मारुति के 10 साल से बर्खास्त मज़दूर करेंगे दो दिन की भूख हड़ताल, बहाली की मांग
हरियाणा के मानेसर स्थित मारुति प्लांट से 2012 में बर्खास्त मज़दूरों ने अपनी बहाली के लिए गुड़गांव डीसी कार्यालय पर दो दिन के भूख हड़ताल का ऐलान किया है।
यह सामूहिक भूख हड़ताल 11-12 अक्टूबर को सुबह 10 बजे से शाम 5 बजे तक होगी, जिसमें गुड़गांव, मानेसर और इलाके के मजदूर नेताओं के आने की बात कही जा रही है।
दस साल से बेरोज़गारी से त्रस्त आजीविका के लिए दर दर भटक रहे मजदूरों ने इस औद्योगिक इलाके में छंटनी और तालाबंदी पर रोक लगाने, स्थायी काम पर स्थायी रोज़गार देने और मज़दूर विरोधी चार श्रम संहिताएं (लेबर कोड) को रद्द करने की मांग रखी है।
इस संबंध में इन मजदूरों ने एक खुला पत्र जारी किया है, जिसमें कहा गया है कि मारुति आंदोलन के दौरान सरकार ने केवल उन्हें ही निशाना नहीं बनाया बल्कि पूरे मजदूर वर्ग को सबक सिखाने की मंशा से कार्रवाई की।
गौरतलब है कि जेल में आजीवन कारावास झेल रहे जो 13 मजदूर नेता थे, उन सभी को हाल ही में जमानत मिली है। ये मजदूर नेता करीब 10 साल की अवधि तक जेल में ही बंद रहे और उन्हें ज़मानत तक नहीं दी गई।
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खुला पत्र पढ़ें-
साल 2012 में मारुति के मानेसर प्लांट में आग लगने से एक मेनेजर की मौत के बाद कंपनी ने 546 स्थायी मज़दूरों और 1,800 ठेका मज़दूरों को बिना किसी जांच पड़ताल के, ‘ल\स ऑफ़ कांफिडेंस’ का हवाला दे कर बर्खास्त कर दिया था। घटना का बहाना बना कर पूरी यूनियन सहित 213 मजदूरों पर मुकदमे लगा दिए गए और 149 को जेल में डाल दिया गया।
2017 में हमारे 117 साथी गुड़गांव कोर्ट द्वारा निर्दोष पाए गए और बाइज्ज़त बरी हुए। वहीं हमारी पूरी यूनियन बॉडी और हमारा स्वर्गीय साथी जियालाल को कोर्ट ने गुनेहगार ठहरा कर आजीवन कारावास की सज़ा सुना दी। इन 13 साथियों में से जियालाल और पवन कुमार जेल काटते हुए ही चल बसे। पिछले महीनों में हमारे अन्य 11 साथियों को चंडीगढ़ उच्च न्यायालय से ज़मानत मिली है। दूसरी ओर 426 बर्खास्त मज़दूरों का केस अभी भी गुड़गांव कोर्ट में पेंडिंग चल रहा है।
एक दशक से कोर्ट कचहरी के चक्कर काटने के बावजूद अब तक हम 426 मज़दूरों को कोई न्याय नहीं मिला है। प्लांट की यूनियन और मारूति सुजुकी मज़दूर संघ (एमएसएमएस) के सभी प्रयासों के बावजूद कंपनी मैनेजमेंट ने साफ़ कह दिया है। की वह बर्खास्त मज़दूरों के विषय पर यूनियन से कोई बात नहीं करेंगे। वहीं कांग्रेस और भाजपा दोनों ही पार्टियों के कार्यकाल में हरियाणा सरकार ने भी स्पष्ट रूप से कंपनी मैनेजमेंट का पक्ष ले कर मज़दूरों पर दमन ही चलाया है।
ऐसे में हमने फैसला लिया है की हम न्याय के लिए अपने संघर्ष को फिर एक बार सड़कों पर उतारेंगे। इस मुहीम में आपका साथ ही हमारी सबसे बड़ी ताकत है, इसलिए हम अपने कुछ अनुभव और आपके मन में उठने वाले कुछ सवालों के जवाब आपसे बांटना चाहते हैं।
लोग हमसे अक्सर पूछते हैं कि ‘नौकरियां खोने, जेल की सज़ा और दमन के सिवा इस संघर्ष से आपको क्या मिला? इतना सब देखने के बाद आप अब भी संघर्ष करना चाहते हो ?’
यह सच है कि संघर्ष के मैदान ने हमसे कई कुर्बानियां लीं, हमें कई कठिनाइयाँ दिखायीं, लेकिन सच यह भी है कि इतने सालों में अगर हमने कोई भी सफलता पायी है तो वो संघर्ष से ही। किसी नेता, किसी चुनावी पार्टी, किसी मैनेजर ने हमें कभी कोई राहत, कोई अधिकार नहीं दिए।
ये हमारी एकता ही थी जिसने हमें कंपनी में कोल्हू के बैल की तरह पिसे जाने से बचा कर सम्मान के साथ कंपनी में काम करने का मौका दिया। यह संघर्ष ही था जिसने हममें से जेल में फेंक दिए गए साथियों को बाहर निकाला, और हमें विश्वास है की संघर्ष से हम बर्खास्त मज़दूर एक बार फिर अपनी अन्यायपूर्ण तरीके से छीनी हुई नौकरियां वापस पाएँगे।
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जब मारुति में 4000 थी तनख्वाह
जब हम मारुति में लगे थे तो हमारी तनख्वाह 4,000 से अधिक नहीं थी। काम का दबाव ऐसा था की तंदरुस्त नौजवान दो – तीन सालों में बीमार पड़ जाते थे। लाइन की तेज़ी ऐसी थी की पानी की बोतल सामने पड़ी हो तब भी आप उसे उठा कर पानी नहीं पी पाते। सुपरवाईजर और एचआर मज़दूरों को इंसान नहीं समझते थे, हर छोटी बात पर बदतमीज़ी से बोलते, कभी हाथ उठाते, कभी गाली देते। यूनियन नहीं थी और मनेजमेंट के सामने मज़दूरों की बात कहने का कोई जरिया नहीं था।
हमारी एक मामूली मांग थी ‘हमारी अपनी स्वतंत्र यूनियन’ जो हमारी आवाज़ बने, हमारे अधिकारों के संघर्ष को नेतृत्व दे। महीने दर महीने संघर्ष चला, लोग बर्खास्त हुए और वापस भी लिए गए, कंपनी गेट पर ताला भी लगा और तोड़ा भी गया, नेता आए और गए और नए नेता तैयार हुए और जेल में डाले गए और फिर नए नेता तैयार हुए…! स्थायी मज़दूर ठेका मजदूरों को कंपनी में वापस लाने के लिए कंपनी के अन्दर बैठ गए, इसके समर्थन में आस पास की 12 कंपनियों के मजदुर अपनी अपनी कंपनी पर कब्ज़ा कर के बैठ गए।
2500 के करीब सक्रिय मज़दूरों को निकाल देने, 149 मजदूरों को जेल में डाल देने और पूरे मानेसर को पुलिस छावनी बना देने के बाद भी हमारी यूनियन ना केवल रजिस्टर हुई, बल्कि 2012 के बाद भी बनी रही और आज भी सक्रीय है। 2012 के बाद इस क्षेत्र के पक्के मजदूरों की तनख्वाह तेजी से बढ़ी और आज मारुति के पक्के मज़दूर सम्मान और सुविधा की ज़िन्दगी जी पाते हैं, जो हर मज़दूर का वाजिब हक़ है। क्या संघर्ष के बिना इन परिवर्तनों की कल्पना की जा सकती थी? नहीं।
गुड़गांव से बावल तक 2005 जैसे हालात
लेकिन संघर्ष का असर तब तक ही रहता है जब तक संघर्ष जिंदा रहे। आज गुड़गांव-मानेसर- धारूहेड़ा-बावल औद्योगिक क्षेत्र के हालात फिर एक बार 2005 के पहले जैसे बन रहे हैं । पक्के मज़दूरों को सुविधाएं देने पर मजबूर प्रबंधन आज पक्की नौकरी को ही ख़तम कर रही है। पक्के मज़दूरों की छटनी हो रही है, मजबूरन वीआरएस लेना पड़ रहा है। वेल्सोनिका से ले कर नापीनों, मुंजाल शोवा, सोना स्टीयरिंग व हिताची में हम यूनियनों पर हो रहे हमलों का उदाहरण देख रहे हैं।
प्रबंधन आज सालों तक यूनियनों से समझौता नहीं कर रही। नई यूनियनों का रजिस्ट्रेशन पहले से भी मुश्किल हो गया है और यूनियन बनाते ही सभी यूनियन सदस्यों को नोटिस दे देना, या निकाल देने का सिलसिला और तेज़ हुआ है। दरअसल, पूरे श्रमबल को अस्थायी बना कर भविष्य में यूनियन बनाने की संभावना को ही ख़त्म करने की कोशिश चल रही है।
ज्यादातर उत्पादन ठेका, कैजुअल, ट्रेनी, अपरेंटिस और फिक्स्ड टर्म मज़दूरों से कराया जा रहा है। हमारे संघर्ष में पहले दिन से ही ठेका मज़दूर हमारे साथ शामिल रहे। उस समय ठेका और स्थायी मज़दूरों की स्थिति में ज़्यादा अंतर नहीं था और हमारी एकता ही हमारी सबसे बड़ी ताकत थी। लेकिन आज मज़दूरों को अलग अलग कैटेगरी में बाँट कर, उनकी तनख्वाह और सुविधा में बड़ा अंतर ला कर मालिक वर्ग मज़दूर आंदोलन की पीठ तोड़ना चाह रहा है।
एक ही कंपनी के पुराने प्लांट बंद कर के नए प्लांट लगाए जा रहे हैं जहाँ प्रोडक्शन में कोई भी पक्के मज़दूर हैं ही नहीं और ठेका/कैजुअल मज़दूरों को छः छः महीनों में बदल दिया जा रहा है। कई कंपनियों में ऐसे नियम हैं कि वे दो – तीन साल से पुरानी आईटीआई डिग्री को स्वीकार ही नहीं करती हैं। हाँडा और रिको धारूहेड़ा जैसी मज़बूत से मज़बूत यूनियनों को तोड़ा गया है।
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वर्ग संघर्ष
दोस्तों, हमने तो खुद अपना जीवन बेहतर करने के लिए ही यूनियन बनाने की सोची थी। ये तो मारुति प्रबंधन थी जिसने हमारे संघर्ष को ‘वर्ग संघर्ष’ का नाम दिया। मारुति प्रबंधन के समर्थन में उतरा इस पूरे क्षेत्र का मलिक वर्ग, उसके पक्ष में काम कर रही हर पार्टी की सरकारे, पुलिस प्रशासन और जनता को भूल कर ‘निवेशकों को विश्वास दिलाते’ न्यायालयों के फैसलों ने ही हमें सिखाया की किसी एक मज़दूर के जीवन की बेहतरी सभी मज़दूरों के जीवन से कैसे जुड़ी है।
कंपनी और प्रशासन द्वारा हमारे साथ किया जा रहा अत्याचार केवल हमें नहीं बल्कि पूरे मज़दूर वर्ग को सबक सिखलाने की कोशिश है। आज गुड़गांव से बावल तक बने हालात भी इसी अत्याचार का दूसरा पहलू है। इस दमन चक्र को तोड़ने के लिए हम बर्खास्त मारुति मज़दूर 11-12 अक्टूबर को अपने गाँव – घरों से गुड़गांव आकर डीसी ऑफिस पर दो दिवसीय सामूहिक भूख हड़ताल कर रहे हैं। हम अपने सभ मज़दूर भाइयों, सभी मज़दूर संगठनों और जन हितैषी नागरिकों से अपील करते हैं की इस संघर्ष में हमारा साथ दें।
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