मारुति आंदोलन का एक दशकः जो हासिल हुआ उसे आगे ले जाने का सबक
By रामनिवास
आज हमारे (मारुति मजदूरों के) संघर्ष के 10 साल पूरे हो गए हैं। आंदोलन से हमने बहुत कुछ सीखा, बहुत कुछ पाया और उससे ज़्यादा खोया भी। हमारे आंदोलन का असर सिर्फ मारुति मज़दूरों पर ही नहीं पड़ा बल्कि अन्य मज़दूरों व पूंजीपतियों पर भी पड़ा।
इसका मूल्यांकन भी दोनों वर्गों ने अपने अपने नज़रिये से किया और उसको अपने अपने हिसाब से पेश किया। इससे देश भर के मज़दूरों ने काफी कुछ सीखा भी और इसकी आवाज़ विदेशों तक भी पहुंची।
मज़दूर जब कुछ भी कर रहे होते हैं तो वो इसलिए नहीं करते कि उन्हें ऐसा करके कोई उदाहरण पेश करना है या मिसाल कायम करनी है। वो सिर्फ समय और परिस्थितियों की मांग पर अपनी समझ के अनुसार अपना काम करते हैं।
उसके बाद बुद्धिजीवी वर्ग उसका विश्लेषण कर उसे लिपिबद्ध कर देता है। बहुत सारे लोग उसे प्रकाशन का रूप देकर उसे अपना नाम भी कमाते हैं। लेकिन मज़दूरों को पता ही नहीं होता कि उन्होंने क्या कर दिया और उसका क्या महत्व है।
ऐसे ही मारुति आंदोलन को हमने अपनी ज़रूरत समझकर लड़ा और उससे जो कुछ भी हासिल हुआ उसका अन्य मज़दूर वर्ग पर क्या असर होगा ये किसी ने नहीं सोचा था।
आंदोलन सिर्फ संगठित क्षेत्र (कम्पनी की चाहारदीवारी) में ही नहीं लड़ा गया। असली लड़ाई प्रोविजनल कमेटी की अगुवाई में तब लड़ी गयी जब 18 जुलाई की घटना के बाद यूनियन के अगुवा नेताओं सहित 150 मजदूर जेल में ठूंस दिए गए।
जब सभी मज़दूर पुलिस के डर से घरों से फरार थे और पुलिसिया दमन चरम पर था, जब किसी को भी इकठ्ठा नहीं होने दिया जाता था, जब कारपोरेट मीडिया के द्वारा समाज में मारुति मज़दूरों को गुंडे के रूप में पेश किया गया, उस छवि को बदलने और अपने आंदोलन के प्रचार के लिए हरियाणा के हर ज़िले से साईकिल यात्रा, पद यात्रा, नुक्कड़ सभा, धरना प्रदर्शन व अनशन शुरू हुए।
काफी लंबे आंदोलनों के बाद जनता का सहयोग मिलना आरम्भ हुआ। लेकिन इसके पीछे एक बड़ा बलिदान और संघर्ष रहा है।
जब प्लांट के अंदर वर्कर्स कमेटी बना दी गयी और प्लांट के मज़दूरों को बर्ख़ास्त मज़दूरों से मिलने पर ही दूसरे राज्यों में ट्रांसफ़र किया गया, आंदोलन की अगुवाई कर रहे कमेटी के साथियों को जेल भेज दिया गया, आंदोलनरत बर्ख़ास्त मजदूरों और सहयोगियों पर लाठीचार्ज हुआ और 117 लोगों को जेल भेज दिया गया, तब प्रोविजनल कमेटी ने ही मज़दूरों को एकजुट कर प्लांट में फिर से यूनियन गठन की कोशिश की।
आज मारुति मज़दूर आंदोलन के समग्र मूल्यांकन की आवश्यकता है जो मज़दूरों को प्रेरणा दे व इस आंदोलन की कमियों को देखते हुए मज़दूर वर्ग सबक भी ले। कुछ महत्वपूर्ण बिंदु जिसे हम महसूस कर रहे हैं जिससे मज़दूर आंदोलन को सीख लेनी चाहिए उस पर कुछ बातें-
शोषण के विरुद्ध आंदोलन की रणनीति :- जैसा सभी को पता है की यूनियन बनाने के लिए शुरुआती दौर में किस तरह से गुप्त रणनीति बनाई जाती है और कार्यकारिणी के लिये 7 सदस्य जुटाना भी कितना मुश्किल होता है। सुज़ुकी जैसे बहुराष्ट्रीय कंपनी के मालिकों के सामने यूनियन बनाना एक बहुत चुनौतीपूर्ण काम था।
मज़दूरों में बढ़ती अराजकता को प्रबन्धन पहचान गया था और आंदोलन से पहले ही 23 अप्रैल 2011 को कम्पनी गेट से स्टेऑर्डर की याचिका लगा दी गयी थी। 2 जून 2011 को जैसे ही हमारे नेताओं ने यूनियन पंजीकरण के लिए आवेदन किया वैसे ही प्रबन्धन ने 4 जून को कोरे कागजों पर हस्ताक्षर लेना शुरू कर दिया। विरोधस्वरूप 4 जून 2011 को मज़दूर कम्पनी के अंदर ही हड़ताल पर बैठ गए ।
इससे पूर्व जितने भी कारखानों में हड़ताल होती थी तो मज़दूर बाहर धरना प्रदर्शन करते थे पूरे औद्योगिक क्षेत्र में बैठकी हड़ताल मारुति आंदोलन के बाद से शुरू हुई है।
मारुति प्रबन्धन जो काफी दूर की सोच कर पहले ही स्टे आर्डर ले आया था उसको बिना ख़बर हुए ही पूरी पंजीकरण प्रक्रिया को अंजाम दिया गया और 3500 मज़दूरों को एक समय पर हड़ताल करने की योजना को सफलतापूर्वक अंजाम दिया गया।
मारुति मानेसर के आंदोलन से पहले कम्पनी में संघर्ष के समय मज़दूर परमानेंट टेंपरेरी के रूप में अलग अलग बंटे होते हैं, लेकिन 4 जून 2011 को सफ़ाई मजदूर से लेकर एचआर विभाग तक के सभी मज़दूरों ने एकजुटता की मिशाल पेश की।
सिर्फ ठेका मज़दूरों की मांग के लिए कम्पनी में हड़ताल की गई जिससे सभी मज़दूरों में व्यापक भाईचारे की भावना बनी। यह अभूतपूर्व था। गौरतलब है कि मज़दूरों की तमाम मांगों में ठेका प्रता ख़त्म करने की मांग प्रमुख थी।
मारुति प्रबन्धन कभी भी नेतृत्व को खत्म नहीं कर पाया। गैरकानूनी लॉकआउट के बाद 30 अगुवा मज़दूरों को कम्पनी ने 16-16 लाख रुपये देखर निकाल दिया। कम्पनी को यकीन था कि अब मज़दूर कुछ नहीं कर पाएंगे।
लेकिन तुरन्त ही नई कार्यकारिणी आगे आई और यूनियन का गठन किया। 18 जुलाई की घटना के बाद यूनियन प्रतिनिधियों सहित 150 मज़दूरों को जेल में डाल दिया गया।
आंदोलन को फिर से चलाने के लिए दमन के माहौल में फिर से 7 सदस्यों की प्रोविज़नल कमेटी बनाई गई और आंदोलन को आगे बढ़ाया। उसके बाद प्लांट के अंदर नई कार्यकारिणी का गठन किया गया।
13 मज़दूर नेताओं को उम्र कैद जैसी सजा और 546 मज़दूरों की बर्ख़ास्तगी के बाद भी सभी मज़दूरों को लड़ने का संदेश देने के साथ ही उम्र कैद के सभी 13 मज़दूरों को लगभग 20-20 लाख रुपये की तात्कालिक आर्थिक सहायता कर यूनियन ने एक परिवार के सदस्य न होने पर उनकी सभी ज़िम्मेदारी निभाने की मिसाल पेश की।
संगठित यूनियन के अभाव में व बिखरे हुए मज़दूरों को एकजुट करने के लिए राज्य स्तरीय व ज़िला स्तरीय कोर्डिनेटर बनाये गए जिससे हर किसी मज़दूर तक संदेश दिया जा सके।
शुरुआती दौर में गुड़गांव की युनियनों व ट्रेड यूनियनों का उस रूप में सहयोग नहीं मिला। इलाकाई एकता और सहयोग के बिना लड़ाई रखना असम्भव था। मारुति के तीनों प्लांटों में भी एकता नहीं थी।
लड़ाई कई स्तर पर जारी थी। जेल, कोर्ट, लेबरकोर्ट, धरने प्रदर्शन व कम्पनी के मज़दूरों को एकजुट करने जैसे तमाम व्यवस्तताओं के कारणों ना ही यूनियन सदस्यों और ना ही नेतृत्व की राजनीतिक चेतना और राजनीतिक अध्ययन हो पाया।
आंदोलन से जो भी हमारी समझ बनी उसी आधार पर हमने गुड़गांव से बावल तक हर किसी आंदोलन में भागीदारी करने का प्रयास किया। पूरे देश भर के औद्योगिक क्षेत्र के संगठनों को मिलाकर एक देशव्यापी संगठन बनाने का प्रयत्न किया गया और ये सिलसिला आज भी जारी है।
(लेखक मारुति आंदोलन के अगुवा नेताओं में से एक और प्राविज़नल कमेटी के सदस्य रहे हैं।)
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