जीएन साईंबाबाः धूप में बैठने का अधिकार पाने के लिए 10 दिन भूख हड़ताल करनी पड़ी- नज़रिया

जीएन साईंबाबाः धूप में बैठने का अधिकार पाने के लिए 10 दिन भूख हड़ताल करनी पड़ी- नज़रिया

By मनीष आज़ाद

जैसे-जैसे ठंड बढ़ रही है, मुझे जेल के अपने लोग याद आ रहे हैं। जेल में बीमार, बुजुर्ग और गरीबों के लिए सर्दी सबसे बुरा मौसम होता है।

फिर यह सोच कर दिल भारी हो जाता है कि 90 प्रतिशत विकलांग, नागपुर के ठंडे अंडा सेल में बंद राजनीतिक कैदी जी. एन. साईंबाबा की इस समय क्या स्थिति होगी।

अभी ही खबर आयी कि रोजाना महज कुछ मिनटों के लिए सूरज की गर्मी पाने के लिए उन्हें इस स्थिति में भी करीब 10 दिन भूख हड़ताल पर जाना पड़ा।

मुझे लगता है कि विटामिन डी की जरूरत साईबाबा से ज्यादा इस भारतीय ‘लोकतंत्र’ को है जो ‘सूरज’ की रोशनी के अभाव में ‘गठियाग्रस्त लोकतंत्र’ में बदल चुका है और आज अनेकों फ्रैक्चर का शिकार हो चुका है।

ग़ौरतलब है कि साई बाबा कोर्ट के आदेश के बावजूद बुनियादी सुविधाएं ना मिलने के कारण विगत 26 अक्टूबर से 6 नवंबर तक भूख हड़ताल पर थे। परिवार समेत बाहरी दुनिया को इसकी खबर भी नहीं थी।

हर व्यक्ति की दो माँ होती हैं। एक उसकी माँ और दूसरी उसकी भाषा।

इसी साल अगस्त में जब उनकी माँ मृत्यु के कगार पर थी तो न उन्हें उनसे मिलने के लिए पैरोल दी गयी और ना ही काफी आग्रह के बावजूद माँ के साथ उनकी विडियो कांफ्रेंसिंग से मुलाक़ात कराई गयी। माँ की मृत्यु के कई दिनों बाद ही उन्हें यह खबर मिली की अब उनकी माँ इस दुनिया में नहीं रही।

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उनकी अपनी भाषा तेलगू में उन्हें न कोई किताब दी जा रही है और न ही तेलगू में किसी पत्र का आदान प्रदान होने दिया जा रहा है। क्या भाषा भी कानूनी और ग़ैर कानूनी होती है? क्या भाषा भी राष्ट्रद्रोही होती है।

जी. एन. साईंबाबा दिल्ली यूनिवर्सिटी के एक कालेज में अंग्रेजी साहित्य के अध्यापक थे और कालेज के कैंपस में ही अपने परिवार के साथ रहते थे। यह अजीब बात है कि उन्हें कानूनी तरीके से गिरफ्तार करने की बजाय कालेज से घर आते हुए उन्हें रास्ते से किडनैप किया गया। किसी को तत्काल यह खबर न पता चले, इसलिए उनके ड्राईवर को भी उठा लिया गया। उनके परिवार वालों और दोस्तों को उनकी गिरफ्तारी की खबर तब मिली जब उन्हें नागपुर में कोर्ट में पेश किया गया।

ऐसे दृश्य पहले लैटिन अमेरिकन तानाशाही वाले देशों की विशेषता हुआ करते थे। अब हमारे देश की विशेषता बन चुका है। बहरहाल मार्च 2017 में जब उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनायी गयी तो विधि विशेषज्ञों को यह देखकर घोर आश्चर्य हुआ की पुलिस ने उन पर जितनी भी धाराएँ लगायी थी, उन सभी में उनको आजीवन सजा दी गयी है।

यह अपवाद है और शायद महाराष्ट्र का पहला केस है, जहाँ सभी धाराओं में आजीवन सजा दी गयी है। इससे सरकार और न्याय व्यवस्था की मिलीभगत का पता चलता है। और न्याय की जगह बदले की भावना नज़र आती है।

दरअसल जी. एन. साईंबाबा बहुत पहले से ही सरकार के निशाने पर थे, और इसका कारण था- उनका स्वतंत्र दिमाग। इतिहास गवाह है कि दुनिया की सभी फासीवादी-तानाशाही सरकारें स्वतंत्र दिमाग से बेहद खौफ खाती है। जी. एन. साईंबाबा खुद एक इंटरव्यू में कहते हैं कि मुझसे छुटकारा पाने का बस एक ही तरीका उनके पास रह गया है कि मुझे जेल में फेक दिया जाये।

डेविड और गोलियथ के बीच चले युद्ध का मिथकीय किस्सा मैंने पहली बार किसी सन्दर्भ में उन्ही से सुना था। बाद में मुझे जब उनके जीवन-संघर्ष के बारे में पता चला तो जी. एन. साईंबाबा खुद मुझे डेविड नज़र आने लगे।

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एक गरीब-दलित परिवार में 90 प्रतिशत विकलांगता के बावजूद वे मध्य भारत के लगभग सभी आदिवासी इलाकों में गए। वे खुद बताते हैं कि गाड़ी से उतरने के बाद आदिवासी लोग उन्हें बारी बारी से अपने कन्धों पर उठाते हुए उन्हें दूर दराज के जंगल पहाड़ो में ले गए और उन्हें अपनी कठिनाइयों और संघर्षों से परिचय कराया।

इसी प्रक्रिया में सत्ता रूपी शक्तिशाली गोलियथ को हराने का उनका इरादा और दुनिया बदलने का उनका संकल्प चट्टानी शक्ल लेने लगा।

यही कारण था कि आदिवासियों के खिलाफ जब ‘आपरेशन ग्रीन हंट’ व ‘सलवा जुडूम’ के नाम से भारत सरकार ने खुले युद्ध का एलान किया तो इस युद्ध के खिलाफ सबसे मुखर आवाज जी. एन. साईंबाबा की ही थी।

‘फोरम अगेंस्ट वार आन पीपल’ [Forum Against War on People] के मंच से न सिर्फ वे अपनी आवाज बुलंद कर रहे थे, बल्कि जनता के खिलाफ इस युद्ध के विरोध में एक ‘सामूहिक चेतना’ का निर्माण करने का भी प्रयास कर रहे थे। और यह क्रूर विडम्बना देखिये कि खुद जी. एन. साईंबाबा को भारत सरकार के खिलाफ युद्ध छेड़ने का दोषी ठहरा दिया गया।

जी. एन. साईंबाबा के बारे में जज ने कहा कि भले ही उनका शरीर काम न करता हो, लेकिन उनका दिमाग बहुत तेज है।

जब मै इस ‘लोकतंत्र’ के बारे में सोचता हूँ तो मुझे ठीक इसका उल्टा नज़र आता है। यानी भले ही इस लोकतंत्र का शरीर यानी संस्थाएं काम कर रही हों, लेकिन यह लोकतंत्र ‘ब्रेन डेड’ हो चुका है।

(अमिता शीरीन की फेसबुक पोस्ट से साभार)

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