पेगासस जाँच कहीं जंजाल न बन जाए!
By राजेश जोशी
जिन लोगों ने इंदिरा गाँधी की हत्या के तुरंत बाद के वर्षों में पत्रकारिता की शुरुआत की थी उनको इनमें से कुछ नाम ज़रूर याद होंगे: मारवाह आयोग, रंगनाथ मिश्रा आयोग, ढिल्लन कमेटी, कपूर-मित्तल कमेटी, जैन-बनर्जी कमेटी, आहूजा कमेटी, पोटी-रोशा कमेटी, जैन-अग्रवाल कमेटी, नरूला कमेटी, नानावती आयोग और माथुर कमेटी।
ये सभी आयोग और समितियाँ 31 अक्तूबर 1984 को इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद दिल्ली में आयोजित किए गए सिख-विरोधी दंगों की जाँच के लिए गठित की गई थीं। सबने जाँच की, सबने कुछ न कुछ अनुशंसाएँ कीं और सिखों को निशाना बनाने के लिए काँग्रेस के कई नेताओं के नाम उजागर किए।
द प्रिंट ने तीन साल पहले गिनती करके बताया था कि चौरासी के दंगों की जाँच के लिए कुल मिलाकर चार आयोग गठित किए गए, उनके अलावा अलग-अलग नौ समितियाँ बनाई गईं और नरेंद्र मोदी सरकार के आने के बाद दो विशेष जाँच दल भी बना दिए गए थे। इनमें से सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर 2018 में बना जाँच दल अब भी काम कर रहा है।
इंदिरा गाँधी की हत्या को इसी महीने की 31 तारीख़ को 37 बरस पूरे हो जाएँगे और ताज़ा विशेष जाँच दल की रिपोर्ट आनी बाक़ी है। इस बीच हरकिशन लाल भगत और धर्मदास शास्त्री जैसे दंगाइयों का नेतृत्व करने वाले काँग्रेसी नेताओं की मौत हो गई। सज्जन कुमार को 1984 में किए गए अपराध की सज़ा 2018 में मिल पाई। कुछ छोटे मोटे लोगों को भी सज़ा हुई है।
मगर आप आज भी तिलक नगर या त्रिलोकपुरी जैसी बस्तियों में रह रहे दंगा-पीड़ित सिखों की पुरानी पीढ़ी के पास जाकर उनसे पूछें कि क्या उनको न्याय मिला तो ख़ूँरेज़ी, विश्वासघात, हताशा, खोखले दिलासों की सैकड़ों कहानियाँ आँसुओं के सैलाब के साथ बह निकलेंगी।
सुप्रीम कोर्ट ने पेगासस व्हाट्सऐप कांड की स्वतंत्र जाँच का आदेश देकर नरेंद्र मोदी सरकार के लिए एक बड़ी चुनौती खड़ी कर दी है, ऐसे में सिख-विरोधी दंगों की जाँच के लिए बनाई गई समितियों और आयोगों का ज़िक्र करने का क्या तुक है – आप पूछ सकते हैं।
वाक़ई सुप्रीम कोर्ट ने रिटायर्ड जस्टिस आर.वी. रवींद्रन के नेतृत्व में स्वतंत्र जाँच बैठाकर नरेंद्र मोदी सरकार की हेकड़ी को थोड़ा ढीला किया है। जब से अख़बारों में पेगासस कांड का पर्दाफ़ाश हुआ और जनता को ये पता चला कि उनके फ़ोन में चल रहे व्हाट्सऐप के ज़रिए दरअसल उनकी जासूसी की जा रही है, उनकी हर बात सुनी जा रही है, हर मैसेज पढ़ा जा रहा है और हर हरकत पर नज़र रखी जा रही है, तब से ही सरकार हर तरह का हथकंडा अपना कर इस विवाद पर काँइयाँपन के ज़रिए परदा डालने की कोशिश कर रही है।
सरकार ने आज तक ये साफ़ तौर पर नहीं कहा है कि उसने इसराइल की कंपनी से इस जासूसी वाले सॉफ़्टवेयर को नहीं ख़रीदा। न ही इस मुद्दे पर संसद पर बहस होने दी गई। यहाँ तक कि जब मामला सुप्रीम कोर्ट में आया तो सरकार ने राष्ट्रीय सुरक्षा की आड़ लेकर इस मामले में हलफ़नामा तक दायर करने से इंकार कर दिया।
क्योंकि हलफ़नामें में मोदी सरकार को पूरी जानकारी देनी पड़ती – या तो साफ़ तौर पर आरोपों का खंडन करना पड़ता या मानना पड़ता कि उसने अपने ही नागरिकों की जासूसी करवाई। इसलिए सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से कहा कि हम पूरे मामले की जाँच एक विशेषज्ञ समिति से करवाने को तैयार हैं बशर्ते ये समिति बनाने की ज़िम्मेदारी हमें ही दी जाए।
यानी सरकार ख़ुद ही मुद्दई और ख़ुद ही मुंसिफ़ बनना चाहती थी पर उसके इस मंसूबे पर फ़िलहाल सुप्रीम कोर्ट ने पानी फेर दिया है।
इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद दिल्ली में करवाए गए सिख-विरोधी दंगों की जाँच पर फिर से नज़र डालें। इसमें काँग्रेस के नेताओं पर हिंसक भीड़ को उकसाने, उनका नेतृत्व करने और ख़ुद सिखों पर हमला करने के आरोप थे। दिल्ली पुलिस पर आरोप था कि उसने दंगाइयों को लूटमार करने की छूट दी, उनकी आगज़नी और ख़ूँरेज़ी को ऐसे नज़रअंदाज़ किया जैसे नवंबर 1984 के पहले हफ़्ते में दिल्ली शांति और अमन-चैन की राजधानी बन गई हो।
फिर भी राजीव गाँधी सरकार ने दंगों की जाँच और उनमें पुलिस की भूमिका की पड़ताल करने के लिए जो पहला जाँच आयोग बनाया उसके प्रमुख थे वेद मारवाह जो उस वक़्त दिल्ली पुलिस में अतिरिक्त आयुक्त थे। यानी ख़ुद ही मुलज़िम और ख़ुद ही मुंसिफ़।
जिस तरह तमाम आयोगों और समितियों और एसआइटी बनाने के बावजूद दंगा पीड़ितों को न्याय मिलते नहीं दिखा, उसे देखते हुए ये आशंका एकदम निराधार नहीं है कि क्या पेगासस का सच कभी सामने आ पाएगा? कई बार मज़ाक में और कई बार गंभीरता से भी कहा जाता है कि अगर किसी मुद्दे को ज़मींदोज़ करना हो, उस पर मिट्टी डालनी हो तो उसकी जाँच के लिए एक समिति या आयोग बैठा दो। मामला सालों साल चलेगा, लोग उकता जाएँगे और फिर भूल जाएँगे।
याद है तहलका का ऑपरेशन ईस्ट एंड जिसमें गुप्त वीडियो कैमरों के ज़रिए भारतीय जनता पार्टी के तत्कालीन अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण और रक्षामंत्री जॉर्ड फ़र्नांडिस की सहयोगी जया जेटली को हम सभी ने नोटों के बंडल सहर्ष स्वीकार करते हुए देखा। कितनों को याद होगा कि इसकी जाँच के लिए पाठक आयोग बैठाया गया था? कितनों को पता है कि पाठक आयोग की क्या सिफ़ारिशें थीं और उन सिफ़ारिशों का क्या हुआ? तहलका पत्रिका के इतने भारी स्टिंग ऑपरेशन की हवा निकाल दी गई।
ये बात ठीक है कि जाँच शुरू होने से पहले ही उसके नतीजों पर शक ज़ाहिर नहीं किया जाना चाहिए। लेकिन इतना तो स्पष्ट है कि सुप्रीम कोर्ट भी अपनी साख और गरिमा को बचाने की जद्दोजहद में लगा है। पिछले छह-सात बरस में सुप्रीम कोर्ट जितना विवादों में घिरा रहा और उसकी साख को जितना बट्टा लगा वैसा शायद भारतीय न्यायपालिका के इतिहास में पहले कभी नहीं हुआ।
पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई रिटायरमेंट के बाद भारतीय जनता पार्टी के सांसद बनकर राज्यसभा की शोभा बढ़ा रहे हैं। वो सुप्रीम कोर्ट के उन चार न्यायाधीशों में शामिल थे जिन्होंने पहली बार प्रेस कॉनफ़्रेंस करके कहा कि देश की सर्वोच्च अदालत को कुछ बाहरी ताकतें निर्देशित कर रही हैं।
इसके बाद एक के बाद एक करके सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे ऐसे विवादास्पद फ़ैसले दिए कि जिनसे लोगों के मुँह खुले के खुले रह गए। ये सवाल बार बार उठाया जाने लगा कि अगर न्यायपालिका सरकार की पालकी ढोने लगेगी तो जनता न्याय के लिए कहाँ जाएगी? इसलिए अगर पेगासस मामले में भी सरकार सुप्रीम कोर्ट से अपने पक्ष में फ़ैसला लेकर निकलती तो न्यायपालिका पर शक की एक और काली चादर चढ़ जाती।
इसलिए पेगासस की स्वतंत्र जाँच का आदेश देना सुप्रीम कोर्ट के लिए ख़ुद अपनी साख बचाने के लिए भी ज़रूरी था।
फ़िलहाल ये उम्मीद की जानी चाहिए कि नरेंद्र मोदी सरकार सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर इस जासूसी कांड की जाँच करने वालों को सभी दस्तावेज़ सौंप देगी, सभी ख़ुफ़िया जानकारियाँ दे देगी और अगर पेगासस से कोई सौदेबाज़ी हुई है तो उसके क़रारनामे भी मुहैया करवा देगी। आपको क्या लगता है, ऐसा हो पाएगा?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और बीबीसी रेडियो के पूर्व संपादक रहे हैं। लेख उनकी फ़ेसबुक पोस्ट से साभार।)
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