पेट पालने को बड़े शहरों में ‘बाहरी’ बने करोड़ों बिहारी मजदूर, सरकारों को नहीं आई शर्म

पेट पालने को बड़े शहरों में ‘बाहरी’ बने करोड़ों बिहारी मजदूर, सरकारों को नहीं आई शर्म

By आशीष आनंद

जिन मतदाताओं को ललचाकर पिछले पंद्रह साल से सत्ता में बैठी सरकार वोट हासिल करने की जुगत लगा रही हैं और केंद्र की भाजपा सरकार फुसला रही है, उनके दर-बदर होने की लंबी दास्तान है। बिहारी से ‘बाहरी’ बनने के हालात में उनको यहां की सरकारों ने धकेला। मजबूरी रही कि पेट पालने को हिकारत को अनदेखा कर बड़े शहरों की दुश्वारियों में जी लें किसी तरह। घर से मीलों दूर जाने का ये सिलसिला कभी थमा नहीं, बल्कि दिनोंदिन बढ़ता ही गया है।

migrant labourers

2011 की जनगणना के अनुसार, 5.4 करोड़ अंतर-राज्य प्रवासी थे। हालिया एक अध्ययन बताता है कि 2011 तक उत्तर प्रदेश और बिहार अंतर-राज्य प्रवासियों का सबसे बड़ा स्रोत थे जबकि महाराष्ट्र और दिल्ली सबसे बड़े रिसीवर राज्य थे। उत्तर प्रदेश के लगभग 83 लाख और बिहार के 63 लाख निवासी या तो अस्थायी या स्थायी रूप से अन्य राज्यों में चले गए थे।

भारत भर के लगभग 60 लाख लोग 2011 तक महाराष्ट्र में चले गए थे। समय के साथ कई दूसरे राज्यों में भी प्रवासी श्रमिक बतौर बिहार और पूर्वी उत्तरप्रदेश के मजदूरों का पलायन हुआ, जैसे पंजाब, हरियाणा, गुजरात, दक्षिण भारतीय राज्य आदि में।

ये सब इसलिए हो रहा था क्योंकि रोजगार चाहिए था, किसी भी तरह का। इन प्रवासियों में 50 प्रतिशत पुरुष और 5 प्रतिशत महिला अंतर-राज्य प्रवासी थे। जनगणना के अनुसार 2011 में 4.5 करोड़ प्रवासी श्रमिक थे। पलायन को लेकर सर्वे करने वाले समूह से चूक भी होने का अंदेशा है, उन्होंने प्रवासी श्रमिक आबादी को कम करके आंका। महिला प्रवास प्राथमिक तौर पर परिवार की मजबूरियों में दर्ज किया गया। हालांकि, कई महिलाएं प्रवास के बाद रोजगार में आ जाती है।

लॉकडाउन के बाद 29 अप्रैल को गृह मंत्रालय ने राज्यों को बसों का उपयोग कर प्रवासियों को लाने-भेजने की अनुमति दी। 1 मई को रेलवे ने प्रवासी श्रमिकों के लिए श्रमिक स्पेशल ट्रेनों चलाईं। सरकारी डेटा बता है कि एक मई से 3 जून के बीच रेलवे ने 58 लाख से अधिक प्रवासियों के लिए 4,197 श्रमिक ट्रेनों का संचालन हुआ।

खास बात ये है, अमूमन जहां से श्रमिक ट्रेन चलीं, वे गुजरात और महाराष्ट्र हैं और जिन राज्यों में ट्रेनों का आखिरी पड़ाव था, वे उत्तर प्रदेश और बिहार हैं। ये रुझान मोटे तौर पर 2011 की जनगणना के आंकड़ों में देखे गए प्रवासन पैटर्न को सही ठहराते हैं। इसी तरह पैदल, साइकिल या अन्य साधनों से गांव वापसी करने वालों से संबंधित खबरें और हादसों में मारे गए लोगों का पते भी इसी पैटर्न को बताते हैं।

आर्थिक सर्वेक्षण, 2016-17 के अनुसार, जनगणना के आंकड़े अस्थायी प्रवासी श्रमिक के पलायन को कम करके आंकते हैं। 2007-08 में भारत के प्रवासी श्रम का आकार सात करोड़ (कार्यबल का 29 प्रतिशत) होने का अनुमान है। आर्थिक सर्वेक्षण, 2016-17, 2001-2011 के बीच छह करोड़ अंतर-राज्य श्रम प्रवासियों का अनुमान है।

सर्वेक्षण ने यह भी अनुमान लगाया कि 2011-2016 के बीच हर साल औसतन 90 लाख लोगों ने जीविका के लिए काम की तलाश में बड़े शहरों की ओर रुख किया। ये वह आबादी बन गई, जिसने सबसे खराब हालात और कम वेतन पर काम किया और करती भी है। जिन्हें प्रवास के दौरान न सरकारी योजनाओं से राहत मिलती है और न ही उन जगहों की सियासत में उनको गिना जाता है। खाने, रहने, पेयजल, बच्चों की शिक्षा, इलाज से महरूम रहते हैं।

अंतर-राज्य प्रवासी श्रमिक अधिनियम, 1979 भी उनके किसी काम नहीं आता। प्रवासी श्रमिकों के लिए घडिय़ाली आंसू बहाते नेता और सरकारों की मौजूदा योजनाएं और इरादों पर कैसे ऐतबार किया जा सकता है, जब पहले से मौजूद कानून तक लागू नहीं करा पाईं।

आईएसएमडब्ल्यू अधिनियम अंतर-राज्य प्रवासी श्रमिकों के लिए कुछ सुरक्षा मुहैया कराता है। प्रवासियों की भर्ती करने वाले ठेकेदारों के लिए जरूरी होता है कि वह लाइसेंस ले, प्रवासी श्रमिकों को पंजीकृत करें, श्रमिक को उनकी पहचान दर्ज करने वाली पासबुक जारी ककरें। ठेकेदार को मजदूरी के अलावा सामाजिक सुरक्षा (आवास, मुफ्त चिकित्सा सुविधा, सुरक्षात्मक कपड़े सहित) के दिशानिर्देश इस कानून में साफ मौजूद हैं। से संबंधित दिशानिर्देश भी कानून में उल्लिखित हैं।

दिसंबर 2011 में, स्थायी समिति की एक रिपोर्ट में पाया गया कि अधिनियम के तहत श्रमिकों का पंजीकरण कम था और अधिनियम में उल्लिखित सुरक्षा का कार्यान्वयन खराब था। रिपोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि केंद्र सरकार ने यह सुनिश्चित करने के लिए कोई ठोस और उपयोगी प्रयास नहीं किया कि ठेकेदार और नियोक्ता अनिवार्य रूप से उनके साथ काम करने वाले श्रमिकों को पंजीकृत करें। ये सिलसिला ज्यों का त्यों अब तक बना रहा है।

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ashish saxena

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