मजदूरों के सामने अब आजीविका नहीं, जिंदगी बचाने की जंग

मजदूरों के सामने अब आजीविका नहीं, जिंदगी बचाने की जंग

By आशीष सक्सेना

भयावह हालात सिर्फ प्रवासी मजदूरों के ही नहीं, उनके भी हैं जो किसी भी तरह अपनी रोजी-रोटी परिवार के साथ रहकर चलाते हैं।
शहरों में यहां तक नौबत है कि फेरी लगाने वालों के पास सब्जी बेचने के अलावा कोई काम ही नहीं बचा है और ग्राहक तो वही हैं, बल्कि कम हैं।

वायरस संक्रमण रोकने और इलाज के तमाम जतन करने के बाद जो मौत का आंकड़ा सामने है, लगभग वैसा और उससे ज्यादा भयावह मौत, आत्महत्या और हादसों का आंकड़ा बढ़ रहा है। हालात मजदूरों की आजीविका बचाने के लिए नहीं, जिंदगी बचाने की जंग के बन चुके हैं।

हेल्पलाइन के नाम पर धोखाधड़ी हो रही है या फिर लाखों लोगों के लिए एक ही नंबर है, जो लगता नहीं है। भूख, पीड़ा, शारीरिक-मानसिक आघात से जूझते हुई महीना बीत चुका है।

सिर बचाने को अपना छप्पर-खपरैल ही है, जिस तक पहुंचने को हर जोखिम लेने को प्रवासी मजदूर दौड़ लगा रहे हैं।

खाना और राशन न मिलने की शिकायतें मंत्रालयों तक हो जा रही हैं और हल नहीं निकल रहा। समाजसेवियों के भोजन लेने में भी कम मुसीबत नहीं, पुलिस पीटकर भगा दे रही है।

मुंबई के धारावी जैसे मजदूर इलाके में पुलिस की मार से बचने को लोग आधी रात को ही सार्वजनिक शौचालयों के प्रयोग को मजबूर हैं। ऐसे में किसी के खाते में पैसे हों भी तो एटीएम तक नहीं पहुंचा जा सकता।

इसके बावजूद प्रवासी मजदूरों के बीच एकजुटता महसूस करने लायक है। वे अपने से ज्यादा जरूरतमंद का ख्याल रखने की कोशिश कर रहे हैं, छीनझपट नहीं कर रहे हैं।

तमिलनाडु में प्रवासी मजदूरों के एक समूह ने अपने से ज्यादा जरूरतमंद के लिए मदद करने की गुजारिश की। कहा, ‘हमसे ज्यादा कई दूसरों को जरूरत है, उन्हें दीजिए, हमारे पास अभी दो दिन को राशन बचा है।’

 

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ashish saxena