अब इंसाफ़ देने के लिए जज भी रखे जाएंगे ठेके पर, सुप्रीम कोर्ट की महा मेहरबानी
देश में निजी कंपनियों के बाद सरकारी कार्यालयों में धड़ल्ले से ठेका कर्मचारियों की भर्ती के रिवाज़ से कम से कम न्यायपालिका कुछ हद तक बचा था लेकिन अब अदालतों में ठेके पर जज रखे जाएंगे।
अपने कई फैसलों से विवादों में घिरे रहे पूर्व प्रधान न्यायाधीश एसए बोबडे ने ये फैसला अपने रिटायरमेंट के ठीक तीन दिन पहले दिया। उनकी जगह जस्टिस एनवी रमना ने लिया है और शनिवार को उन्होंने चीफ जस्टिस का पदभार संभाला।
उल्लेखनीय है कि भारत के श्रम क़ानूनों के मुताबिक ठेका श्रम विनियमन और उन्मूलन अधिनियम के तहत देश में ठेका प्रथा को खत्म करने का प्रवाधान है।
लेकिन जबसे कोरोना महामारी के कारण पहली बार लॉकडाउन लगा, मोदी सरकार ने इसी दौरान इन श्रम क़ानूनों को ही ख़त्म कर चार लेबर कोड में समेट दिया, हालांकि ये अभी लागू नहीं हुए हैं लेकिन इसकी परछाईं हर सरकारी फैसले में दिखाई दे रही है।
सीजेआई एसए बोबडे ने 20 अप्रैल को अदालतों में केसों की बढ़ती संख्या के का हवाला देते हुए आर्टिकल 224ए के तहत हाई कोर्ट में एडहाॅक बेसिस पर रिटायर्ड जजों को नियुक्ति करने का फैसला सुनाया है।
इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक, बीते मंगलवार को मुख्य न्यायाधीश एसए बोबड़े, न्यायमूर्ति संजय किशन कौल और न्यायमूर्ति सूर्यकांत की पीठ ने इस आदेशों को लोक प्रहरी बनाम भारत संघ में के मामले में दिया है।
गैर सरकारी संगठन, लोक प्रहरी ने अनुच्छेद 324 के तहत दायर जनहित याचिका के माध्यम से उच्च न्यायालयों में बढ़ते लंबित मामलों की समस्या से निपटने के लिए दायर जनहित याचिका के माध्यम से शीर्ष अदालत का दरवाजा खटखटाया था।
हालांकि अदालत ने माना है कि एडहॉक नियुक्तियों को नियमित नियुक्तियों का विकल्प नहीं बनाया जाना चाहिए।
जस्टिस एसए बोबडे ने यह भी कहा कि न्यायालय ने माना है कि एडहॉक जजों के लिए वेतन और भत्ते को भारत के समेकित कोष से लिया जाना चाहिए।
सीजेआई ने आगे कहा, “इस मामले का पूरी तरह से निपटारा नहीं किया गया है। यह एक सतत प्रक्रिया है जिसे निरंतर दिशानिर्देशों की आवश्यकता होती है।” इस मामले पर अगली सुनवाई चार महीने बाद होगी।
केंद्रीय कानून और न्याय मंत्रालय से प्रगति के संबंध में तब तक एक रिपोर्ट दर्ज करने के लिए कहा गया है।
पीठ ने विभिन्न उच्च न्यायालयों की ओर से दिए गए सुझावों को सुनने के बाद 15 अप्रैल को मामले पर आदेश सुरक्षित रखा था।
उड़ीसा हाई कोर्ट की ओर से पेश हुए वरिष्ठ अधिवक्ता अरविंद पी दातार ने पीठ को सूचित किया था कि एक लिखित नोट चर्चा के आधार पर प्रस्तुत किया गया है।
नोट में एडहॉक न्यायाधीशों की नियुक्ति, उनके कार्यकाल, नियुक्ति प्रक्रिया, भत्ते आदि को सक्रिय करने के संबंध में सुझाव दिए गए थे।
जस्टिस बोबडे क्यों विवादित रहे
इंडिया टुडे ग्रुप के मीडिया वेंचर लल्लनटॉप ने लिखा है कि बीते साल मार्च के आखिर में लॉकडाउन लगने के साथ ही बड़ी संख्या में मजदूर बड़े शहरों से वापस अपने घर जाने लगे। सुप्रीम कोर्ट में कई वरिष्ठ वकीलों और NGO ने याचिकाएं डालीं. मांग की गई कि देश की सर्वोच्च अदालत को मजदूरों के मामले में जरूरी कदम उठाने चाहिए। लेकिन जस्टिस एसए बोबडे की अगुआई में यह हो ना सका।
इसके बाद बोबडे की सोशल मीडिया पर कटु आचोलना हुई जिसके बाद आखिर में कुछ दिशा निर्देश जारी किए और सरकार से कहा कि मजदूरों के लिए निःशुल्क ट्रांसपोर्टेशन और खाने की व्यवस्था जल्द से जल्द मुहैया कराई जाए।
अभी ताज़ा विवाद इस बात उठा कि जब देश की तमाम हाईकोर्ट में कोरोना से निपटने में सरकारों की नाकामी पर तीखे सवाल पूछे जाने लगे और लगा कि सरकारों पर कोई बड़ी कार्यवाही हो सकती है, सीजेआई जस्टिस बोबडे ने अतिसक्रियता दिखाते हुए सारे मामले सुप्रीम कोर्ट के मातहत ले लिए और हाईकोर्टों को इस पर सुनवाई न करने से एक तरह से रोक लगा दी। ये मामला उनके रिटायर होते होते सुर्खियों में रहा।
2020 के कोरोना काल में ही ट्विटर पर जस्टिस अरविंद बोबडे की एक तस्वीर वायरल हुई थी, जिसे सुप्रीम कोर्ट के जाने माने प्रतिष्ठित वकील प्रशांत भूषण ने ट्वीट कर दिया था, जिस पर प्रशांत भूषण पर अदालत की मानहानि का मामला लाद दिया गया।
इस तस्वीर में वे एक बेशकीमती बाइक हार्ले डेविडसन के साथ बिना मास्क लगाए पोज करते नजर आए। असल में यह बाइक स्थानीय बीजेपी नेता सोनबा मुसाले के बेटे रोहित सोनबा मुसाले की थी। इसके बाद ट्वीट वॉर का दौर शुरू हुआ। इसी ट्वीट वॉर में प्रशांत भूषण ने इसपर तीखी टिप्पणी लिख दी थी।
प्रशांत भूषण पर लगे ‘कंटेम्प्ट ऑफ कोर्ट’ पर लंबा विवाद चला और अंत में सजा के तौर पर उन्हें 1 रुपया सुप्रीम कोर्ट में जमा करना पड़ा।
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