विकसित होते भारत में आखिर क्यों गिर रही ग्रामीण इलाकों में वास्तविक मज़दूरी ?
By – Ashok Gulati and Shyma Jose
रोजगार का लिटमस टेस्ट वास्तविक मजदूरी दरों पर निर्भर करता है, और सरकारी आंकड़ें बताते है कि ग्रामीण क्षेत्रों में मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में पिछले पांच वर्षों में वास्तविक मजदूरी में नकारात्मक वृद्धि हुई है.जो ये बताती हैं कि अधिक रोजगार-केंद्रित विकास के लिए इस पर तत्काल ध्यान देने और आगे के शोध की आवश्यकता है.
जहां पीएम मोदी ने 2047 तक विकसित भारत का आह्वान किया है. वहीं नीति आयोग ने हाल ही में एक रिपोर्ट पेश की है जिसमें अनुमान लगाया गया है कि मोदी सरकार के नौ वर्षों में 248.2 मिलियन भारतीयों को गरीबी से बाहर निकाला गया है. यह राष्ट्रीय बहुआयामी गरीबी सूचकांक (एनएमपीआई) पर आधारित है.
जबकि यूएनडीपी की एमपीआई पद्धति में गरीबी को परिभाषित करने के तीन आयामों के तहत 10 संकेतक हैं – स्वास्थ्य (पोषण और बाल मृत्यु दर), शिक्षा (स्कूली शिक्षा और स्कूल में उपस्थिति के वर्ष) , जीवन स्तर (खाना पकाने का ईंधन, स्वच्छता, पीने का पानी, आवास, बिजली और संपत्ति), एनएमपीआई इस सूची में मातृ स्वास्थ्य और बैंक खातों को जोड़कर इसे 12 संकेतक बना दिया गया है.
नीति आयोग का तर्क है कि एनएमपीआई आय/खपत पर आधारित पारंपरिक अनुमानों की तुलना में गरीबी का अनुमान लगाने के लिए एक बेहतर उपाय है.
हम 12 संकेतकों के आधार पर भारत में लोगों के जीवन स्तर में सुधार का स्वागत करते हैं. यह बड़े पैमाने पर सरकारी निवेश से प्रेरित है. लेकिन घरेलू आय भी उतनी ही महत्वपूर्ण है.
यदि शिक्षा की गुणवत्ता खराब रहेगी तो स्कूलों में नामांकन का क्या मतलब है, जैसा कि प्रथम की एएसईआर रिपोर्ट में बताया गया है. शिक्षा प्रणाली “शिक्षित बेरोजगार युवाओं” का निर्माण कर सकती है. इसी तरह अगर गरीबों की आय कम है और बचत मुश्किल से हो तो खाते रखने का क्या मतलब है.
यह एक विकास मॉडल की स्थिरता पर सवाल उठाता है जो सार्वजनिक उपयोगिताओं (शिक्षा, स्वास्थ्य और यहां तक कि गैस) तक बेहतर पहुंच प्रदान करता है लेकिन इसकी गुणवत्ता या आय स्तर में सुधार की दिशा में काम नहीं करता है.
इस बात पर यकीन करना मुश्किल है कि एनएमपीआई द्वारा प्रकाशित सूचकांक आय-गरीबी को प्रतिस्थापित करने के लिए एक सुविचारित कदम है.
बल्कि इसकी जगह देश में गरीबी, वास्तविक मजदूरी और बेरोजगारी को ट्रैक करने की समान आवश्यकता है ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि विकास मार्ग 2047 तक लोगों को अपनी आय में उल्लेखनीय सुधार करने में मदद मिले.
दुनिया की सबसे बड़ी गरीब आबादी रहती है भारत में
विश्व बैंक के $2.15 प्रति व्यक्ति/दिन की आय (2017 की क्रय शक्ति के आधार पर गरीबी) के आधार पर अनुमान के अनुसार भारत में अभी भी दुनिया में अत्यंत गरीबी के तहत लोगों की सबसे बड़ी संख्या (160 मिलियन) निवास करती है.
ये अत्यंत गरीब कौन से व्यवसाय में लगे हुए हैं? उनमें से अधिकांश ग्रामीण क्षेत्रों में हैं, जो कृषि के साथ-साथ गैर-कृषि क्षेत्र में भी मजदूर के रूप में काम करते हैं. इसलिए यह देखना महत्वपूर्ण है कि पिछले दो सरकारी शासनों में कृषि में रोजगार और ग्रामीण क्षेत्रों में वास्तविक मजदूरी दरों का क्या हो रहा है.
हमारे शोध से पता चलता है कि यूपीए-1 (2004-05 से 2008-09) के दौरान, पुरुषों के लिए वास्तविक कृषि मजदूरी (कंस्यूमर्स प्राइस इंडेक्स फॉर एग्रीकल्चर लेबर द्वारा घटाई गई) प्रति वर्ष मात्र 0.2 प्रतिशत की दर से बढ़ी.
जबकि वास्तविक ग्रामीण गैर-कृषि मजदूरी ( कंस्यूमर्स प्राइस इंडेक्स फॉर रूरल लेबर द्वारा घटाई गई) में -0.9 प्रतिशत प्रति वर्ष की गिरावट आई.
लेकिन यूपीए-2 (2009-10 से 2013-14) के दौरान इसमें शानदार वृद्धि देखने को मिली. जिसमें वास्तविक कृषि और गैर-कृषि ग्रामीण मजदूरी क्रमशः 8.6 प्रतिशत और 6.9 प्रतिशत प्रति वर्ष की दर से बढ़ी.
इसके विपरीत एनडीए-1 अवधि (2014-15 से 2018-19) के दौरान ग्रामीण क्षेत्रों में वास्तविक कृषि और गैर-कृषि मजदूरी की वृद्धि घटकर क्रमशः 3.3 प्रतिशत और 3 प्रतिशत प्रति वर्ष हो गई.
सबसे चिंताजनक स्थिति एनडीए-2 (2019-20 से 2023-24) के पिछले पांच वर्षों की है, जब वास्तविक ग्रामीण मजदूरी की वार्षिक वृद्धि दर कृषि (-0.6 प्रतिशत) और गैर कृषि (-1.4 प्रतिशत) दोनों के लिए नकारात्मक हो गई है.
कृषि में लगे कार्यबल की हिस्सेदारी में लगातार गिरावट देखी गई है. 1951 में 69.7 प्रतिशत से 2011 में 54.6 प्रतिशत फिर 2018-19 (पीरियाडिक लेबर फ़ोर्स सर्वे) में 42.5 प्रतिशत हो गई.
लेकिन 2019-20 में यह बढ़कर 45.6 प्रतिशत हो गया और फिर 2020-21 में बढ़कर 46.5 प्रतिशत हो गया (कोविड के कारण रिवर्स माइग्रेशन). फिर 2021-22 में यह गिरकर 45.5 प्रतिशत हो गया. इसका कारण यह हो सकता है कि मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल के दौरान कृषि और गैर-कृषि ग्रामीण वास्तविक मजदूरी में वृद्धि नकारात्मक हो गई है.
जहां तक बेरोजगारी दर का सवाल है ILO डेटा बताता है कि यूपीए सरकार के 10 वर्षों (2004-05 से 2013-14) के दौरान यह औसतन लगभग 8.4 प्रतिशत और मोदी सरकार के 10 वर्षों के दौरान लगभग 7.9 प्रतिशत रही.
इसतरह दोनों सरकारों के विकास मॉडल के तहत बेरोजगारी में उल्लेखनीय कमी नहीं देखी गई है. यूपीए सरकार के दौरान भाजपा यह कहने में सबसे आगे थी कि यह रोज़गार रहित विकास है, और यही आलोचना कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों द्वारा भाजपा के लिए भी किया जाता है.
सरकारी आंकड़ें खुद बयान कर रहे असली तस्वीर
दिलचस्प बात यह है कि पीएलएफएस (Periodic Labour Force Survey ) के सरकारी डेटा जिसने 2017-18 से बेरोजगारी पर जानकारी एकत्र करना शुरू किया था, रोजगार के बहुत निचले स्तर और स्पष्ट गिरावट की प्रवृत्ति को दर्शाता है. यह 2017-18 में 6 फीसदी से घटकर 2021-22 में 4.1 फीसदी हो गई है.
पूर्ववर्ती योजना आयोग में आर्थिक सलाहकार और इस विषय पर एक प्रखर लेखक संतोष मेहरोत्रा कहते हैं ” आईएलओ के अनुमान और पीएलएफएस के अनुमान के बीच अंतर सिर्फ परिभाषा का है. पीएलएफएस कुछ कार्यों को रोजगार के रूप में शामिल करता है, भले ही इसके लिए भुगतान न किया गया हो. यह पीएलएफएस के अनुमानों को अन्य देशों के साथ गैर-तुलनीय बनाता है जो आईएलओ के मानदंडों का पालन करते हैं. CMIE का अनुमान ILO की तर्ज पर है, और यह PLFS की तुलना में बेरोजगारी के बढ़ते स्तर को और स्पष्टता के साथ दर्शाता है.”
हमारे लिए रोजगार की अग्निपरीक्षा वास्तविक मजदूरी दरों पर निर्भर करनी चाहिए है,और सरकारी आंकड़े खुद ही दिखाते है की मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल के दौरान ग्रामीण इलाकों में पिछले पांच वर्षों में वास्तविक मजदूरी में नकारात्मक वृद्धि हुई है.
ये सारी बातें स्पष्ट रूप से हमें ये इशारा करते है की आगे हमे अधिक रोजगार-केंद्रित विकास योजनाएं बनाने के लिए इस पर तत्काल ध्यान देने और आगे के शोध की आवश्यकता है.
(इंडियन एक्सप्रेस की ख़बर से साभार)
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