देशभर की जेलों में कुल 4,88,511 कैदी हैं बंद, 73% दलित,आदिवासी व ओबीसी

देशभर की जेलों में कुल 4,88,511 कैदी हैं बंद, 73% दलित,आदिवासी व ओबीसी

By प्रेमसिंह सियाग

देशभर की जेलों में कुल 4,88,511 कैदी बंद हैं और इनमें से 3,71,848 कैदी विचाराधीन हैं। विचाराधीन कैदियों में लगभग 20% मुस्लिम हैं, लगभग 73% दलित,आदिवासी व ओबीसी हैं।

इन कैदियों में 24%दोषी व 76%विचाराधीन कैदी है। विचाराधीन कैदियों में से 68% निरक्षर है या स्कूली शिक्षा छोड़ चुके लोग हैं।

ये वो गरीब लोग है जो अपना ठीक से वकील नहीं कर पाते,ढंग से अपनी पैरवी नहीं कर सकते। संसाधनों के अभाव में जमानत न दे पाने के कारण भी कई कैदी रिहा नहीं हो पाते है।

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विचाराधीन कैदियों को वर्षों तक जेल में रखना मानवाधिकारों का हनन है। दशकीय आधार पर दोष सिद्धि के आंकड़ों पर गौर किया जाएं तो पूर्वोत्तर के कुछ राज्यों को छोड़कर बाकी सारे राज्यों में 50% या उससे कम ही दोषी साबित हुए है।

उदाहरण स्वरूप 2014 के दोष सिद्धि के आंकड़ों को उठाएं तो असम में कुल दर्ज मामलों में से सिर्फ 13.1% व बिहार में मात्र 10 फीसदी मामलों में ही अभियुक्तों को दोषी ठहराया जा सका था।

दशकीय रिपोर्ट जो खुद केंद्रीय गृहमंत्री ने लोकसभा में एक सवाल के जवाब में रखी थी उसको देखकर यह समझा जा सकता है कि 50% के लगभग निर्दोष जेलों में पड़े रहते है जिनको बाद में अदालतें सबूतों के अभाव में या बाइज्जत बरी कर देती है।

गरीबों पर दर्ज किए जातें हैं फर्जी मुकदमों

सबको पता है पुलिस राज्यों का विषय है व राजनैतिक दबाव पुलिस तंत्र पर हावी रहता है। भ्रष्ट व बेईमान लोग पैसे के बल पर तंत्र में सेंध लगाकर गरीबों को फर्जी मुकदमों में फंसाते है।पुलिस के खाली पड़े पद भी एक समस्या है लेकिन सबसे बड़ी समस्या भारत का न्यायतंत्र है जहां से बड़ी मछलियां बेहतर पैरवी से बाहर निकल लेती है और गरीब जेलों में सड़ता रहता है।

जमानत पाना अभियुक्त का अधिकार है लेकिन इतनी बड़ी संख्या में विचाराधीन कैदियों का वर्षों तक जेलों में रहना और तकरीबन 50% बाद में निर्दोष साबित हो जाना हमारे न्यायतंत्र को कठघरे में खड़ा करता है।

ग़ैरक़ानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम (यूएपीए) जैसे कानून तो अदालतों के ऊपर नियंत्रण करके जेलों में ठूंसे रहने के हथियार बना लिए गए है!

यूएपीए के तहत वर्ष 2016 से 2020 के बीच 24,134 लोगों को गिरफ़्तार किया गया, जिनमें से केवल 212 के ख़िलाफ़ ही दोष सिद्ध हो सके। इसके प्रावधान आरोप झेल रहे लोगों के लिए ज़मानत पाना लगभग असंभव बना देते हैं। परिणामस्वरूप, ज़्यादातर लोग लंबे समय तक जेलों में विचाराधीन क़ैदियों के रूप में पड़े रहते हैं।

हर सप्ताह किसी न किसी अदालत से निर्दोष साबित होकर वर्षों बाद रिहा होते लोगों की खबरें छपती है।

कई मामलों में तो एक दशक से भी ज्यादा समय जेलों में कट गया होता है। पूरा परिवार बर्बाद हो जाता है,समाज परिवार से मुँह मोड़ लेता है,रिश्ते-नाते खत्म हो जाते है,जवानी जेलों में कट जाती है। सब कुछ बर्बाद होने के बाद अदालत निर्दोष बताकर रिहा करती है।ऐसे लोग बाहर आकर अपनी जिंदगी कैसे शुरू करें उनके लिए कोई व्यवस्था नहीं है।

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WU Team

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