बेलसोनिका: घायल मज़दूर की मदद के लिए सामने आए मज़दूर व यूनियन, आर्थिक मदद के तौर पर दिए 1,30,050 रुपए
मारुति की कंपोनेंट मेकर कंपनी बेलसोनिका के एक कैजुअल मजदूर संतोष बीते 7 सितम्बर को सड़क दुर्घटना में गंभीर रूप से घायल हो गए थे। आर्थिक रूप से कमज़ोर होने के कारण उनके परिवार वालों ने गुड़गांव और दिल्ली के कई अस्पतालों के चक्कर काटे थे। फ़िलहाल उनका इलाज दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में चल रहा है।
संतोष ने बीते तीन महीने पहले ही कंपनी में काम करना शुरू किया था। जिसके कारण उनको ESI की सुविधा नहीं मिल पाई। इस समस्या को ध्यान में रखते हुए बेलसोनिका मज़दूरों ने यूनियन से संतोष की आर्थिक मदद करने के लिए चंदा इक्कठा करने की मांग की थी।
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यूनियन ने मज़दूरों की इस मांग पर अमल किया और फैक्ट्री में काम करने वाले प्रत्येक मज़दूर से चंदे के तौर पर 100 रुपए देनें को कहा था।
मंगलवार बेलसोनिका यूनियन के प्रधान मोहिंदर कपूर और अन्य दो सदस्य परमानंद व रमेश प्रसाद चौधरी ने संतोष से दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल मुलाकात की। साथ ही आर्थिक मदद के तौर पर 1,30,050 रुपए इलाज के लिए दिए हैं। जिस वक्त ये राशि संतोष को दी जा रही थी उस समय उनकी बहन नीतू और छोटा भाई विकास वहां मौजूद थे।
उधार लेकर हो रहा है इलाज
संतोष का कहना है कि ‘बेलसोनिका मज़दूरों द्वारा की गयी आर्थिक मदद के लिए मज़दूरों और यूनियन दोनों को धन्यवाद करना चाहता हूँ कि इस परेशानी के समय में उन्होंने मेरी मदद की है।’
उन्होंने बताया कि ‘मेरी एक आंख का ऑपरेशन दो बार हो चुका है। जिसके लिए परिवारवालों ने बड़ी मात्रा में रुपए उधार लिए हैं। बेलसोनिका मज़दूरों द्वारा की गयी आर्थिक मदद से मैं अपने आगे के इलाज को बिना कर्ज लिए करवा पाऊंगा।’
बेलसोनिका यूनियन का कहना है कि “यूनियन बेलसोनिका फैक्ट्री में कार्य करने वाले हर मज़दूर को अपना साथी मानती है। क्योंकि हमारा वर्ग मजदूर वर्ग है। हमारी यूनियन पहले भी अपनी क्षमताभर योगदान कर मजदूरों की सहायता करती आई है।
इससे पहले यूनियन ने फैक्ट्री की कैंटीन में काम करने वाले ठेका मज़दूर करन की आर्थिक मदद की थी। करन का बायां हाथ कैंटीन में आंटा गूथने वाली मशीने में आने की वजह से टूट गया था।
यूनियन का कहना है कि इस साथी की स्थिति को देखते हुए यूनियन व समस्त मजदूर साथियों द्वारा आर्थिक सहायता का फैसला लिया था। भविष्य में भी यूनियन अपनी क्षमताभर प्रयास जारी रखेगी।
साथ ही यूनियन ने संतोष की आर्थिक मदद करने वाले सभी मज़दूर साथियों का तहेदिल से धन्यवाद किया है।
प्रबंधन ने झाड़ लिया था पल्ला
आप को बता दें कि जब 8 सितम्बर को ESI अस्पताल में संतोष को इलाज के लिए एडमिट करवाने ले जाया गया था तो वहां मौजूद डॉक्टरों का कहना था कि इस ठेका मजदूर संतोष को कंपनी में काम करते हुए अभी छह महीने नहीं हुए हैं। इसलिए इनको इस इलाज में ईएसआई से सुविधा नहीं मिल सकती है।
उनका कहना था कि नियमों के अनुसार छह महीने तक की नौकरी के बाद ही मज़दूर इस स्थिति में ईएसआई की सुविधा का लाभ उठा सकता है।
जब इस बात की जानकारी प्रबंधन और ठेकेदार को दी गए तो उनका भी यही कहना था कि अभी संतोष को फैक्ट्री में काम करते हुई केवल ढाई महीने ही हुए हैं, इसलिए हम कोई मदद नहीं कर सकते हैं।
इसके बाद संतोष के परिजन उनको एक प्राईवेट अस्पताल में ले गए, जहां से उसे दिल्ली के मैक्स हॉस्पिटल में रेफर कर दिया गया। वहां इलाज इतना महंगा है कि परिजनों को संतोष की जान बचाने के लिए कर्ज तक लेना पड़ गया। संतोष के इलाज में अभी तक लाखों रुपए खर्च हो चुके हैं।
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क्यों परेशान हैं ठेका मज़दूर
गौरतलब है कि फैक्टियों में छह-छह महीने के लिए कैजुअल, ठेका वर्करों की भर्ती हो रही है उन्हें मिलने वाली सामाजिक सुरक्षा खत्म हो रही है। जब वर्कर को छह महीने में निकाल दिया जाता है तो वो ईएसआई में इलाज कैसे करा पाएगा। ये मजदूर मजबूरी में 14-15 हजार के लिए अपनी जान दांव पर लगा कर कार्य कर रहे हैं।
कैजुअल, ठेका मजदूर ऐसे सस्ते मजदूर हैं जिनके घायल होने या मारे जाने के बाद उनकी जगह दूसरे ठेका मजदूर को भर्ती कर लिया जाता है और कंपनी उसकी जिम्मेदारी लेने से ठेकेदार का हवाला देकर अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाती है और ठेकेदार मामले को रफा दफा कर देते हैं। इन सभी मामलों से प्रबंधन को कोई फर्क नहीं पड़ता है। क्योंकि जिस मशीन पर ठेका मज़दूर काम करते हैं वहां पर दूसरे सस्ते ठेका मज़दूर को लगा दिया जाता है। ऐसे मजदूरों को ही फोकट के मजदूर बोला जाता है जिसका मालिक नए लेबर कोड्स लागू होने के बाद बेसब्री से इंतजार कर रहे है।
अगर सामाजिक सुरक्षा की बात करें तो जिस लेबर कोड को मोदी सरकार तत्काल लागू करने की कोशिश कर रही उसके आने के बाद सामाजिक सुरक्षा के सभी मानक खत्म हो जायेंगे। इन नए लेबर कोड के विरोध में देशभर की ट्रेड यूनियनों ने लगातार विरोध जारी रखा है।
ठेका मज़दूरों के लिए एक और बड़ी समस्या कि उनको यूनियन का सदस्य नहीं बनाया जाता है। जिस वजह से वह अपने अधिकारों की लड़ाई नहीं लड़ सकते हैं और लगातार प्रबंधन द्वारा किये जाने वाले शोषण का शिकार होते रहे हैं। मानेसर में कुछ यूनियनों ने ठेका मज़दूरों को यूनियन की सदस्यता दी है, लेकिन उनको भी कई तरह के विरोधों का सामना करना पड़ रहा है।
(स्टोरी संपादित-शशिकला सिंह)
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