क्या मोदी सरकार को नहीं रहा किसान आंदोलन का डर?

क्या मोदी सरकार को नहीं रहा किसान आंदोलन का डर?

By अजीत सिंह

भाजपा की चार राज्यों में हुई चुनावी जीत से इस बात का अनुमान लगाया जा सकता है कि एकाधिकारी पूंजी भाजपा को सत्ता में बना रहने देना चाहती हैं। चार राज्यों में जीत से भाजपा के हौसले बुलंद हैं।

उदारीकरण निजीकरण की नीतियों को तेजी से लागू करने की मुहिम को फिर से आगे बढ़ाने की योजना को भाजपा ने अंजाम देना शुरू कर दिया है, जिसे किसान आंदोलन ने कुछ समय के लिए राजनीतिक व रणनीतिक तौर पर रोक दिया था।

भाजपा के हिंदू फासीवादी एजेंडे को भी किसान आंदोलन ने थाम लिया था। स्वयं किसान विरोधी तीन कृषि कानून भी इन्हीं उदारीकरण – निजीकरण की नीतियों का परिणाम थे जोकि सीधे कारपोरेट के हितों को आगे बढ़ा रहे थे।

लेकिन कृषि कानूनों का मसला अभी खत्म नहीं हुआ है। क्योंकि यह पूंजीवाद की गति है कि वह खेती को भी कारपोरेट पूंजी के हवाले करें।

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कारपोरेट हितों की वाहक बीजेपी

कृषि क़ानूनों के साथ बीजेपी ने मजदूरों के 44 केंद्रीय कानूनी अधिकारों को भी चार लेबर कोड में समेट दिया है और मजदूरों को घोर दरिद्रता में धकेलने की तैयारी है।

यह इस बात से समझा जा सकता है कि मजदूरों को पुराने श्रम कानूनों को हासिल करने के लिए भी लंबा संघर्ष करना पड़ता है।

ऐसे दर्जनों उदाहरण भरे पड़े हैं जिनमें मजदूरों को अपने कानूनी अधिकार हासिल करने के लिए शासन सत्ता के दमन का सामना करना पड़ता है।

कारपोरेट हितों को तेजी से आगे बढ़ाने के लिए मोदी सरकार अपनी पुरानी लय में फिर लौट रही है।

किसान आंदोलन को खत्म करना या फिर तीन कृषि कानूनों को वापस लेना भाजपा का एक राजनीतिक फैसला था। लेकिन किसान आंदोलन के जुझारूपन के कारण भी भाजपा को पीछे हटना पड़ा।

इस आंदोलन के समाप्त होने के बाद भाजपा सरकार फिर से कारपोरेट हितों को आगे बढ़ाने में मशगूल हो गई है।

यह किसान आंदोलन की ही वैचारिक जीत भी थी जिसके चलते पूरे देश की मेहनतकश तथा आम जनता के अंदर भाजपा की मजदूर – किसान, छात्र, महिला विरोधी तथा सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की घृणित राजनीति का भंडाफोड़ किया।

क़रीब एक साल से ऊपर चले किसान आंदोलन ने गांव देहातों व आम जनमानस को भाजपा की मजदूर, मेहनतकश विरोधी नीतियों का प्रचार प्रसार कर इस बात को समझाने का प्रयास किया कि भाजपा सरकार पूंजीपति वर्ग की सेवा में लीन है।

लेकिन किसान आंदोलन में ठहराव के बाद भाजपा सरकार अपने 2019 से पहले की रफ्तार में लौटने लग गई है।

modi in Ayodhya

साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण को बनाया मुख्य एजेंडा

मोदी सरकार सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के एजेंडे के साथ कारपोरेट के हितों को तेजी से आगे बढ़ाया जा रहा है।

देश में बढ़ती महंगाई – बेरोजगारी एक भयंकर सामाजिक त्रासदी की ओर लेकर जा रही है। उदारीकरण की पूंजीपरस्त नीतियों के परिणाम स्वरूप मजदूर – मेहनकश जनता भुखमरी की कगार पर पहुंच रही है।

खाद्य पदार्थों की बढ़ती कीमतों से मजदूर मेहनतकश ही नही वरन देश का मध्यम वर्ग भी परेशान है। देश में बढ़ती बेराजगारी- महंगाई मोदी सरकार के लिए कोई मुद्दा नहीं है।

बल्कि नफरत फैलाने वाली फिल्म ‘द कश्मीर फ़ाइल्स’ को संसद में देश का प्रधानमंत्री प्रमोट कर रहा है। नवरात्रों में लोगों की आस्थाओं को मुस्लिमों के विरोध में खड़ा कर सम्प्रदायिक वैमनस्य पैदा किया जा रहा है।

यही नहीं, कथित लोकतंत्र की बात करने वाले पत्रकारों को भी सवाल पूछने व सही खबरों को छापने पर डर – भय सता रहा है तथा उन्हें जेल में भेजा जा रहा है।

देश की सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायधीश को भी देश की संस्थाओं (सी.बी.आई., प्रवर्तन निदेशालय, चुनाव आयोग इत्यादि) की विश्वसनीयता पर बोलना पड़ा।

मोदी सरकार ने इन संस्थाओं को भी अब सरकार की पिछलग्गू संस्थाओं में तब्दील कर दिया है। यह सब आहट है फासीवाद के बढ़ते खतरों की।

एक फिल्म के मार्फत बांटने की राजनीति

‘द कश्मीर फाइल्स’ जैसी फिल्म के माध्यम से आम जनमानस व मेहनतकश जनता का ध्यान असल मुद्दों से हटाकर अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ खड़ा कर कार्पोरेट पूंजी के हितों को तेजी से आगे बढ़ाया जाए।

इस फिल्म के माध्यम से आम जनमानस में मुस्लिमों के प्रति वही नफरत पैदा की जा रही है जो द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान हिटलर ने जर्मनी के अंदर यहूदियों के प्रति पैदा की थी।

फिल्म का एजेंडा साफ है: किसान आंदोलन की वैचारिक जमीन को कमजोर किया जाए।

किसान आंदोलन ने दिखाया था कि भाजपा की नीतियां कारपोरेट के हितों को आगे बढ़ाने के लिए लगातार एक नकली एजेंडा प्रस्तुत कर रही हैं।

सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को इस रूप में भी समझा जा सकता है कि वर्ष 2014 से लेकर 2019 तक दर्जनों मॉब लिंचिंग की घटनाओं को अंजाम दिया गया।

असल में फिल्म के माध्यम से जनता के विचारों को बदलने की योजना है। बढ़ते फासीवाद के खतरे को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।

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नंगे फासीवाद से कैसे निपटे मजदूर

कर्नाटक में हिजाब विवाद, कश्मीर फाइल्स और नवरात्रों के समय मुस्लिम बहुल इलाकों में मीट की दुकानों को जबरदस्ती व कानूनी सहायता लेकर बंद करवाना, एक तरीके से जनता को सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की ओर ले जाकर एक बड़े नरसंहार यानी फासीवाद कायम कर पूंजीपति वर्ग के संकट को हल करना है।

हिंदू फासीवादियों द्वारा खुलेआम सड़कों पर जय श्रीराम के नारों व हथियारों के साथ प्रदर्शन आम हो चुका है।

यह प्रदर्शन सीधे तौर पर मुस्लिमों अल्पसंख्यक समुदायों को निशाने पर लेकर किया जा रहा है।

देश का प्रधानमंत्री और भाजपा सरकार अब फासीवादी रथ को आगे बढ़ाने में अपनी पूरी ताकत लगा रहे हैं।

अब मजदूरों के श्रम कानूनों को बदल कर लाए गए 4 लेबर कोड्स को लागू किया जाएगा, जोकि पूंजीपति वर्ग का एजेंडा है। मजदूर वर्ग को अब बढ़ते फासीवाद के खिलाफ एकजुट होकर लंबी लड़ाई का आह्वान करना होगा।

(लेखक ट्रेड यूनियन एक्टिविस्ट हैं। लेख में दिए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं।)

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