ग्रीन रिवोल्यूशन और मौजूदा कृषि मॉडल ने पंजाब को बर्बाद कर दिया, इसे बदले बिना संकट से निजात नहीं
By रजिंदर सिंह दीपसिंह वाला
आंदोलन में ऐसे तमाम लोग थे, जिन्होंने इतनी दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ ऐलान कर रखा था कि या तो जीत कर पंजाब वापस जाएंगे या फिर नहीं जाएंगे। वे आंदोलन की रीढ़ की तरह वहां डटे रहे।
इस दरम्यान 26 जनवरी की साजिश हुई, सिंघु बार्डर पर एक व्यक्ति का कत्ल हुआ, इस बीच कोरोना का इतना भारी प्रकोप फैला, बावजूद लोग मोर्चे पर डटे रहे।
पंजाब में जो कृषि संकट है वो तीनों कृषि कानूनों की वापसी से हल नहीं होने वाली है। पंजाब में किसानी का संकट पहले से भी था और आज भी है।
उसी तरह किसान खुदकुशी कर रहे हैं, खेती तबाह हो रही है, पर्यावरण का संकट है, स्वास्थ्य का संकट है। पंजाब में मिट्टी पानी से लेकर इंसान और जानवर तक की सेहत गड़बड़ा चुकी है। पंजाब में ग्रीन रिवोल्यूशन किसी नरसंहार से कम नहीं है।
पंजाब में इसे तीसरा नरसंहार कहा जाता है। रोज वहां खुदकुशियां होती हैं, लीवर की बीमारी से लोग दम तोड़ रहे हैं, कैंसर से बड़े पैमाने पर मौतें हो रही हैं। भटिंडा से राजस्थान को जाने वाली ट्रेन को कैंसर ट्रेन कहा जाने लगा है।
पंजाब में ये जो सब हो रहा है, वो इस कृषि मॉडल की देन है। ये मॉडल कार्पोरेट समर्थक और प्रकृति विरोधी है। लेकिन किसान संगठन किसान हितैषी और प्रकृति अनुकूल मॉडल पर काम करने में जुटे हुए हैं।
कीर्ती किसान यूनियन का मानना है कि पंजाब में जो धान और गेहूं उगाने की परम्परा है, उसे बदलना पड़ेगा। हालांकि श्रीलंका का सबक हमारे सामने है जहां आर्गेनिक खेती अनिवार्य कर देने से उत्पादन काफी गिर गया और भुखमरी की नौबत आ गई।
सिर्फ कीटनाशकों और खादों की खपत कम कर देने से ये मॉडल नहीं बदलने वाला। इस ओर रसर्च की जरूरत है।
पंजाब एग्रीकल्चरल यूनिवर्सिटी में 120 साइंटिस्ट हैं, जिनमें 80 सिर्फ धान की फसल पर काम करते हैं। पहले जो धान का उत्पादन 18-20 क्लिंटल प्रति एकड़ था, वो आज 32-35 क्विंटल प्रति एकड़ हो चुका है। गेहूं का उत्पादन 3-4 क्विंटल से 20 क्विंटल प्रति एकड़ हो चुका है।
लेकिन आज से 30 साल पहले जो दलहन, तिलहन और अन्य फसलों का उत्पादन है वहीं का वहीं खड़ा है। इसकी वजह है कि एग्रीक्चरल यूनिवर्सिटी भी ग्रीन रिवोल्यूशन के एजेंडे को ही आगे बढ़ा रहा है।
इसकी एक और वजह है कि सरकार ने सिर्फ दो फसलों पर एमएसपी लागू की है, अगर वो बाकी फसलों पर भी इसे लागू कर दे तो लोग अन्य फसलें भी बोएंगे। पंजाब में 28 किस्म के फल पैदा हो सकते हैं. लेकिन अज पंजाब की कुल ज़मीन के 2.2 प्रतिशत पर ही बागवानी होती है।
यहां किन्नू और अमरूद होता है। हालांकि यहां बादाम की खेती का भी प्रयोग हो चुका है। भारत हर साल 700 करोड़ रुपये की दालें आयात करता है, जबकि 22 लाख टन खाद्य तेल बाहर से मंगाया जाता है। लेकिन सरकारी नीति है कि दलहन और तेलहन उगाने वाले किसानों को एमएसपी नहीं दी जाएगी।
किसान आंदोलन के दौरान जब सरकार से बातचीत चल रही थी, सरकारी नुमाइंदों का कहना था अगर सभी फसलों पर एमएसपी दी जाए तो 17-18 लाख रुपये खर्च आएगा।
इस बार पंजाब सरकार ने कहा कि मूंग की फसल पर एमएसपी देंगे। लेकिन जब किसानों ने मूंग उगा लिया तो सरकार ने शर्त रख दी कि एक किसान से सिर्फ 25 क्विंटल मूंग ही खरीदी जाएगी और उसे अपने पांच एकड़ का कागज भी दिखाना होगा।
जबकि हज़ारों क्विंटल मूंह कनाडा से खरीदा जाता है, तो ये शर्तें वहां तो नहीं लागू की जातीं। जब कनाडा को हजारों करोड़ रुपए देकर मूंग खरीदा जा सकती है तो अपने देश के किसानों से क्यों नहीं। दालों की खास बात होती है कि उसकी फसल से ज़मीन में नाइट्रोजन की मात्रा बढ़ जाती है। ऐसे खेत में यूरिया की जरूरत नहीं है।
पानी की जरूरत नहीं है, बहुत कम पानी में दलहन तेलहन हो सकती है। पंजाब में दाल की खपत छह लाख टन है, जबकि यहां सिर्फ 35 हज़ार टन दालें पैदा होती हैं।
पंजाब एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी के रिकार्ड के अनुसार, 1960-61 में पंजाब में 22 लाख 65 हज़ार एकड़ पर दाल की खेती होती थी जबकि आज वो सिर्फ 50 हज़ार एकड़ पर हो रही है। पंजाब अपनी ज़रूरत का 93 फीसदी दाल बाहर से मंगाता है।
अगर वो अपनी जरूरत की दाल खुद पैदा करे तो 20 लाख एकड़ में दाल की खेती होगी। यहां पांच से सात एकड़ पर एक ट्यूबवेल है।
इस हिसाब से तीन लाख ट्यूबवेल की जरूरत ही नहीं रह जाएगी। तो जमीन से पानी नहीं निकालना पड़ेगा। यहां 28 किस्म के फल हो सकते हैं, जबकि सिर्फ दो फल उगाए जा रहे हैं। यहां अनार के बाग भी हैं, जिन्हें साल भर में सिर्फ एक पानी चाहिए।
किसान आंदोलन ने इन सवालों को उभारा है और उसने दिखाया है कि जिस समय सभी विपक्षी पार्टियां जब सीबीआई, ईडी, गोदी मीडिया के सामने धाराशाई हो गईं, किसानों ने जुझारू संघर्ष किया और वो अभी भी कर सकते हैं। वो एक बड़ा बदलाव ला सकते हैं। कृषि मॉडल को बदले बिना इस संकट से निजात नहीं।
इसलिए कोई नया मॉडल सिर्फ किसान जत्थेबंदियों के चाहने से नहीं बनेगा, क्योंकि ये सरकारी नीति का सवाल है। पंजाब में ग्रीन रिवोल्यूशन को अमेरिका में द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद थोपा, क्योंकि उसने हथियार उद्योग को इतना बढ़ा दिया था कि उसे अनाज उत्पादन के लिए एक ऐसे जरखेज इलाके की खोज थी।
पंजाब में ये काम न तो वहां के लोगों की ज़रूरत और ना ही पर्यावरण को ध्यान में रख कर किया गया। इसलिए इसका फेल होना लाज़िमी ही था। पंजाब का हवा, पानी, मिट्टी सब बर्बाद हो चुका है।
आज की स्थिति यह है कि पंजाब में भूगर्भ जल का 86 प्रतिशत निकाला जा चुका है। अगर यही कृषि नीति लागू होती है तो पंजाब अगले 10-12 साल में एक ज़हरीले रेगिस्तान में तब्दील हो जाएगा।
प्रजनन दर में भी पंजाब में काफी कमी आई है। आज यहां स्पर्म काउंट 50 फिसदी तक पहुंच गया है।
और यही हाल रहा तो अनुमान है कि 2050 तक पंजाब के लोग बच्चा पैदा करने के काबिल नहीं रहेंगे। इतना बड़ा स्वास्थ्य संकट और जो 14 प्रतिशत पानी बच गया है वो इतना प्रदूषित हो चुका है कि बिना इस कृषि मॉडल को बदले हालात नहीं सुधरने वाले।
(रजिंदर सिंह दीपसिंह वाला कीर्ती किसान यूनियन के नेता हैं और बीते 18 सितम्बर को दिल्ली के प्रेस क्लब में ‘द जर्नी ऑफ़ फार्मर्स रिबेलियन’ किताब के विमोचन के दौरान अपनी बात रखी। करीब 500 पृष्ठों में शामिल 21 साक्षात्कारों के संकलन की यह किताब वर्कर्स यूनिटी, ग्राउंड ज़ीरो और नोट्स ऑन द एकेडमी के संयुक्त प्रयास का परिणाम है। भाषण का ट्रांस्क्रिप्ट यहां प्रस्तुत है।)
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