रोगियों-शवों पर डाका डालते निजी अस्पताल! कोरोना नहीं, पूंजीवाद सबसे बड़ी महामारी भाग-1
केंद्र व राज्य सरकारों ने कोविड टेस्ट की उपलब्धता बहुत सीमित कर रखी है। यहाँ तक कि खुद डॉक्टर, नर्स या चिकित्सकीय कर्मियों तक के भी कोविड संक्रमण के लक्षण साफ दिखाई देने के बावजूद अपने ही अस्पताल में भी जाँच करा पाने में नाकाम होने की कई खबरें आती रही हैं।
यह इसलिए ताकि निर्मम पुलिस ताकत से लागू कराई गई तालाबंदी की सरकारी रणनीति से कोविड की रोकथाम की बात सिद्ध करने के लिए बीमारों की तादाद कम करके दिखाई जा सके।
इस तालाबंदी ने करोड़ों मेहनतकशों खास तौर पर औद्योगिक क्षेत्रों में रहने वाले प्रवासी श्रमिकों के लिए भूख, बीमारी और मृत्यु की घनघोर मुसीबत खड़ी कर उन्हें रोटी और सिर पर छत की तलाश में अपने छोटे-छोटे बच्चों सहित उन्हीं गाँवों की ओर हजारों किलोमीटर पैदल चलकर जाने के लिए मजबूर कर दिया जिन्हें छोड़कर वे कभी भयंकर गरीबी और जुल्म की वजह से रोजगार और बेहतर जीवन की खोज में इन औद्योगिक शहरों में आये थे।
किन्तु हर कोशिश के बावजूद भी महामारी के प्रसार की वास्तविकता को छिपाने के प्रयास कामयाब नहीं हुये हैं और खुद सरकारी आंकड़ों में अब इसकी तादाद लगभग 7 लाख बीमार और 20 हजार मृत्यु तक जा पहुँची हैं, और भारत कुछ ही दिनों में बीमारी के प्रसार में रूस को पीछे छोड़ विश्व में तीसरे स्थान पर पहुँचने वाला है, हालाँकि अधिकांश सार्वजनिक स्वास्थ्य व संक्रामक रोग विशेषज्ञ इन आँकड़ों को भी असल से बहुत कम मानते हैं।
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दम तोड़ती सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था
इस हालत में एक ओर बजट आबंटन के घोर अभाव से जूझती सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा, तो दूसरी ओर निजी पूंजीपतियों द्वारा सुपर मुनाफे के लिए चलाये जा रहे अस्पताल रूपी डकैती केंद्रों से मिलकर बनी हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था का ढांचा पूरी तरह चरमरा चुका है।
पिछले कुछ हफ्तों में हमने एक के बाद एक भीड़ भरे सरकारी अस्पतालों के दरवाजों से दुर-दुर होकर लौटाये जाते मरीजों के इलाज के अभाव में अस्पतालों के फाटकों, सड़कों या एंबुलेंस में ही दम तोड़ देने के न जाने कितने हौलनाक वाकये सुने हैं। उधर निजी अस्पताल सिर्फ भर्ती होकर बिस्तर पा जाने के लिए ही 5-6 लाख रु अग्रिम माँग रहे हैं तथा सामान्य वार्ड में 30 हजार रु से वेंटीलेटर पर रखने के लिए एक लाख रु रोजाना तक वसूला जा रहा है।
गौर करने की बात ये कि ये सभी निजी अस्पताल लगभग मुफ्त की सार्वजनिक जमीन और अन्य बहुतेरी वित्तीय व कर रियायतों के साथ इस करार पर बनाये गये थे कि वे गरीब मरीजों को मुफ्त या रियायती इलाज मुहैया करायेंगे।
पर मुनाफे की पूंजीवादी व्यवस्था में सरमायेदारों द्वारा किए गये करार को मानने और सरकारों द्वारा मनवाने की नैतिकता की उम्मीद करना ही व्यर्थ है!
हालत यहाँ तक पहुँच गई है कि गरीब मेहनतकश जनता की तो बात ही क्या, असली जरूरत के इस वक्त स्वास्थ्य सेवा खरीदने में अपनी स्वास्थ्य बीमा पॉलिसी को असमर्थ पाकर बहुतेरे ‘खुशहाल’ मध्यवर्गीय लोग भी चीख पुकार मचाने लगे हैं, हालाँकि यही वह सबसे खुदगर्ज तबका था जिसने सबके लिए समान,सार्वत्रिक, सार्वजनिक स्वास्थ्य एवं शिक्षा व्यवस्था के ध्वंस की हिमायत में सबसे अधिक मुंहजोरी की थी ताकि सिर्फ अमीरों के लिए ‘गुणवत्तापूर्ण’ निजी शिक्षा एवं स्वास्थ्य कारोबार फल फूल सके।
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रोगियों की है जिन्हें नियत नियमित वक्त पर स्वास्थ्य सेवा की जरूरत पड़ती है जैसे गर्भवती और जच्चगी के करीब वाली स्त्रियाँ, नियमित डायलिसिस करवाने वाले गुर्दे के बीमार, नियमित जाँच-दवा वाले टीबी मरीज, सर्जरी-कीमोथेरेपी का इंतजार करते कैंसर रोगी, वगैरह।
बहुतों को तो इलाज से पूरी तरह महरूम हो जाना पड़ा है क्योंकि कई अस्पताल पूरे ही बंद कर दिये गये हैं या ओपीडी में मरीज नहीं देखे जा रहे हैं। दूसरी ओर, बहुत से निजी अस्पताल हर बार कम से कम साढ़े चार हजार रु वाली कोविड जाँच रिपोर्ट दिखाने की शर्त आयद कर रहे हैं और हर बार निजी सुरक्षा वस्त्र (PPE) के नाम पर बिल में बड़ी रकम वसूल मोटा मुनाफा कमा रहे हैं।
जबकि दूसरी ओर इन कॉर्पोरेट अस्पतालों ने कारोबार में मंदी के नाम पर डॉक्टर, नर्सों व अन्य चिकित्सा कर्मियों के वेतन में 50% तक की भारी कटौती भी कर दी है। बड़ी संख्या में बेहिसाब मौतें इस वजह से इलाज न मिल पाने से हुईं हैं जैसे दिल्ली में 9 अस्पतालों से लौटाई गई जच्चगी के दर्द से तड़पती महिला की शिशु सहित मृत्यु या बैंगलोर में 18 अस्पतालों से लौटाये गये सांस न ले पा रहे बुजुर्ग की दर्दनाक मौत।
सुपर मुनाफे के हवस वाली पूंजीवादी व्यवस्था में हर आपदा ऐसे मौके में बदल दी जाती है जहाँ लाभ के नाम पर डकैती डाली जा सके। कोविड महामारी इसका जीता जागता सबूत है। कोविड के लिए की जाने वाली जाँच की कीमतों को ही लें। इसके लिए प्रयुक्त आरटी-पीसीआर नई नहीं, एक स्थापित तकनीक है जो न सिर्फ जीववैज्ञानिक प्रयोगशालाओं में बल्कि एचआईवी जैसी वाइरससंक्रमणों की जाँचों में भी प्रयुक्त होती आ रही है।
अतः इसकी मशीनें पहले से मौजूद हैं और इसमें काम आने वाले रासायनिक एजेंट भी सामान्य उत्पादन का हिस्सा हैं। अव्यावसायिक प्रयोगशालाओं में इसकी मौजूदा सामान्य लागत 500-600 रु आती है।
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कोविड के लिए बड़े पैमाने पर प्रयोग होने से परिमाण के पैमाने से बचत के कारण यह और कम हो गई है। अतः बड़े संख्या में प्रयोग के द्वारा सरकार इस लागत को 400 रु तक ला सकती थी और कोविड को रोकने के लिए जाँच का काम बड़े पैमाने पर करना मुमकिन था।
किन्तु सरकार ने सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों के बजाय इस पर ‘सलाह-मशविरे’ के लिए बायोकॉन की किरण मजूमदार-शॉ,अपोलो अस्पताल की संगीतारेड्डी एवं ऐसे ही अन्य निजी कारोबारियों अर्थात सेहत के डकैतों को चुना।
स्वाभाविक है कि इनकी सिफ़ारिश से कीमत 4500/- रु तय की गई ताकि निजी पूंजीपति भारी लाभ कमा सकें। 2 महीने और बहुत विरोध के बाद अब कुछ राज्यों ने इसकी कीमत घटाकर 2400/- रु की है जो अब भी खून चूसने जैसी है।
ऐसे ही वेंटिलेटर का उदाहरण है जहाँ हाथ से चलाये जाने वाले एंबु-बैग नाम के उपकरण को स्वचालित कर उसे वेंटिलेटर बता सरकारी अस्पतालों को सामान्य से कई गुना अधिक कीमतों पर बेचा जा रहा है।
(मज़दूर मुद्दों पर केंद्रित ‘यथार्थ’ पत्रिका के अंक तीन, 2020 से साभार)
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