रोज़गार देने के मामले में आसिफ़उद्दौला से भी गए गुजरे निकले नरेंद्र दामोदर दास मोदी?
By लखमीचंद प्रियदर्शी
डॉ. बीआर अम्बेडकर के शब्दों में ‘कार्य करने की वास्तविक स्वतंत्रता केवल वहीं पर होती है जहाँ पर शोषण का समूल नाश कर दिया जाता है, जहाँ एक वर्ग द्वारा दूसरे वर्ग पर अत्याचार नहीं किया जाता, जहाँ बेरोजगारी नहीं है, जहाँ गरीबी नहीं है, जहाँ किसी व्यक्ति को अपने धंधे के हाथ से निकाले जाने का भय नहीं है, अपने कार्यों के परिणामस्वरूप जहाँ व्यक्ति अपने धंधे, घर और रोजी-रोटी की हानि के भय से मुक्त है।’
अम्बेडकर के उपर्युक्त कथन के उलट वर्तमान समय में भारत की जनता सरकारों की जन विरोधी नीतियों के कारण उन सब अभावों और शोषणों को भुगत रही है जो लोगों के विकास के लिए बुनियादी तौर पर ज़रूरी होते हैं। सरकारें जनता के प्रति अपनी ज़िम्मेारियों का निभाने की बजाय जनता का शोषण करने मशगूल हैं।
नोटबंदी, जीएसटी से अस्त-व्यस्त पंगु अर्थव्यवस्था और सरकारी क्षेत्र के उपक्रमों के बड़ी संख्या में निजीकरण किए जाने के कारण भारत की जनता भयानक बेरोजगारी के दौर से गुजर रही हैं और कोढ़ में खाज कोरोना महामारी के कारण लाकडाउन ने तो बेरोजगारी की समस्या को और अधिक भयानक बना दिया है।
भारत की लगभग 138 करोड़ की आबादी में से लगभग 80 करोड़ की आबादी बेरोज़गारी के कारण रोजी-रोटी की मोहताज हो गई है। लाकडाऊन करते समय देश के प्रधानमंत्री मोदी निजी क्षेत्र के मालिकों से कहा था कि किसी भी कर्मचारी की नौकरी नहीं छिनी जायेगी और उन्हें पूरा वेतन दिए जाने का निवेदन भी किया।
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रेलवे में 50% नौकरियां कम करने की घोषणा
सरकार ने जब अपने कर्मचारियों के वेतन और भत्तों में कैंची चलाने शुरू कर दी तो फिर निजी कंपनियों के मालिकों ने भी लाकडाऊन अवधि के लिए वेतन देने से हाथ खड़े कर दिए।
साथ ही निजी क्षेत्र उपक्रमों के मालिकों ने छंटनी अभियान की झड़ी लगा दी। रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने सेना में शीर्ष स्तर के 9000 इंजीनियरों के पदों को ख़त्म करने की घोषणा कर दी।
भारत की जनता को सबसे ज्यादा सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर रोजगार देने वाले रेल मंत्री महोदय पीयूष गोयल ने 50 प्रतिशत (वर्तमान में रेलवे में लगभग 13 लाख कर्मचारी हैं) कर्मचारियों को कम करने की घोषणा कर दी है, जबकि रेलवे के काफी विभाग पहले से ही निजीकरण और आउटसोर्सिंग के भरोसे चल रहे हैं।
सरकारी तंत्र के अन्य विभागों में भी छंटनी अभियान की झड़ी लगने लगी है। फिर निजी क्षेत्र के उद्यमों का तो और भी बुरा हाल है। नये रोज़गार तो मिलने से रहे, जिनके पास रोज़गार थे उनकी भी रहने की गारंटी नहीं रही।
भारत में केन्द्र और राज्य सरकारों के सरकारी कर्मचारियों की संख्या 2016 के आंकड़ों के अनुसार, 2.15 करोड़ थी जिसमें सैन्य बलों की संख्या शामिल नही है। यानी लगभग 2 प्रतिशत की आबादी भी सरकारी नौकरी में शामिल नहीं है।
सरकारी तंत्र की नौकरियों को सरकारें जानबूझकर समाप्त कर रहीं हैं जिससे अपने परम मित्र उद्योगपतियों को अधिक से अधिक लाभ वाले क्षेत्रों को सौंपा जा सके। क्या भयानक बेरोज़गारी के दौर के लिए केवल कोरोना महामारी के सिर सारा दोष मंढ़ना ठीक है?
कोरोना महामारी से तो दुनिया के लगभग 180 से ज्यादा देश प्रभावित हुए हैं, लेकिन ऐसा आलम किसी देश में नहीं हुआ जैसी दुर्गति मेहनतकश लोगों की भारत में हुई। हजारों किमी की दूरी तय करने को भूखे प्यासे लोगों को अनेकों कष्टों को सहन करते के लिए मज़बूर होना पड़ा था। सरकारें मूकदर्शक बनीं रही, बल्कि बढ़चढ़ कर उनकी यात्रा को और कष्टप्रद बनाया।
मज़दूरों के भारी दबाव में जब रेलों से मेहनतकश मज़दूरों को भेजा गया तो रेलवे की यात्राओं का भी अनुभव सुखद नहीं रहा। कुछ ट्रेनों का आलम किशोर दा के गाने की याद करा गए- ‘जाना था जापान, पहुंच गए चीन -जाना था गोरखपुर पहुंच गए पुरी।’
काफ़ी रेलों का संचालन गड़बड़ रहा। कुछ ट्रेनों ने 18 घंटों की यात्रा को 72 घंटों में तय किया जबकि ट्रैकों पर केवल गुड्स ट्रेनों का ही संचालन हो रहा था। और रेलवे की ये ट्रैज़िडी तब कॉमेडी में बदल गई जब भारतीय रेलवे के चेयरमैन ने कहा कि ‘रेलवे ट्रैकों पर भारी आवागमन की वजह से रूट डायवर्ड किए गए।’
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आसिफ़उद्दौला से भी गई गुज़री मोदी सरकार
क़रीब 600 से ज्यादा मेहनतकश लोगों को इस दौरान ट्रेनों, पटरियों या रेलवे स्टेशनों पर जान गंवानी पड़ी। करोड़ों देश के मेहनतकश लोगों को अपने देश में दुश्मन देश के नागरिकों जैसी दुर्गति को सहन करने को मज़बूर होना पड़ा।
आपदा के समय सरकारों को जनता का सर्वाधिक मददगार होना चाहिए। सन 1784 में अवध सूबे में भीषण अकाल पड़ा था और वहां की जनता अकाल की आपदा से भीषण रूप से पीड़ित थी। अवध सूबे के उस वक्त नवाब आसिफ़उद्दौला थे ।
उन्होंने अपनी सारी रियाया (प्रजा) के लिए खानपान के मुफ्त इंतेजामात किए और कई महीनों तक खानपान की मुफ्त व्यवस्था का प्रबंध किया जाता रहा। लेकिन जनता मुफ्तखोर नहीं थी। स्वाभिमान के साथ कमा कर खाने की इच्छा नवाब साहब के सामने रखी गई।
नवाब आसिफ़उद्दौला ने काम देने के लिए इमारत बनाने की योजना बनायी, जो लखनऊ के इमामबाड़ा के रूप में साकार हुई और वर्तमान में भी मेहनतकशों के स्वाभिमान की कहानी को गौरवान्वित करती है।
ज़्यादा से ज़्यादा जनता को काम मिले इसके लिए दिन में दीवारों को चिनवाया जाता था और रात को नवाब के सैनिकों द्वारा उन दीवारों को गिरा दिया जाता था जिससे अगले दिन जनता को काम मिलता रहे।
काम करने वाले लोगों को पौष्टिक भोजन उपलब्ध कराने हेतु निहारी और बिरयानी की शुरुआत को भी इसी समय की देन माना जाता है। नवाब की प्रजावत्सलता को उस समय के प्रसिद्ध उक्ति से भी समझा जा सकता है कि ‘जिसको न दे मौला, उसको दे आसिफ़उद्दौला।’
उक्त इतिहास के सच्चे घटनाक्रम हमें सिखाता है कि आपदाओं के समय राज्य का जनता की मददगार साबित हो होना चाहिए न कि उनकी रोजी-रोटी के साधनों को छीन लेना चाहिए।
जैसा कि वर्तमान में भारत में केन्द्र और राज्य सरकारों के द्वारा कारपोरेट घरानों के साथ मिलकर भारत की जनता के हाथों से रोजी-रोटी कमाने के काम-धंधो को छिना जा रहा है। जनता को स्वाभिमान के साथ काम चाहिए।
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अमेरिका ने बेरोज़गारी भत्ता दिया और भारत ने?
कोरोना महामारी के दौरान अमेरिका ने सबसे पहले जनता पर कोरोना महामारी की विभिषिका को देखते हुए बेरोज़गार और नौकरी खोने वालों के लिए प्रति व्यक्ति 1200 डॉलर और प्रति बच्चा 500 डॉलर प्रति महीने के हिसाब से आर्थिक मदद की व्यवस्था की जिससे वे अपनी बुनियादी ज़रूरतों को पूरा कर सकें।
सस्ते पेट्रोल के दामों का फायदा भी वहां की जनता को उपलब्ध कराया गया जिससे काम-धंधो की खर्च और ख़रीदी की मांग बाज़ार में निरंतर बनी रहे।
जर्मनी की सरकार ने निजी क्षेत्र उपक्रमों के मालिकों को आदेश दिया कि किसी भी कर्मचारी को नौकरी से न निकाला जाय, कर्मचारियों के वेतन का 80 प्रतिशत हिस्से का भुगतान सरकार खुद करेगी।
मुसीबत के समय अमेरिका और जर्मनी की सरकारों ने जनता के साथ मददगार रूप में खड़े होकर साबित किया कि मदद की नीयत हो तो सब कुछ संभव है।
दुनिया के ज़्यादातर देशों में कोरोना महामारी के कारण रोज़गार छिनैती की उतनी घटनाएं नहीं हो रहीं हैं जितनी की भारत में। निजी क्षेत्र तो इस खेल का अगुवा है ही साथ ही अपनी सरकारें भी उनके साथ गलबहियाँ कर रहीं हैं।
भारत की वित्त मंत्री महोदया निर्मला सीतारमण ने 80 करोड़ लोगों को राशन (जिसमें 5 किलो गेहूं या चावल और एक किलो दाल प्रति व्यक्ति को) दिये जाने का वादा किया, वहीं खाद्य और रसद मंत्री रामविलास पासवान ने लगभग 1.5 करोड़ लोगों को राशन मिलने की बात कही और कहते हैं कि ज्यादातर राज्यों ने अपने राशन का पूरा कोटा उठाया ही नहीं है, तो फिर देश की 80 करोड़ लोगों तक राशन पहुंचने की बात क्या बेमानी नहीं है?
कुछ बेसहारा महिलाओं के खाते में 500 रूपये की धनराशि देकर सरकार ने महिलाओं के ऊपर बहुत बड़े एहसान का जश्न मना रही है। क्या 500 रूपये की राशि वर्तमान समय में ऊट के मुँह में जीरा के समान नहीं है?
क्या यह वाज़िब है महिलाओं के लिए राहत के रूप में या उनके ज़ख्मों पर नमक छिड़कने के समान नहीं है? ऐसा नहीं है कि भारत सरकार और राज्य सरकारों ने जनता के घोषणा करने में कोताही बरती है किन्तु ये घोषणाए हकीक़त से कोसों दूर है और जनता को राहत पहुंचाने में कामयाब नहीं हो रहीं हैं।
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जितना पूंजीपतियों को मदद हुई, उसकी आधी जनता को मिलनी चाहिए
क्योंकि ज्यादातर राहत योजनाएं कर्ज़ उपलब्ध कराने की योजनाएं हैं जो आम जनता की पहुंच से दूर ही रहतीं हैं फिर मेहनतकश जनता ऋण जाल से भी दूर ही रहना चाहती है। क्योंकि नियम क़ायदे के कोड़ों का इस्तेमाल निरीह जनता पर सबसे ज़्यादा किया जाता है सरकारी विभागों द्वारा भी।
अब विचारणीय प्रश्न यह है कि वर्तमान आपदा काल में भारत की केन्द्र सरकार और राज्य सरकारें किस प्रकार की नीतियों से भारत की जनता को अधिक से अधिक सुविधा प्रदान करें और सरकारों पर वित्तीय बोझ ज्यादा न पड़े।
सर्वप्रथम तो अमेरिका और जर्मनी की सरकारों के निर्णय हमें सबक देते हैं कि आपदा काल में लोगों की नौकरियों को समाप्त होने से रोका जाए और नौकरी खोने वालों और बेरोज़गार लोगों तक नकद वित्तीय मदद और राशन की मदद जरूरतमंद लोगों तक पहुंचाने की कोशिश की जाए जिससे बेबस जनता की बुनियादी ज़रूरतों की पूर्ति होती रहे।
सरकारी क्षेत्र के उपक्रमों की नौकरियों को खऱ़त्म करने की बजाय उन पदों के सापेक्ष भर्ती की जाएं, क्योंकि पिछले छः वर्षों में लोगों को सरकारी विभागों में भर्ती अभियान कम छंटनी अभियान ज्यादा चला है और जो पदों की भर्ती की प्रक्रिया शुरू हुई वे भी ज्यादातर कोर्ट-कचहरी में अटकी पड़ी हैं।
जिससे नये युवाओं को तो बेरोज़गारी की समस्या का सबसे अधिक सामना करना पड़ा है। मनरेगा योजना ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोज़गार ग्रामीण लोगों को 100 दिनों का रोज़गार देने में बड़ी कारगर रही है, इसको 200 दिनों के रोज़गार की गारंटी के रूप में बढ़ाया जा सकता है।
ग्रामीण क्षेत्रों में विकास कार्यों मशीनों की बजाय लोगों से कराया जाए जिससे ज़्यादा से ज़्यादा मेहनतकश लोगों को काम दिलाया जा सके। खेती बाड़ी में और पशुपालन उद्यमों में लगे लोगों को सरकारी सहायता देकर इन क्षेत्रों में रोज़गार के अवसरों को बढाया जा सकता है।
जितनी सरकारी मदद सरकारें निजी क्षेत्र उपक्रमों के मालिकों को उद्यमों को लगाने में सस्ती जमीन और कर्ज़ की उपलब्धता सुनिश्चित करके करती हैं, उसकी आधे से भी कम में ग्रामीण क्षेत्रों में सरकारी मदद देकर लोगों को आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ाया जा सकता है।
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जनता देश मज़बूत करती है, उद्योगपति काला धन
सामान्य जन के हाथों तक पहुंचने वाली ससम्मान मदद भारत की अर्थव्यवस्था को गति प्रदान करेगी, क्योंकि सामान्य जनता उस धन का उपयोग बाजारों में खरीदी कर करेगी, न कि विदेशी बैंकों में जमा करेगी काले धन के रूप में बड़े बड़े उद्योगपतियों की तरह।
साथ ही सरकारों को श्रम कानूनों को श्रमिकों के हितों के संरक्षण का भी ध्यान रखना होगा, केवल उन्हें उद्योगपतियों के बंधुआ मजदूर बनने के लिए नहीं छोड़ा जाना चाहिए, जैसा कि कोरोना महामारी के दौर में लाकडाउन के समय न केवल राज्य सरकारों ने, वरन केन्द्र सरकार ने भी श्रम कानूनों की धज्जियां उड़ाईं।
यहां तक की माननीय उच्चतम न्यायालय में भी सरकारें श्रमिकों के विरोध में नज़र आयी। सरकारों को अपना नज़रिया बदलना होगा और उन्हें याद रखना चाहिए कि वे जनता के द्वारा चुनी गई हैं न कि कारपोरेट घरानों के वोट से।
सरकारों को जनसंख्या वृद्धि का रोना छोड़कर बेहतर जनसंख्या की शिक्षा, चिकित्सा और रोज़गार की व्यवस्था करने वाली नीतियों के द्वारा हर भारतीय की बेहतरी के लिए कार्य करना चाहिए।
हमारी जनसंख्या हमारी बाजार की मांग-पूर्ति के लिए बहुत उपयोगी है तभी तो दुनिया भर के व्यापारियों की नज़र भारतीय बाजारों में अपना माल उपलब्ध कराने की होड़ पर रहती है ।
केरल राज्य ने बेहतर शिक्षा, चिकित्सा और रोजगार उपलब्ध कराकर जनसंख्या वृद्धि को रोकने में भारत में आदर्श स्थति 1.8 के बर्थ रेट को प्राप्त करने में सफलता प्राप्त की है बिना जोर जबरदस्ती के।
अतः देश की केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों को केरल से सबक लेना चाहिए। तभी कहा जा सकता है कि भारत में जनता की चुनी हुई सरकारें जनता-जनार्दन के कल्याणकारी है जब वे जन हितैषी नीतियों से भारत की जनता की मददगार साबित हो।
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