिहासिक आमरण अनशन प्रारम्भ कर दिया। उनका अनशन तोड़ने के लिए उनका मुंह संडासी से से जबरन खोलने की कोशिश की जाती। उनकी नियमित पिटाई कर उनके पैरों में बेड़ियां डाल दी गयीं।
अनशन के दौरान जेल के भीतर कई बार मजिट्रेट, डॉक्टर व जेल मंत्री ने श्रीदेव सुमन से अनशन तोड़ने की अपील की। अनशन के 48वें दिन राज्य के जेल मंत्री डाक्टर बैलीराम ने जेल में आकर उनसे अनशन ख़त्म करने की अपील की तथा आश्वासन दिया कि वे महाराज से मिलकर स्वयं उनकी मांगों को मंजूर करवाने का प्रयास करेंगे।
श्रीदेव सुमन पहले भी झूठे आश्वासन में आकर अनशन तोड़ चुके थे। इस बार वे अपने निर्णय पर अटल रहे और मांगें माने जाने के बगैर अनशन समाप्त करने से इंकार कर दिया।
श्रीदेव सुमन दिल में देश प्रेम का जज्बा लिए टिहरी जेल में तिल-तिल कर अपना शरीर नष्ट कर रहे थे। परन्तु टिहरी राजशाही उनकी मांगों पर विचार करने की जगह झूठी खबर का प्रचार कर रही थी कि श्रीदेव सुमन ने अनशन तोड़ दिया है।
डॉ बेलीराम 4 जुलाई को पुनः टिहरी जेल गये और श्रीदेव सुमन को आश्वासन दिया कि ‘4 अगस्त को उन्हें महाराज के जन्म दिन पर रिहा कर दिया जाएगा, अतः वे अनशन तोड़ दें।’
इस पर श्रीदेव सुमन ने कहा कि ‘क्या महाराज ने प्रजामंडल को पंजीकृत कर उन्हें राज्य में सेवा करने की आज्ञा दे दी है, उनका अनशन रिहाई के लिए नहीं है।’
जेल के भीतर 20 जुलाई की रात से उन्हें बेहोशी आने लगी। जेल प्रशासन ने उनके शरीर में गर्मी पैदा करने के नाम पर उन्हे कुनैन के इंजैक्शन लगाने शुरु कर दिये। नस के भीतर लगे इन इंजैक्शनों ने उनके शरीर में गर्मी पैदा कर दी और वे पानी की मांग करने लगे।
25 जुलाई 1944 की शाम लगभग 4 बजे जेल की काल कोठरी में इस अमर बलिदानी ने अपनी अंतिम सांस ली।
उनकी मौत की ख़बर किसी को दिए बगैर ही श्रीदेव सुमन का पार्थिव शरीर बोरे में बंद कर राजशाही द्वारा भिलंगना नदी में इस उम्मीद के साथ फेंक दिया गया कि इस आवाज के गुम हो जाने के बाद क्रूर राजशाही व अंग्रेजी हुकूमत के ख़िलाफ़ कोई बोलने की ज़ुर्रत भी नहीं करेगा।
श्रीदेव सुमन का नाम भगत सिंह के साथी क्रांतिकारी यतींद्रनाथ (जतिन दास) के साथ अमर हो गया। जतिन दास ने भी अंग्रेज़ी हुकूमत के ख़िलाफ़ लाहौर जेल में 13 सितम्बर, 1929 को अनशन करते हुए 63 दिन बाद अपने प्राण त्यागे थे।
सुमन की शहादत के बाद टिहरी में राजशाही के ख़िलाफ़ संघर्ष और भी तेज हो गये। 1947 में भारत से अंग्रेजों के चले जाने के बाबजूद टिहरी रियासत का अस्तित्व बना हुआ था।
जनता ने राजशाही की समाप्ति व टिहरी रियासत के भारत में विलय को लेकर संघर्ष तेज कर दिये। 11 जनवरी, 1948 में राजा मानवेन्द्र शाह ने अलकनन्दा नदी के तट पर बसे कीर्तिनगर में आंदोलनकारियों पर गोलियां चलवायीं।
जिसमें नागेन्द्र सकलानी व भोलू भरदारी शहीद हो गये। उस घटना ने आग में घी का काम किया। जनता के संघर्ष के आगे राजा को शासन चलाना मुश्किल हो गया था। अंत में अगस्त 1949 में टिहरी का भारत में विलय कर दिया गया।
भारत से अंग्रेजों के जाने के बाद देशी रियासतों के ख़िलाफ़ संघर्षों को लामबन्द करने वाली कांग्रेस सरकार जनता से किया अपना वायदा भूल गयी। राजाओं, राजे-रजवाड़ों की सम्पत्ति जब्त कर उन पर जनता के दमन-शोषण व हत्या जैसे अपराधों का मुकदमा चलाने की जगह, उन्हें ‘आज़ाद’ भारत के नये शासन में भी शासक ही बनाए रखा गया।
भारत की संसद में राजे-रजवाड़े व उनके वारिसों को प्रीवि पर्स दिये जाने का कानून बनाया गया जिसके तहत राजाओं और उनके वारिसों को देश के खजाने से प्रतिवर्ष लाखों रु. की राशि दी जाती थी।
पिछड़ी सामन्ती मूल्य-मान्यताओं के ख़िलाफ़ जनता को लामबन्द कर कोई निर्णायक संघर्ष नहीं चलाया गया और न ही राजे-रजवाड़ों की सम्पत्ति जब्त कर गरीब-दलित व भूमिहीन लोगों में बांटी गयी।
जो भूमि सुधार देश में किए भी गये वे बेहद नाममात्र के ही थे। यही कारण है कि देश के मज़दूर मेहनतकश व ग़रीब लोगों के जीवन में आज़ादी के बाद भी कोई ख़ास बदलाव नहीं आया।
हत्यारे क्रूर शासक मानवेन्द्र शाह व उसके अधिकारियों पर श्रीदेव सुमन, भोलू भरदारी व नगेन्द्र सकलानी जैेसे शहीदों की हत्या का मुकदमा चलाने की जगह नेहरू सरकार ने उल्टा राजा को मान-सम्मान का ईनाम दिया।
राजा मानवेन्द्र सिंह व उसके वारिसों को नेहरू व पटेल की जोड़ी ने सालाना 3 लाख रु. प्रीवि पर्स शाही खर्च के रूप में देने की घोषणा की।
राजा मानवेन्द्र सिंह को 1957, 62 व 67 में कांग्रेस ने अपने टिकट पर सांसद चुने जाने का मौका दिया। 1972 में इंदिरा गाांधी द्वारा संसद में कानून बनाकर प्रीवी पर्स को ख़त्म कर दिया गया।
इसके बाद भी राजा मानवेन्द्र साह का मान मनौव्वल जारी रहा। 1980 से 1983 तक उसे आयरलैंड का एम्बेसडर बनाया गया।
1991 में मानवेन्द्र साह भाजपा के टिकट पर फिर सांसद चुने गये। श्रीदेव सुमन जैसे शहीदों के हत्यारे आज़ाद भारत में भी राज कर रहे हैं।
1947 से पूर्व देश के मज़दूर-किसान व आम जन अंग्रेजों व राजाओं के राज में शोषित-उत्पीड़ित थे। आज़ाद भारत में भी उनका शोषण-दमन बदस्तूर जारी है।
आज हमारा देश व समाज उन वीर क्रांतिकारियों को भूलता जा रहा है जिन्होंने देश की आजादी व समाज की बेहतरी के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी थी।
आज जरूरत है कि हम अमर शहीद श्रीदेव सुमन के त्याग, सर्मपण से समाज को परिचित कराएं और उनके बचे हुए कार्यों को आगे बढ़ाएं।
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