इस नाजुक मौके पर राष्ट्र प्रधानमंत्री से क्या सुनने की उम्मीद कर रहा था?

इस नाजुक मौके पर राष्ट्र प्रधानमंत्री से क्या सुनने की उम्मीद कर रहा था?

By आशीष सक्सेना

कोरोना वायरस से दुनिया में हाहाकार के बीच प्रधानमंत्री के राष्ट्र को संबोधन का इंतजार सभी को रहा। कुछ का खौफ में, कि शायद सबको घर में बंद रहने की सलाह मिलेगी या फिर करामाती नुस्खे पर बात होगी।

हालांकि ऐसा हुआ कुछ नहीं। प्रधानमंत्री का संबोधन सोशल मीडिया की तमाम पोस्ट और हकीकत को भी नहीं छू सका।

प्रधानमंत्री के संबोधन को लेकर जहां कोई आश्वस्त नहीं हुआ, बल्कि डर ही गया। भले ही प्रधानमंत्री ने नेक सलाह देने की भरसक कोशिश की हो।

इस सच को उन्होंने स्वीकारा भी कि भारत विकास के लिए प्रयत्नशील देश है और यहां महामारी बहुत बड़ा संकट खड़ा कर सकती है।

लेकिन वे आम लोगों को खाने का आवश्यक राशन, सामान्य इलाज, बिजली का बिल, कर्ज की अदायगी और काम की तलाश को संबोधित नहीं कर पाए। जो किया, वह सिर्फ फटे लिबास पर पैबंद लगाने की अपील भर था।

बेशक, जनता को ऐसे में खुद ही कर्फ्यू लगा लेने में ही भलाई है और वह लगा भी सकती है।

लेकिन प्रधानमंत्री ऐसा क्यों नहीं कह पाए कि 130 करोड़ नागरिकों को घर में ही बंद रहना है अब से, उनको भूखे नहीं मरने दिया जाएगा और न ही किसी तरह के टैक्स और कर्ज की अदायगी के लिए परेशान होना है।

इस दौरान बिजली, पानी, इलाज की की सुविधा फ्री होगी और कर्ज़ माफ़ होगा। राशन घर तक पहुंचाने की व्यवस्था होगी और जो पहुंचाएंगे उनको बचाव के इंतजाम के साथ भेजा जाएगा।

इन बात पर जब कुछ लोगों से बात की गई तो उन्होंने कहा कि अगर ऐसा हो जाए तो लोग क्यों परेशान होंगे, बल्कि मोदी के चरण धोकर पी लेंगे। कुछ भाजपा विरोधी लोगों ने तो यहां तक कहा कि ऐसा करने पर मोदी को जीवनपर्यंत वोट दे देंगे।

सवाल ये आया कि क्या ऐसा सरकार कर सकती है, कैसे करेगी। इस पर जवाब भी मिले, जिनको कुछ देश इस वक्त टुकड़ों में आजमा भी रहे हैं।

वह जवाब है, निजी कल-कारखानों, उत्पादक सभी इकाइयों, सेवाओं का राष्ट्रीयकरण, खेती का सामूहिकीकरण। महामारी से निपटने के बाद ऐसा होने पर देश कई गुना रफ्तार से तरक्की के पिछले सभी रिकॉर्ड कुछ ही समय में तोड़ देगा।

तब सरकार को जनता पर भरोसा करना होगा और अडाणी, अंबानी, टाटा जैसे घरानों से दुश्मनी लेना होगी, उनकी संपत्ति जब्त करने से लेकर विदेशी कर्ज वापस न करने के कठोर निर्णय लेने होंगे।

लेकिन ऐसा वह सरकार नहीं कर सकती जो राष्ट्रीय संपत्ति को औने-पौने दामों में बेचने पर आमादा हो और महामारी के पर्दे का फायदा उठा रही हो।

जिसको कारपोरेट लोन को बट्टे खाते में डालने की जल्दी हो और आम लोगों की तकलीफ  का तमाशा बनाने में यकीन हो। जिसके लिए पोंगापंथ और जादू-टोने  से भरे पाखंड का विस्तार करने में दिलचस्पी हो।

प्रधानमंत्री पहले और दूसरे विश्वयुद्ध से भी भयावह तस्वीर पेश कर रहे थे। उसी समय का वाकया है, जब सोवियत संघ में मजदूरों की सरकार के नेता ने दुश्मन फौज से कुछ किलोमीटर की ही दूरी पर आकर जनता को संबोधित करके युद्ध जीत लिया था।

युद्ध में पूरी तरह तबाह हो चुके देश को कुछ ही बरसों में चौगुनी रफ्तार से विकास के पथ पर चलाकर दिखा दिया था। ये इसलिए हो सका कि सरकार मजदूरों की थी, वे सरकार और कारखाने दोनों चला रहे थे।

वे ये बर्दाश्त नहीं कर सकते थे कि उनके देश में कोई भूखा सो भी जाए, मरना तो दूर की बात है। जबकि हमारे देश में सात हजार लोग रोज भूखे मर रहे हैं, वे राशन की जमाखोरी के बारे में सोच भी नहीं सकते।

वे गटर में मर रहे हैं और खुद को इस बात के लिए भी कोसकर दूर नहीं हो सकते कि उनका जन्म आखिर उस घर में क्यों हुआ, जिसको इंसान होने का भी दर्जा हासिल नहीं है।

असल में कोरोना वायरस भी दो विश्वयुद्धों की तरह यही सिखा रहा है कि दुनिया को कि इंसानों की नस्ल कोई मुनाफ़ाखोर व्यवस्था नहीं बचा सकती। यहां बचाव के बंदोबस्त भी जाति और वर्ग के आधार पर हो सकते हैं।

यहीं से सोचने की जरूरत है कि देश ही नहीं दुनिया को बचाने के लिए सवाल खुद महफूज रहो और संकल्प घरों में कैद रखने भर का नहीं, व्यवस्था बदलने का है।

संयम, जनता कर्फ्यू लगाने भर का न हो, बल्कि व्यवस्था बदलने तक जुटे रहने का हो।

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