महंगा iphone, ‘सस्ते’, भूखे और शोषित प्रवासी मजदूर
By मुकेश असीम
अमरीकी कंपनी एप्पल दुनिया की सबसे अमीर कंपनी है। शेयर बाजार द्वारा इसका मूल्य 3 ट्रिलियन डॉलर (225 लाख करोड़ रु) लगाया जा चुका है। सिर्फ चार देश ऐसे हैं जिनकी सालाना जीडीपी इससे अधिक है।
भारत की मोदी सरकार द्वारा आर्थिक तेजी के सारे दावों के बावजूद इस साल भारत की कुल जीडीपी लगभग 147 लाख करोड़ रु ही रहने वाली है। सिर्फ यह शेयर बाजार की कीमत ही क्यों, इस कंपनी के पास खरबों डॉलर की नकदी भी मौजूद है जिसे यह उन देशों में रखती है जहां इसे ज़ीरो या बहुत कम टैक्स चुकाना पड़ता है।
एप्पल सबसे महंगा फोन आई फोन बेचती है। इसके अन्य उत्पाद जैसे आईपैड, लैपटॉप व कंप्यूटर, आदि भी बहुत महंगे होते हैं और इसे पूंजीवादी मीडिया में डिजाइन, उत्पादन व मार्केटिंग की उत्कृष्टता के प्रतीक के तौर पर प्रस्तुत किया जाता है।
ये भी पढ़ें-
- सिंगापूर में सुरक्षित नहीं प्रवासी भारतीय कामगार: क्रेन से कुचले जाने पर मज़दूर की मौत, साल की 27वीं घटना
- सिंगापूर: प्रवासी मजदूरों को अपने हॉस्टल से बाहर निकलने के लिए अब नहीं लेना होगा पास
इसके संस्थापक मुख्य प्रबंधक स्टीव जॉब्स को भी कंपनी को इस ऊंचाई पर पहुंचाने के लिए प्रतिभा व परिश्रम के लिए को युवाओं के प्रेरणा स्रोत के रूप में अत्यंत प्रचार मिला है। लब्बोलुआब यह कि इस कंपनी को पूंजीवादी प्रणाली की श्रेष्ठता व सफलता के शिखर प्रतीक के रूप में पेश किया जाता रहा है। आइए, इस कामयाबी के पीछे का मुख्य रहस्य जानते हैं।
दिसंबर 2021 में एक छोटी सी खबर आई कि आई फोन बनाने वाली तमिलनाडु की एक फैक्टरी में इसे चलाने वाली कंपनी द्वारा श्रमिकों के लिए बने रैन बसेरों में दिए जाने वाले घटिया भोजन से हुई फूड प्वाइजनिंग के कारण 159 मजदूरों के बीमार होकर अस्पताल में भर्ती कराए जाने और तत्पश्चात मजदूरों द्वारा विरोध के बाद कारखाने को बंद करना पड़ा है।
यह कारखाना फॉक्सकोन नामक कंपनी का था। एप्पल अपने उत्पाद खुद बनाने के बजाय मुख्यतः ताइवान की कंपनी फॉक्सकोन व कुछ अन्य छोटी कंपनियों से ठेके पर (आउटसोर्स) बनवाती है। फॉक्सकोन इसे और एप्पल के लैपटॉप, आईपैड, आदि उत्पाद अधिकांशतया चीन में बनाती रही है।
अब मोदी सरकार मेक इन इंडिया के अंतर्गत इस ठेके पर उत्पादन के काम को बहुत से प्रोत्साहनों के जरिए भारत में लाने की कोशिश में लगी है। इसके लिए देशी-विदेशी पूंजीपतियों को सीधे नकद प्रोत्साहन राशि, सस्ती जमीनों, टैक्स व शुल्क रियायतों के साथ ही साथ श्रम कानूनों में मजदूरों द्वारा हासिल सभी अधिकारों को समाप्त कर उनके अत्यधिक शोषण की खुली छूट का वादा भी किया जा रहा है। इस लाभ से आकर्षित होकर फॉक्सकोन ने भी तमिलनाडु के स्रीपेरूंबुदूर में एक कारखाना लगाया है।
ये भी पढ़ें-
- आईफ़ोन बनाने वाले फॉक्सकान वर्करों का गुस्सा क्यों फूटा?
- विस्ट्रॉन: क्षुब्ध श्रमिकों का स्वयंस्फूर्त विद्रोह-1
मज़दूरों के हालत
सिपकोट इन्डस्ट्रीअल एरिया के इस कारखाने में 16 हजार श्रमिक काम करते हैं जिसमें से 11 हजार स्त्री मजदूर हैं। इन मजदूरों के रहने के लिए कंपनी ने स्रीपेरूंबुदूर में 17 रैन बसेरे बनाए हैं जिनकी पूरी व्यवस्था कंपनी के नियंत्रण में ही है।
ताइवान की ही एक और कंपनी विस्ट्रोन इंफ़ोटेक ने भी कर्नाटक में आई फोन का निर्माण आरंभ किया है। विस्ट्रोन की यह इकाई कोलार के नरसापुर औद्योगिक क्षेत्र में स्थित है जहाँ उसे 2900 करोड़ रु के निवेश व 10 हजार रोजगार सृजन के आधार पर 43 हेक्टेयर जमीन दी गई है।
मगर एप्पल के ये महंगे उत्पाद बनाने वाली इन दोनों ही कंपनियों में मजदूरों का तजर्बा बेहद शोषण-उत्पीड़न भरा रहा है।
मजदूरी के भुगतान न होने या विलंब से होने, 12 घंटे की शिफ्ट, भोजन व शौचालय विश्राम में कटौती, छुट्टी के दिन बिना भुगतान के काम के लिए मजबूर करना, मजदूरी की रकम काटने के लिए हाजिरी में हेराफेरी और ऐसी ही अन्य समस्याओं के चलते विस्ट्रोन की फ़ैक्टरी के हजारों मजदूर 12 दिसंबर 2020 की सुबह रात्रिकालीन शिफ्ट की समाप्ति के वक्त विरोध में उठ खड़े हुये। पर प्रबंधन ने तब भी उनकी शिकायतों पर गौर करने से इंकार कर दिया तो उनका लंबे समय से दबा हुआ गुस्सा विस्फोट के रूप में फूट पड़ा जिसका निशाना फैक्टरी का फर्नीचर व मशीनें बनीं।
ठीक एक साल पहले जनवरी 2021 के अंक में हमने विस्ट्रोन के क्षुब्ध श्रमिकों के इस स्वयं स्फूर्त विद्रोह पर एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी।
मज़दूरों के जीवन पर कंपनी का नियंत्रण
अगर हम फॉक्सकोन के कारोबारी मॉडल पर ध्यान दें तो भारत में ही नहीं चीन में भी उसका पूरा मॉडल प्रवासी श्रमिकों पर आधारित है। इसके कारखानों में काम करने वाले इन प्रवासी मजदूरों को इसके ही बनाए रैन बसेरों में रहना होता है।
इस तरह कंपनी इन प्रवासी श्रमिकों के जीवन पर पूरा नियंत्रण रखती है और उनके सुबह उठने, तैयार होने, नाश्ते, काम से रात्रि भोजन व सोने के समय तक पर उसका पूरा दखल रहता है।
यह मॉडल इस कंपनी का अपना नहीं है बल्कि खुद एप्पल के साथ समझौते के अंतर्गत बनाया गया है क्योंकि अंततः इससे कमाए जाने वाले भारी मुनाफे का सर्वाधिक हिस्सा एप्पल को ही मिलता है।
कैसे हैं रैन बसेरों के हालात
एप्पल की प्रचारित नीति के अनुसार प्रवासी मजदूरों के लिए एक न्यूनतम जीवन स्तर सुनिश्चित किया जाता है। इसके अनुसार रैन बसेरे के एक शयनकक्ष में 8 से अधिक श्रमिक नहीं रहने चाहिए, उनमें से हरेक को 3 वर्ग मीटर का व्यक्तिगत स्थान उपलब्ध होना चाहिए, हर 15 श्रमिकों पर एक शौचालय व स्नानघर होना चाहिए, पीने का पानी हर शयनकक्ष के 200 फुट के अंदर उपलब्ध होना चाहिए और भोजन पकाने के स्थान पर पर्याप्त सफाई की व्यवस्था होनी चाहिए, इत्यादि।
ये न्यूनतम स्तर कितने बदतर हैं इसे समझने के लिए 3 वर्ग मीटर स्थान की बात को समझना ही काफी है क्योंकि इसका अर्थ मात्र 2-1.5 मीटर होता है जिसमें सोने के लिए एक छोटा तख्त डालने के बाद मुश्किल से ही कुछ चलने लायक जगह बचती है।
लेकिन वास्तविकता इससे भी कहीं अधिक बदतर है। भारत हो या चीन या अन्य देशों के इन रैन बसेरों में पाया गया है कि इस 3 वर्ग मीटर में भी ऊपर-नीचे दो मंजिले बिस्तर होते हैं और कई बार इन्हें भी मजदूर शिफ्ट में प्रयोग करते हैं अर्थात दिन में एक और रात में दूसरा।
ये भी पढ़ें-
- बैंगलुरु आईफ़ोन मेकर कंपनी ने नुकसान के बारे में झूठ बोला था?
- बैंगलोर आईफ़ोन घटनाः बीजेपी को मज़दूरों की सैलरी से अधिक उद्योगपतियों के मुनाफ़े की चिंता
जांच होने पर फॉक्सकोन के स्रीपेरूंबुदूर के रैन बसेरों में तो एक कमरे में 25-30 मजदूर तक रहते पाए गए तथा भोजन की व्यवस्था बिना साफ-सफाई वाली व घटिया गुणवत्ता की थी।
अब मजदूरों के विरोध के बाद एप्पल और फॉक्सकोन ने कहा है कि उन्होंने इन रैन बसेरों का ऑडिट कराया है और वे रहने, शौचालय-स्नानघर व खाने की व्यवस्था में सुधार कर रहे हैं। इसके बाद तमिलनाडु सरकार और खुद मुख्यमंत्री एम के स्टालिन ने कारखाने को दोबारा खोलने की अनुमति दे दी है किंतु घटिया खाने के द्वारा इतने मजदूरों की जान खतरे में डालने के जिम्मेदारों पर आपराधिक कार्रवाई की अब तक कोई पुष्टि नहीं हुई है।
फॉक्सकोन चीन में निजी क्षेत्र में सबसे अधिक श्रमिकों वाली कंपनी है और वहां भी इसके द्वारा मजदूरों के गहन शोषण की खबरें आती रही हैं जिनमें काम के लंबे घंटे, काम की अत्यंत तेज गति, छोटे भोजन व शौचालय ब्रेक, रहने-खाने की घटिया व्यवस्था और जीवन पर कंपनी का पूर्ण नियंत्रण शामिल है।
2010 में एक के बाद के कई मजदूरों ने इन रैन बसेरों से कूद कर अपनी जान दे दी थी जिसके बाद फॉक्सकोन के साथ ही एप्पल की भी बड़ी आलोचना हुई थी। एप्पल ने तभी ये उपरोक्त बताए गए कुछ न्यूनतम स्तर तय किये थे, मगर स्पष्ट है कि ये न्यूनतम जीवन स्तर सिर्फ प्रचार वास्ते हैं, वास्तविकता नहीं।
बीमार हो रहे हैं मज़दूर
प्रवासी मजदूरों को इस तरह रखने की यह व्यवस्था भयंकर शोषण व उत्पीड़न की व्यवस्था है और अमीर लोगों के लिए महंगे सामान औटसोर्सिंग के जरिए बनवाने वाली दुनिया की सभी नामी कंपनियां इस व्यवस्था के लिए कम मजदूरी पर ऊंची उत्पादकता अर्थात ऊंचे बेशी या अधिशेष मूल्य के लिए इसे अपनाती हैं।
इलेक्ट्रॉनिक्स, वस्त्र, जूता, बैग, लग्जरी आइटम, आदि उद्योग जहां अधिक श्रम की जरूरत है वहां सभी जगह यह पद्धति अपनाई जा रही है चाहे भारत हो या चीन, बांग्लादेश, वियतनाम, फिलीपींस, या अफ्रीकी देश।
इस प्रकार मजदूरों से लंबे घंटे काम कराया जाता है, उन्हें शौचालय और भोजन तक के लिए पर्याप्त समय नहीं दिया जाता जिससे खास तौर पर स्त्री श्रमिकों को कुछ ही समय बाद स्वास्थ्य की गंभीर व बेहद दर्दनाक समस्याओं का सामना करना पड़ता है।
महिला मजदूरों का हो रहा यौन शोषण
कर्नाटक, तमिलनाडु के ऐसे उद्योगों से ये रिपोर्टें भी हैं कि शाम को काम से इन रैन बसेरों में ले जाकर मजदूरों को बंद कर दिया जाता है और किसी से मिलने भी नहीं दिया जाता।
इन स्थितियों में खास कर महिला मजदूरों को यौन शोषण का भी सामना करना पड़ता है। रहने-खाने की पूरी व्यवस्था मालिकों के हाथ में होती है जिसके एवज में कंपनी द्वारा एक निश्चित मनमानी राशि भी मजदूरी से काट ली जाती है और घटिया इंतजाम के जरिए उसमें से भी मुनाफा निकाल लिया जाता है। साथ ही उन्हें किसी भी प्रकार से संगठित होकर अपने साथ हो रहे अन्याय शोषण के खिलाफ आवाज उठाने से भी रोक दिया जाता है।
समय पर नहीं मिलता वेतन
इस प्रकार की व्यवस्था का एक और पहलू है समय पर मजदूरी का भुगतान न किया जाना। इस श्रम मॉडल में कंपनी सप्ताह या महीना जैसे नियमित अंतरालों पर मजदूरी का भुगतान करने के बजाय साल के अंत या घर जाने जैसे निश्चित वक्त पर ही मजदूरी का हिसाब करता है।
चीन में तो व्यवस्था ही ऐसी है कि चीनी नववर्ष जैसे दो-तीन अवसरों पर एक साथ गाँव जाने के लिए 8-10 दिन की छुट्टी मिलती है तभी मजदूरी का हिसाब किया जाता है। उसमें भी कई बार छोटी-मोटी बातों के लिए कुल रकम में से कई किस्म की कटौती कर ली जाती है।
मजदूरी की रकम भी हाथ में न आकर मालिक के पास रहने से मजदूरों के लिए अपनी मर्जी से काम छोड़ना तक मुमकिन नहीं होता। कई बार इस हिसाब के वक्त भी कुछ पैसा रोक लिया जाता है जिससे मजदूर को फिर लौटकर वहीं आना मजबूरी बन जाए।
भारत में भी असंगठित क्षेत्र में तो भुगतान न होने या अटके रहने की यह समस्या पहले रही है पर संगठित क्षेत्र में यूनियनों द्वारा मजदूर आंदोलन के जरिए इस पर रोक लगी थी पर अब इन यूनियन रहित संगठित क्षेत्र के उद्योगों में भी मजदूरों को इस समस्या का सामना करना पड़ रहा है।
चीन में मज़दूरों के और बुरे हालत
चीनी श्रमिकों के लिए तो समस्या और भी गंभीर है क्योंकि एकमात्र ट्रेड यूनियन शासक पार्टी की ट्रेड यूनियन है। मजदूर अपनी यूनियन नहीं बना सकते। इसकी वजह से मजदूरी के भुगतान की समस्या इतनी अधिक बढ़ गई है कि खुद शी चिनफिंग को इस पर बोलना पड़ा है।
चीन के सरकारी पीपल्स डेली के अनुसार 1 दिसंबर 2021 को चीनी प्रधान मंत्री ली केखियांग की अध्यक्षता में हुई स्टेट कौंसिल की एक्जीक्यूटिव (मंत्रिमंडल) बैठक में इस पर विचार कर बयान जारी किया गया कि अब मजदूरी भुगतान वाला साल का अंत आ रहा है अतः चीन सरकार सर्दी के मौसम में श्रमिकों की बकाया मजदूरी के पूर्ण व अंतिम भुगतान के लिए विशेष अभियान चलाएगी क्योंकि चीन के 29 करोड़ प्रवासी श्रमिकों की मजदूरी उनके परिवारों व ग्रामीण जनता की आय का एक अहम हिस्सा है और इसके बकाया रहने से उनका जीवन स्तर गिरता है। खास तौर पर निर्माण प्रोजेक्ट्स में उप-ठेकेदारों के जरिए मजदूरी भुगतान में बकाया निपटाने के लिए ऑडिट कराया जाएगा और कानून का उल्लंघन करने वालों को सजा दी जाएगी।
आगे कहा गया कि सरकारी संस्थानों और राज्य मालिकाने वाले उपक्रमों को बकाया मजदूरी का पूरा भुगतान कर उदाहरण पेश करना चाहिए। पर इसी से यह भी पता चल जाता है कि क्यों विश्व भर के बड़े पूंजीपति अपना माल आउटसोर्सिंग के जरिए चीन में ही बनवाना पसंद करते हैं और क्यों मोदी सरकार 4 नए लेबर कोड के जरिए श्रमिक अधिकारों पर डाक डालकर इन पूंजीपतियों को भारत में अपना माल बनवाने के लिए आकर्षित करने का प्रयास कर रही है।
हमने ये आंकड़े देखें हैं कि श्रम शक्ति के इतने गहन शोषण की वजह से ही 500-600 डॉलर में बिकने वाले आई फोन की उत्पादन लागत फॉक्सकोन के लिए बस 10-20 डॉलर ही आती है।
ये भी पढ़ें-
- दिल्ली में अधिकांश महिला वर्करों की सैलरी 5 से 8 हज़ार रु के बीच, सर्वे रिपोर्ट ने खोली दिल्ली मॉडल की पोल
- Unionisation can provide safe space for women domestic workers to raise sexual harassment complains
संक्षेप में हम कह सकते हैं कि एप्पल व ऐसी ही अन्य बड़ी कंपनियों के ऊंचे मुनाफे और उनके पास जमा हुए अथाह पूंजी के अंबार के पीछे पूंजीपतियों और उनके कारिंदे प्रबंधकों की कोई विशेष प्रतिभा व कड़ी मेहनत नहीं, प्रवासी मजदूरों के गहन शोषण का पूंजीवादी उत्पादन मॉडल है।
खास तौर पर मजदूर आंदोलन की वैचारिक समझौता परस्ती व संघर्ष में सुस्ती ने संगठित बड़े उद्योगों में भी श्रमिकों के वैसे शोषण-उत्पीड़न का रास्ता फिर से खोल दिया है जिस पर पहले के महान बलिदान भरे संघर्षों से कुछ हद तक रोक लगी थी।
प्रवासी मजदूर बहुत हद तक पूंजीपतियों के अर्ध गुलाम बना दिए गए हैं और काम के अधिक घंटों और काम की गति में तेजी के द्वारा पूंजीपति उनसे अत्यधिक उत्पादन करा रहे हैं जबकि उन्हें कम मजदूरी दर पर ही अपनी श्रम शक्ति बेचनी पड़ रही है। इस प्रकार मजदूर बहुत बड़ी मात्रा में बिना भुगतान का मूल्य या बेशी मूल्य पैदा कर रहे हैं जो पूंजीपति वर्ग के बढ़ते मुनाफ़ों का मूल स्रोत है।
(इस स्टोरी को ‘यथार्थ’ पत्रिका के जनवरी अंक से साभार प्रकाशित किया जा रहा है।)
वर्कर्स यूनिटी को सपोर्ट करने के लिए सब्स्क्रिप्शन ज़रूर लें- यहां क्लिक करें
(वर्कर्स यूनिटी के फ़ेसबुक, ट्विटर और यूट्यूब को फॉलो कर सकते हैं। टेलीग्राम चैनल को सब्सक्राइब करने के लिए यहां क्लिक करें। मोबाइल पर सीधे और आसानी से पढ़ने के लिए ऐप डाउनलोड करें।)