PUDR रिपोर्ट: कंप्युटरी गुणा-गणित के पीछे धूमिल होता मजदूरों का अस्तित्व
पिछले दशक में विस्तारित हुई गिग अर्थव्यवस्था में मजदूरों और कामगारों के संघर्ष पर Peoples Union for Democratic Rights (PUDR) द्वारा दिसम्बर 2021 में जारी की गई रिपोर्ट – Behind the Veil of Algorithms दर्शाती है कि किस तरह कंप्युटरी गुणा-गणित के पीछे मजदूरों का अस्तित्व धूमिल होता जा रहा है।
बीते सालों में Delhi NCR के गिग वर्कर्स की हड़तालों और उनके काम करने की परेशानियों का अध्ययन करते हुए PUDR ने यह फैक्ट-फाइन्डिंग रिपोर्ट जारी की।
उनकी टीम ने Ola, Uber, Swiggy, Zomato और Urban Company के साथ जुड़े कामगारों से बात की।
पिछले दो सालों में गिग वर्कर्स ने खराब काम करने की परिस्थितियों के खिलाफ आवाज उठाया है, जैसे की सितंबर 2020 में Swiggy के मजदूरों और अक्टूबर 2021 में हुई Urban Company के मजदूरों की हड़ताल।
लॉकडाउन के बाद बढ़त में तेजी
रिपोर्ट का कहना है कि गिग अर्थव्यवस्था लॉकडाउन के बाद ज्यादा तेजी से बढ़ी है। इन कंपनियों के विकास का मुख्य कारण रहा है सेवा प्राप्त करने की सहजता और आकर्षक दाम।
गिग वर्कर्स के तौर पर काम करने वालों की संख्या विकसित देशों (1-4%) के मुकाबले विकासशील देशों (5-12%) में अधिक है।
Fortune India की अप्रैल 2021 की एक रिपोर्ट के मुताबिक अगले 3-4 सालों में भारत की गिग अर्थव्यवस्था तीन गुना होने वाली है जो कि अगले 8-10 सालों में 9 करोड़ नौकरियां दे सकती है।
ये आंकड़े सिर्फ गैर-कृषि क्षेत्र के हैं जो कि 250 अरब डॉलर के काम के बराबर होगा और आगे चलकर इसका भारत की GDP में 1.25% योगदान होगा।
जबकि ASSOCHAM की रिपोर्ट कहती है कि 2025 तक गिग अर्थव्यवस्था से 35 करोड़ नौकरियां निकलेंगी।
क्या है गिग अर्थव्यवस्था
गिग का असल मतलब होता है ‘एक बार का काम’ जो कि पहले नाच-गाने वालों के संदर्भ में इस्तेमाल होता था। इसमें जरूरी बात यह होती थी कि आगे के काम की कोई गारंटी नहीं होती थी।
समय के साथ यह शब्द सभी तरह की ‘फ्रीलासिंग’ कामों के लिए इस्तेमाल होने लगा। गिग अर्थव्यवस्था का उद्देश्य है एक सीमित समय के लिए सेवा उपलब्ध कराना।
ये कंपनिया प्लेटफॉर्म या डिजिटल इंटरफेस के माध्यम से काम करती हैं और इन कंपनियों में केवल स्टार्टअप ही नहीं, Fortune 500 में शामिल कंपनिया भी हैं।
मतलब कि इनमें भारी अंतर्राष्ट्रीय पैसा लगा है। सिर्फ Uber में 2017 में 12 अरब डॉलर का निवेश हुआ था।
इस अर्थव्यवस्था का कितना विस्तार हुआ है इसका अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि 2009 में ऐसी 80 कंपनिया थीं जिनकी संख्या बढ़ कर 2021 में 330 हो गई है।
कम दामों में सुविधा किसके एवज में?
रिपोर्ट के अनुसार कंपनियां दावा करती हैं कि वे सबसे बेहतर, सुरक्षित और तेज सेवाएं प्रदान करती हैं वो भी सामान्य से कम दामों पर, लेकिन यह सोचने वाली बात है कि किसके एवज में मिल रही हैं?
कस्टमर किसी सेवा के लिए प्लैट्फॉर्म में लॉग-इन करते हैं, जिसके लिए गिग वर्कर को ऑन-बोर्ड किया जाता है।
गिग वर्कर की श्रेणी में प्रोग्राम कोडर, ग्राफिक डिजाइनर, मनोविशेषज्ञ, ड्राइवर, डिलीवरी पर्सन, ब्यूटिशियन, इत्यादि आते हैं।
गौरतलब है कि इन सभी को मजदूर का दर्जा न देकर केवल फ्रीलांसर कहा जाता है।
इस तरह कंपनियां इन्हें न्यूनतम मजदूरी और बाकी सुरक्षा देने की जिम्मेदारी से निवृत्त हो जाती हैं।
कैसे मुनाफा कमाती हैं कंपनिया
इन कंपनियों का बिजनेस मॉडल हर समय उपलब्ध ‘फ्रीलांसरों’ के विशाल समूह पर निर्भर करता है।
कंपनियां इस विशाल समूह को ऊपर-नीचे होते डिमांड से मिलान करती हैं।
बढ़ते मजदूरों के सप्लाइ के कारण मजदूर आपस में होड़ करने को मजबूर होते हैं और कम पैसों पर काम करने को तैयार हो जाते हैं।
इस बात से ये समझा जा सकता है कि क्यूँ लॉकडाउन के बाद Swiggy और Zomato ने बड़ी संख्या में भर्तियाँ की।
इसीलिए, कम दामों पर उपलब्ध सेवाओं का आधार होता है कम पैसों पर काम कर रहे मजदूर।
कंपनियों की चांदी और मजदूरों की दुर्दशा
जब कस्टमर की तरफ से डिमांड हो, मजदूरों को तभी काम दिया जाता है।
डिमांड कम होने पर सिर्फ लॉग-इन कर के इंतेजार करना पड़ता है।
चूंकि कामगार फ्रीलांसर हैं और कर्मचारी नहीं, इसलिए उन्हें ऑर्डर के बीच में जितने भी घंटे इंतज़ार करना पड़ा हो, उसकी जिम्मेदारी कंपनी की नहीं है।
मजदूरों को काम पर बनाए रखने के लिए कंपनी को कोई खर्च नहीं देना पड़ता है।
कंपनियों को ना मजदूरों के ट्रेनिंग में कोई खर्च करना होता है, और ना ही उन्हें काम के लिए जरूरी सामान (गाड़ी, कंप्युटर, आदि) उपलब्ध कराना होता है।
कैसे बनती है मोनोपॉली
इन सभी चीजों के कारण कंपनी की लागत बहुत कम हो जाती है।
कम मजदूरी और कम लागत के फलस्वरूप कंपनी कस्टमरों को लुभावने दामों पर सेवाओं देती हैं, जिससे ज्यादा से ज्यादा उपभोक्ता उस प्लैट्फॉर्म का इस्तेमाल करने को आकर्षित होते हैं।
ज्यादा से ज्यादा कस्टमरों की मौजूदगी के कारण काम की आस में मजदूर को भी ऑन-बोर्ड रहना सार्थक लगता है।
और इस तरह से मार्केट में मोनोपॉली बनाई जाती है।
शुरुआती दौर में अत्यधिक कम दामों पर सेवाएं और मजदूरों को इन्सेन्टिव देना कंपनियों के लिए जानी मानी रणनीति है।
कम दामों का प्रावधान किसी भी कंपनी को अपने प्रतियोगियों का पत्ता काटने में सहायता करता है जिससे वह फिर मोनोपॉली बना सकते हैं।
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