नवउदारवादी अर्थनीति का परिणाम है आज का श्रीलंका, भारत के लिए खतरे की घंटी
By तुहिन देब
पूरे देश में हाहाकार मचा हुआ है। दिन के आधे समय बिजली नहीं रहती। रोजमर्रा की जरूरी वस्तुओं को खरीदने के लिए घंटों लाइन में लगना पड रहा है। पेट्रोल पंप में तेल नहीं है,रसोई गैस गायब है। मुद्रास्फीति आसमान छू रही है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में भीषण कर्ज हो गया है,जिसे चुकाने की कोई सूरत नहीं दिखती।
जो देश एक समय दक्षिण पूर्व एशिया में मानव विकास सूचकांक में सम्मानजनक स्थान पर था (भारत से भी आगे), अब वह देश श्रीलंका अपने इतिहास में सबसे बुरे दौर से गुज़र रहा है।
ऐसा क्या हो गया इस देश को कि 1948 में आजादी मिलने के बाद यह देश बदहाली के ग्रहण से निकल नहीं पा रहा है। श्रीलंका की अर्थनीति का एक स्तंभ है पर्यटन उद्योग, जो कि कोविड के धक्के से हिल गया है।
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एक और घटना हुई थी 2021 में चर्च, होटल पर आतंकी हमला हुआ जिसे ईस्टर बॉम्बिंग कहते हैं, इससे और फिर रूस-यूक्रेन युद्ध के कारण भी पर्यटन उद्योग को बहुत धक्का लगा।
दूसरा महत्वपूर्ण पहलू है कि नब्बे के दशक से पूंजीवादी-साम्राज्यवादी व्यवस्था ने अपने संकट से निजात पाने के लिए भूमंडलीकरण-उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों के तहत एशिया, अफ्रीका व लैटिन अमेरिकी देशों में नवउदारवादी अर्थनीति की कार्पेट बॉम्बिंग कर दिया।श्रीलंका उसका एक बड़ा भुक्तभोगी देश बन गया है।
वहां के शासकों को तीसरी दुनिया के अन्य विकासशील देशों की तरह कर्ज लेकर देश को आत्मनिर्भर बनाने का जुनून सवार हो गया था। श्रीलंका ने साम्राज्यवादी देशों की शर्तों पर निवेश आमंत्रित करने के लिए रेड कार्पेट बिछा दिया (हमारे देश में यही कार्य धुर दक्षिणपंथी योगी आदित्यनाथ की सरकार से लेकर तथाकथित वामपंथी पिनारायी विजयन की सरकार भी यही कर रही है)।
साथ में ऊंचे सूद पर अल्प अवधि के लिए वाणिज्यिक ऋण लिया जा रहा था। सरकार ने घरेलू उत्पादन वृद्धि पर ध्यान न देकर अर्थनीति की बागडोर शासकों के करीबी क्षत्रपों को दे रखा था। भंगुर अर्थनीति, बड़े पैमाने पर कर्ज, तीस पर सुरक्षा का अभाव – सब मिलाकर श्रीलंका की क्रेडिट रेटिंग कम होते गई।
फलस्वरूप अंतरराष्ट्रीय बाजार से वाणिज्यिक कर्ज प्राप्त करने का रास्ता भी बंद हो गया। इधर नए नोट छपवाने के जरिए स्थिति को संभालने की कोशिश से मंहगाई और बढ़ गई।
श्रीलंका सरकार ने पिछले कुछ सालों से रुपए की मांग को पूरा करने के लिए कई खतरनाक फैसले लिए। अंतरराष्ट्रीय बाजार से विदेशी मुद्रा में रासायनिक खाद की खरीदी करनी पड़ती है साथ ही खरीददारों को सब्सिडी भी देनी पड़ती है, उस खर्च को बचाने के लिए रातों रात रासायनिक खाद के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगा दिया गया और पूरे देश में जैविक खेती शुरू कर दी गई।
राष्ट्रपति गोताबाया राजपक्षे ने कहा था कि खेती में उच्च उत्पादनशीलता और किसानों की समृद्धि बस आने ही वाली है (भारत के प्रधान मंत्री मोदी के अच्छे दिन की तरह)।अब स्थिति यह है कि मुख्य उपज धान का उत्पादन बहुत कम हो गया है और बांग्लादेश से चावल का आयात करना पड़ रहा है।
संकटग्रस्त अर्थनीति को गतिशील बनाने के लिए सरकार ने रातों रात कर की दर को कम कर दिया। उद्योगों में उत्पादन तो बढ़ा ही नहीं बल्कि राजस्व वसूली बहुत कम हो गई। नतीजा है सकल घरेलू उत्पाद (GDP) की दर 15 फीसदी कम हो गई।
क्या ये संकट सिर्फ कुशलता से आर्थिक प्रबंध न कर पाने के कारण है? जैसे भारत की अर्थव्यवस्था पिछले आठ वर्षों से नोटबंदी और GST को लागू करने के बाद हिचकोले खा रही है। इसका जवाब श्रीलंका और भारत दोनों देशों के लिए एक है – नहीं।
श्रीलंका की दुर्दशा का एक बड़ा कारण है एक फासिस्ट परिवार का सत्ता के सभी केन्दों को अपने कब्जे में करना। श्रीलंका के राजपक्षे परिवार का एक भाई राष्ट्रपति है तो एक प्रधानमंत्री। बाकी भाई और उनके बच्चे या तो मंत्री हैं या महत्वपूर्ण दफ्तरो के प्रभारी।
राजपक्षे परिवार देश के कुल बजट का 70 फीसदी नियंत्रण करते हैं। जिस प्रकार फासिस्ट मोदी सरकार ने 2016 में अधिकांश विशेषज्ञों की बात को अनसुनी कर कॉरपोरेट थलीशाहों के हित में रातों रात नोटबंदी की घोषणा कर गरीबों मेहनतकशों की कमर तोड़ दी थी ठीक वैसे ही तानाशाह राजपक्षे सरकार ने तमाम विशेषज्ञों को दरकिनार कर बिना सोचे समझे कृषि में रासायनिक खाद पर प्रतिबंध लगाया और जैविक खेती शुरू करने का तुगलकी फरमान जारी किया।
2015- 2018 तक चार साल सत्ता से बाहर रहने के बाद 2021 में चुनाव जीत कर राष्ट्रपति बने गोताबया राजपक्षे। दो दिन के भीतर प्रधानमंत्री रोनिल विक्रमसिंहे को पद से हटाकर उस पद पर अपने भाई महिंद राजपक्षे को बिठाया।
देश की बहुसंख्यक सिंहली बौद्ध जनता का समर्थन उनको मिला। क्योंकि लिट्टे का दमन करते समय माहिंद राजपक्षे ने सिंहली बहुसंख्यकवाद पर आधारित उग्र राष्ट्रवाद को भड़काया था। 2001 में जब महिंद्र राजपक्षे राष्ट्रपति थे तो उन्होंने सैन्य कार्रवाई में लिट्टे की कमर तोड़ दी थी और करीब 75,000 तमिलों का जनसंहार किया था। जिस कारण उनपर अंतरराष्ट्रीय बिरादरी की ओर से बारंबार मानवाधिकार हनन के गंभीर आरोप लगते रहे हैं।
महिंद्र राजपक्षे जानते थे कि सिंहली राष्ट्रवाद की हवा से ही उनकी नाव चल निकलेगी। उग्र राष्ट्रवाद जो की फासीवादी शासक वर्ग का एक हथियार है को हमेशा एक शत्रु की जरूरत होती है। कमजोर हो चुके तमिल जनसमुदाय की जगह उन्होंने नए दुश्मन के रूप में मुसलमानों को चुन लिया। बड़ा कोई जनसंहार या दंगे का शिकार न होने के बावजूद द्वीप के मुसलमान लगातार उत्पीड़न का शिकार होते रहे हैं।
एक उदाहरण यहां दिया जा सकता है कि 2021 के फरवरी में प्रबल अंतरराष्ट्रीय दबाव के आगे झुकने से पहले कोविड में मरने वाले मुसलमानों के शवों को सरकार दफनाने की जगह दाहसंस्कार करती रही।
राष्ट्रीयता आधारित पहचान की राजनीति श्रीलंका ने नई नहीं है। 1948 में स्वतंत्रता पाने के 10 साल के भीतर वहां सिंहली बौद्ध आधिपत्य स्थापित हो गया। धीरे धीरे राजसत्ता के तमाम महत्वपूर्ण अंगों पर इसी जनसमुदाय के लोग काबिज हो गए। पुलिस -प्रशासन-फ़ौज के सर्वोच्च पदों पर सिंहली बौद्ध प्रभुत्व कायम हो गया
अल्पसंख्यकों के दमन के लिए कोई भी कदम उठाओ, रोकने वाला कोई नहीं। नतीजतन सत्ता में बने रहने का मूलमंत्र हो गया अल्पसंख्यकों के प्रति नफरत। “बोडू बल सेना” (जैसे हमारे यहां बजरंग दल ,धर्म सेना या श्री राम सेना हैं) नामक एक कट्टरपंथी बौद्ध संगठन लगातार मुसलमानों के खिलाफ भड़काऊ बयान देने और हिंसा भड़काने का काम करते हैं (जैसा हमारे यहां यति नरसिमहानंद धर्मसंसद में करते हैं)। लेकिन गोताबाया राजपक्षे, विश्वगुरु मोदी को तरह खामोशी से इन सबको प्रश्रय देते रहे। ऐसा नहीं लगता कि भारत के साथ काफी समानता है ?
बहुसंख्यकों के प्रभुत्व से अर्थव्यवस्था की बीमारी दूर करना मुश्किल है। लंबे समय तक सिंहली-तमिल गृहयुद्ध के चलते श्रीलंका के विदेशी कर्जों की मात्रा बढ़नी शुरू हो गई थी। 2001 में गृहयुद्ध समाप्त होने के बावजूद राष्ट्रीयताओं के बीच अविश्वास कम होने के बजाय बढ़ता ही गया। अर्थव्यवस्था सिमट गई क्योंकि श्रीलंका में निवेश करने से कई देश कतराने लगे।
तमिल जनसंहार से, श्रीलंका सरकार पर बड़े पैमाने पर मानवाधिकारों के उल्लंघन करने के मामले में अंतरराष्ट्रीय दबाव बढ़ा। प्रजातंत्र के क्षरण के आरोपों की जांच का राजपक्षे सरकार ने देश के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप कहकर विरोध किया। फलस्वरूप लाभकारी शर्तों पर विदेशी निवेश या सहज शर्तों पर विदेशी कर्ज दोनों में से कुछ श्रीलंका के हाथ न लगा।
इसी गैप को भरने के लिए मंच पर चीनी साम्राज्यवाद की मौजूदगी दर्ज हुई। श्रीलंका की अर्थव्यवस्था में चीन ने बड़ा निवेश किया है। हर साम्राज्यवादी देश की तरह चीन की भी नीति है, कमजोर अर्थव्यवस्था वाले देशों को पहले ऊंचे ब्याज दर पर ऋण उपलब्ध कराना फिर उनको, अपनी शर्तों के अनुसार नचाना।
श्रीलंका के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने से लेकर उसके प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जा करना चीन का प्रमुख कार्य रहा है। चीन की घनिष्ठता शासक राजपक्षे परिवार से रही है। उन्हीं के जरिए चीन ने आज श्रीलंका के खनिज संसाधन और समुद्री तट रेखा पर नियंत्रण कायम कर रखा है। उसने दो महत्वपूर्ण बंदरगाहों को 99 वर्षों के लिए अनुबंध पर लिया है।
चीन ने मुख्य रूप से श्रीलंका में संरचनात्मक क्षेत्र में ऊंचे सूद पर कर्ज देने के जरिए निवेश किया है। चीन की वर्तमान नीति है, जिन देशों को कहीं से कर्ज नहीं मिलता उन्हें ऊंची ब्याज दर पर ऋण उपलब्ध करवाना। चीनी साम्राज्यवाद के कर्ज के फंदे (Debt Trap) में फंस कर श्रीलंका पूरा बरबाद हो गया है। नवउदार नीतियों का हश्र यही होता है, चीन की जगह अमेरिका या अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) होता तो भी परिणाम यही होता।
श्रीलंका की बदहाली का एक कारण है विदेशी मुद्रा भंडार में आई गिरावट। विदेशी मुद्रा भंडार में 70 प्रतिशत की गिरावट आई है। फिलहाल उसके पास 2.31 अरब डॉलर बचे हैं। विदेशी मुद्रा के रूप में सिर्फ 17.5 हजार करोड़ रूपए श्रीलंका के पास है। अभी हाल ही में सरकार ने खुद को विदेशी कर्ज चुकाने में असमर्थ घोषणा कर दिया है।
श्रीलंका कच्चे तेल और अन्य चीजों के आयात के लिए साल में 91,000 करोड़ रूपए खर्च करता है। मगर उसके पास अभी मात्र 17.5 हजार करोड़ रूपए ही हैं। गौरतलब है कि विदेशी मुद्रा भंडार और भुगतान संतुलन से निपटने में अक्षम साबित होने के कारण सत्तारूढ़ राजपक्षे परिवार के खिलाफ बड़े पैमाने पर आंदोलन हो रहे हैं।
जनता में काफी आक्रोश है और वह राष्ट्रपति से इस्तीफा मांग रही है। भीषण वित्तीय और राजनैतिक संकट के चपेट में है द्वीप। जो जनता अब तक सरकार की हर नाजायज बातें या मांग को देशहित में स्वीकार करती थी (चाहे तमिलों का जनसंहार हो, चाहे मुसलमानों को दोषी ठहराना हो या मंत्रियों को आर्थिक कुप्रबंधन का दोषी ठहरा कर इस्तीफा दिलवाना हो) वो अब विद्रोह पर उतर आई है।
लोग, भोजन, ईंधन और दवाओं की बढ़ती कीमतों के खिलाफ सड़क पर उतर आए हैं। राष्ट्रपति भवन के सामने जनता, जिसमें प्रसिद्ध क्रिकेटर भी शामिल हैं, दिल्ली की सीमाओं पर चले ऐतिहासिक किसान आंदोलन की तरह टेंट लगाकर प्रदर्शन कर रहे हैं। क्रिकेटर सनथ जयसूर्या ने कहा है कि अब लोगों ने सरकार के खिलाफ अपना आक्रोश जताना शुरू कर दिया है। देश के डॉक्टरों ने नवजात शिशु और छोटे बच्चों को बचाने के लिए तत्काल चिकित्सा सुविधाओं के आपूर्ति की मांग की है।
गोतावाया को लगा था कि श्रीलंका के भू-राजनैतिक अवस्थान् के कारण इसे बिना शर्त कर्ज देने के लिए पूरी दुनिया से लोग दौड़े चले आयेंगे। मगर ऐसा नहीं हुआ। भारत जो खुद संकट से घिरा है, ने कुछ मदद की, मगर वो नाकाफी है। यहां तक कि चीन ने भी श्रीलंका के सर पर टूट पड़े कर्ज के बोझ को कम करने कोई रुचि नहीं दिखाई
श्रीलंका की फ्रंटलाइन कम्युनिस्ट पार्टी (जो अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट व क्रांतिकारी संगठनों के मंच “आइकोर” का सदस्य है) ने फासिस्ट गोताबाया राजपक्षे सरकार को उखाड़ फेंकने का, देश में बहुसंख्यकवादी उग्र राष्ट्रवाद को खत्म करने, तमाम साम्राज्यवादी कर्जों और संधियों का खात्मा करने, नवउदार नीतियों की समाप्ति, राष्ट्रीयताओं के आत्मनिर्णय के अधिकार और जनता का जनवादी राज्य कायम करने का आहवान किया है।
जो आज श्रीलंका में हो रहा है वो कल भारत में होगा। वहां की घटना से हमें बहुत बड़ी सीख ये मिलती है कि बहुसंख्यकवादी फासीवादी रास्ते पर चलने, प्रजातंत्र के खात्मे से, कुछ मुट्ठीभर कॉरपोरेट थैलीशाहों के तलवे चाटने से और चारों ओर हां में हां मिलाने वाले अंधभक्तों की भीड़ बढ़ाने का नतीजा भयावह होता है। जो आज श्रीलंका में हो रहा है वो कल हमारे यहां होगा।
हमारे देश के लिए श्रीलंका की घटनाएं एक खतरे की घंटी है। लेकिन क्या अंधभक्त जो रामनवमी में शांतिपूर्ण ढंग से पूजापाठ की जगह फासिस्ट संघ परिवार के इशारे पर रमजान माह में मुसलमानों पर और मस्जिदों पर हमले कर रहे थे, इस खतरे की घंटी को सुनेंगे।
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