भारत सरकार का घाटा जीडीपी का एक तिहाई हुआ, अर्थव्यवस्था रसातल मेंः प्रो. अरुण कुमार

भारत सरकार का घाटा जीडीपी का एक तिहाई हुआ, अर्थव्यवस्था रसातल मेंः प्रो. अरुण कुमार

भारत की विकासदर रसातल में पहुंच गई है। भले ही मोदी सरकार या आरबीआई के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन कहते हों कि भारत सरकार का वित्तीय घाटा चार से पांच प्रतिशत के बीच हो लेकिन जाने माने अर्थशास्त्री अरुण कुमार का कहना है कि वित्तीय घाटा, सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी का 34% पहुंच चुका है।

वर्कर्स यूनिटी के डिजिटल प्लेटफॉर्म फेसबुक लाइव में ‘आर्थिक हालात और चुनौतियाँ’ विषय पर बोलते हुए मशहूर अर्थशास्त्री अरुण कुमार ने कहा- “कोरोना काल में लॉकडाउन केचलते उत्पादन पूरी तरह से रुक गया है। सिर्फ़ ज़रूरत के सामानों का ही उत्पादन हो पा रहा है। पूरी तरह से उत्पादन रुकने के कारण स्थिति युद्ध समय से भी बदतर है क्योंकि युद्ध के समय में भी उत्पादन पूरी तरह से नहीं रुकता। 2007 से 2009 के बीच आई ग्लोबल मंदी में हालात इतने बुरे नहीं थे, जितने कि अब हैं। सप्लाई और डिमांड भी पूरी तरह से खत्म हो गए हैं।”

ये एक मेडिकल इमर्जेंसी है और इससे निपटने के लिए लॉकडाउन लागू किया गया। लेकिन लॉकडाउन समाधाना नहीं है। लॉकडाउन सिर्फ़ समय देता है तैयारी का। ताकि पीक समय के लिए आप तैयार हो सकें।

अपने देश में पीक समय अक्टूबर-नवंबर में आएगा और उस समय दोबारा लॉकडाउन लगाना पड़ सकता है ताकि पीक नंबर को कम किया जा सके, जब वायरस दोबारा से अटैक करता है और ज़्यादा ख़तरनाक तरह से करता है जैसा कि हमने कुछ देशों के संदर्भ में देखा है।

जब संक्रमित रोगियों की संख्या मौजूदा बेडों की संख्या से ज़्यादा हो जाए तो सुसाइडल ब्रेकडाउन शुरु हो जाता है।

प्रवासी मजदूरों का रिवर्स माइग्रेशन

अरुण कुमार कहते हैं, “गरीब की आमदनी रुकती है तो वो भूख के कगार पर आ जाता है। लोग भूखे प्यासे हजारों किमी पैदल चलकर वापिस अपने गांव जाने को मजबूर हो जाते हैं। वापिस जाते मजदूर अपने गांव जाकर मरने की बात करते हैं। ये डर ही है जो समाज में व्याप्त हो गया है।”

गरीबी और असमान वितरण के चलते लॉकडाउन ने समाज के एक बड़े हिस्से को ज़्यादा प्रभावित किया है। पीने का साफ़ पानी तक नहीं होता उनके पास। पानी के लिए, खाने के लिए छोटी छोटी ज़रूरत के सामानों के लिए उन्हें निकलना पड़ता है।

शहरों में काम करने गए मजदूर एक छोटे से कमरे में 6-8 मजदूर रहते हैं। सरकार ने सोचा ही नहीं कि लॉकडाउन से इतनी बड़ी संख्या में पलायन होगा। ये सोचना चाहिए था कि लॉकडाउन में काम बंद होने से असंगठित क्षेत्र पर क्या असर होगा?

यह सोचना चाहिए था कि फिजिकल डिस्टेंसिंग कैसे होगी जब एक कमरे में 6-8 लोग रहते हैं? आप हाथ धोने की बात कर रहे हैं, उनके पास पीने का साफ़ पानी तक नहीं है, वो क्या करेंगे? वो रोज़ कमाकर खाते हैं तो लॉकडाउन में क्या करेंगे?

इसीलिए लॉकडाउन का जितना फ़ायदा मिलना चाहिए था, नहीं मिला। अब पता चल रहा है कि स्थिति कितनी खराब है। आठ मजदूर एक कमरे में चौबीसों घंटे नहीं रह सकते। बेहतर तो यही होता कि वो जहां थे उन्हें वहीं ज़रूरत का सामान पहुँचाया जाता। स्कूलों और तमाम खाली इमारतों में उनके रहने की व्यवस्था की जाती।

स्पेशलाइजेशन के चलते निर्भरता बढ़ी है

आधुनिक अर्थव्यवस्था में स्पेशलाइजेशन के चलते गांवों में भी निर्भरता बहुत बढ़ी है शहर तो पूरी तरह से निर्भर हैं ही। गांव वापिस जाकर भी मजदूरों के लिए खुद को ज़िंदा रख पाना बेहद मुश्किल होगा।

चीन ग्लोबल इकोनॉमी का हब बन गया है। तो जहां चीन में दिक्कत आई तो इसका प्रभाव हर जगह पड़ा। पूरी ग्लोबल सप्लाई चैन डिस्टर्ब हो जाती है तो उत्पादन भी मुश्किल हो जाता है। लॉकडाउन में मशीनें नहीं चलतीं, वर्कर काम पर नहीं जाता। तो इन्वेंट्री पर दबाव बढ़ जाता है।

हमारे देश की अर्थव्यावस्था के दो अभिन्न अंग हैं- संगठित और असंगठित क्षेत्र। असंगठित क्षेत्र में उपभोग और आमदनी कम होती है। जबकि संगठित क्षेत्र में बंधी आमदनी होती है।

संगठित क्षेत्रों में जैसे कि मीडिया में 10-50 प्रतिशत वेतन कटौती की गई है, बड़े पैमाने पर छंटनी भी हुई है। रियल स्टेट और दूसरे सेक्टर में भी ऐसा हो रहा है। ज़ाहिर है सेविंग होने के बावजूद उपभोग में कटौती होगी।

वित्तीय क्षेत्र में संकट से पूरी अर्थव्यवस्था डूब जाती है

प्रोफेसर अरुण कुमार फाइनेंशिय क्षेत्र के संकट पर बात करते हुए कहते हैं, “जिनका लोन ज़्यादा होगा उनका ब्याज भी ज़्यादा बढ़ेगा। फाइनेंशियल क्षेत्र में संकट आने से अर्थव्यवस्था डूब जाती है। क्योंकि लोन का भी एक पूरा चेन होता है। एक दूसरे को नहीं देगा तो दूसरा तीसरे और तीसरा चौथे को नहीं दे पाएगा। 2008 में अमेरिका का बड़ा बैंक ‘लीमन ब्रदर्स’ ऐसे ही डूबा था।

सरकार ने मोरेटोरियम (समय की छूट) दिया है पर समस्या ये है कि यदि उद्योग रिस्टार्ट करना चाहेंगे तो लोन नहीं मिलेगा क्योंकि इसके बट्टा खाते में जाने का डर है।

छोटे उद्योग दिवालिया होंगे क्योंकि इनके पास बड़ी पूंजी (वर्किंग कैपिटल) नहीं होती। लॉकडाउन में वो छोटी बचत का इस्तेमाल उपभोग में करेंगे तो लॉकडाउन खत्म होने के बाद उद्योग को दोबारा खड़ा करने के लिए उनके पास वर्किंग कैपिटल नहीं होगी।

इसकी पूरी चेन होती है, प्रोडक्शन- वर्कर्स- इनकम- डिमांड- इन्वेस्टमेंट (उत्पादन-मज़दूर-आमदनी-मांग-निवेश)

इस तरह यदि निवेश बंद हो जाएगा तो उत्पादन भी बंद हो जाएगा। केंन्द्रीय बैंक की नीति अप्रभावी हो जाएगी। देखिए इस समय तमाम बैंक के पास लिक्विड फंड हैं। तो वो इसे रिजर्व बैंक के पास जमा करा देते हैं इससे उन्हें रिवर्स रेपो रेट के ज़रिए ब्याज मिल जाएगा।

रिज़र्व बैंक कह रहा है कि इस पैसे को कंपनियों को दो, वो इसे इन्वेस्टमेंट में लगाएंगी। लेकिन बैंक जानते हैं कि कंपनियों में इन्वेंस्टमेंट के बाद इनकम नहीं होगा और ये पैसा एनपीए में बदल जाएगा इसलिए वो कह रही हैं कि डिमांड नहीं है।

जितनी तेज़ गिरवाट उतनी तेज रिकवरी नहीं

रिकवरी पर बात करते हुए अरुण कुमार कहते हैं कि अमेरिका में 4.5 करोड़ लोगों की नौकरी गई है। भारत में 12.2 करोड़ नौकरियां अप्रैल तक गईं ये बात कही जा रही है। यदि इसमें असंगठित क्षेत्रों को भी जोड़ लें तो आँकड़ा 20-22 करोड़ के ऊपर चला जाता है।

बड़े पैमाने पर आर्थिक नुकसान होने और नौकरियां जाने के कारण आम जनता की तरफ से मांग नहीं आएगी। इसी वजह से आरबीआई ब्याज़ दरें घटा कर भी नए लोन देने में अधिक सफल नहीं रहेगा।

भारत की अर्थव्यवस्था मुख्यतौर पर घरेलू बाज़ार पर निर्भर है। भारतीय अर्थव्यवस्था 95% घरेलू बाज़ार पर और 5% विदेशी निवेश पर निर्भर करती है।

लॉकडाउन की वजह से घरेलू मांग बुरी तरह प्रभावित हुई है और विदेशी निवेश भी नहीं आ रहा है। आने वाले समय में V शेप रिकवरी नहीं बल्कि U शेप रिकवरी होगी। यानि जितनी तेज गिरावट आर्थिक मोर्चे पर आई है, उतनी तेज़ रिकवरी नहीं होगी। इससे कम से कम एक साल या उससे अधिक का समय लग सकता है।

200 लाख करोड़ (दो ट्रिलियन) की इकोनॉमी लॉकडाउन में घटकर 130 लाख करोड़ की हो गई है जबकि जीएसटी कलेक्शन करीब 10% ही हो रहा है। अर्थव्यवस्था में 75% की कटौती हुई है और फिलहाल लॉकडाउन के बीच अर्थव्यवस्था 25% ही काम कर रही है। ऑटोमोबाइल और रियल एस्टेट सेक्टर सबसे अधिक प्रभावित हैं।

कृषि क्षेत्र संभालना है तो ट्रांसपोर्ट बढ़ाए सरकार

कृषि क्षेत्र के संकट पर बात करते हुए अर्थशास्त्री अरुण कुमार कहते हैं कि भारत की कुल आबादी का 58 फ़ीसदी हिस्सा खेती पर निर्भर है और देशी की अर्थव्यस्था में 256 बिलियन डॉलर का योगदान है।

ऐसे में दो हज़ार रुपये की मदद पर्याप्त नहीं है क्योंकि निर्यात ठप हो चुका है, शहरी क्षेत्रों में कीमतें बढ़ेंगी क्योंकि मांग बढ़ रही है और ग्रामीण क्षेत्र में कीमतें गिरेंगी क्योंकि किसान अपनी फसल बेच नहीं पाएंगे।

यह संकट बेहद गंभीर समय में आया है, जब नई फसल तैयार है और बाज़ार भेजे जाने के इंतज़ार में है। भारत जैसे देश में जहां लाखों लोग गरीबी में जी रहे हैं, विशेषज्ञों का मानना है कि भारत के सामने सबसे बड़ी चुनौती होगी कि कठिन लॉकडाउन की स्थिति में गांवों से खाने-पीने की ये चीज़ें शहरों और दुनिया के किसी भी देश तक कैसे पहुंचेंगी।

अगर सप्लाई शुरू नहीं हुई तो खाना बर्बाद हो जाएगा और भारतीय किसानों को भारी नुकसान झेलना पड़ेगा। प्रो अरुण कुमार का कहना है कि खाली खड़े पब्लिक ट्रांसपोर्ट का प्रयोग गांव की अर्थव्यवस्था संभालने में हो सकता है।

सरकार अपना बजट दोबारा बनाए

प्रो. अरुण कुमार कहते हैं कि सच तो ये है कि हमारे पास संसाधन नहीं हैं। जो हैं उससे बस ज़िंदा रहने की गुंजाइश भर है। इसलिए इस समय हमें इकोनॉमिकल रिवाइवल (अर्थव्यवस्था को फ़िर से ज़िंदा करने) से अधिक सर्वाइवल (ज़िंदा बने रहने) के बारे में सोचना होगा।

पर सरकार ने जो राहत पैकेज के नाम पर दिया है वो भी सर्वाइवल के पैसे नहीं हैं, वो लोन चुकाने के लिए दिए गए पैसे हैं।

सरकार को अपने संसाधनों का इस्तेमाल लोगों के खाने पीने और मेडिकल सुविधाओं पर खर्च करने चाहिए।

साथ ही 6 करोड़ कुटीर उद्योगों को उबारने के लिए उनको सहायता देने का प्रयास करना चाहिए। सरकार को अपने खजाने का इस्तेमाल धारावी जैसी तंगहाल जगहों में लोगों को डिकंजस्ट (आबादी का घनत्व कम) करने में लगाना चाहिए।

उनका पार्कों या शेल्टर होम्स में रहने का इंतजाम करना चाहिए। जो लोग जहां पर मौजूद हैं उनके खाने पीने और मेडिकल की सुविधा का इंतजाम होना चाहिए।

अर्थव्यवस्था ब्रेकडाउन की स्थिति में हैं तो ऐसे में सरकार के लिए अपने खर्चों (जैसे कि अपने कर्मचारिय़ों को सैलरी आदि देने) को निकालने में भी दिक्कत होने वाली है।

अंत में प्रोफ़ेसर अरुण कुमार ने कहा कि सरकार के पास आने वाले समय में कुछ महीनों तक सैलरी देने लायक भी पैसा नहीं होगा।

ऐसे में सरकारी कर्मचारियों को सैलरी कट के लिए तैयार रहना होगा। साथ ही बेहतर होगा सरकार अब कोरोना काल को देखते हुए अपने बजट को दोबारा बनाए।

(वीडियो से रूपांतरणः सुशील मानव)

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