हर जुबां पर सवाल…हमारे यहां क्यों नहीं आता ऐसा उबाल

हर जुबां पर सवाल…हमारे यहां क्यों नहीं आता ऐसा उबाल

By आशीष सक्सेना

कोई अन्याय कोई अनादर हमें खलता ही नहीं, इस कदर सर्द है खून कि उबलता ही नहीं...। कवि किशन सरोज की ये पंक्तियां कितनी मौजूं लगती हैं भारत की धरती पर।

दुनिया की महाशक्ति कहे जाने वाले अमेरिकी हुक्मरान अपनी ही जनता के आक्रोश से कांप गए हैं। पूरा अमेरिका सुलग उठा है सिर्फ एक नागरिक की पुलिस की नस्लवादी सोच से मौत होने पर।

ये गम और गुस्सा सिर्फ अश्वेत नागरिकों में ही नहीं, बल्कि तमाम उन श्वेत नागरिकों में भी है, जो बीते दिनों लोकतंत्र का गला घुंट जाने जैसा महसूस कर रहे हैं।

पूरी दुनिया अमेरिका में लोकतंत्र की ताकत को देख रही है। उस अमेरिका की, जिसने सबसे पहले लोकतंत्र की बुनियाद 1776 में रखकर फ्रांस की जनवादी क्रांति को चिंगारी पहुंचाई।

अमेरिका की इस हलचल से दुनियाभर में दमन की शिकार जनता खुश है, जाहिर है भारत में भी वास्तविक लोकतंत्र की चाह रखने वालों के लिए ये ऊर्जा देने वाला क्षण है।

इसके बावजूद यहां सवाल यही है कि हमारे देश और समाज में तो शासक मशीनरी हत्याएं और सामूहिक हत्याओं को अंजाम देती ही रहती है, लेकिन ऐसा हमारे यहां क्यों नहीं होता?

यहां तक कि तब भी गुस्से का ये गुबार संगठित नहीं हुआ, जब सरकार की असंवेदनशीलता ने कोरोना काल में सैकड़ों की जान ले ली। हमारा गुस्सा नहीं फूटा, जब हमें पता चला कि श्रमिक स्पेशल ट्रेनों से अब तक 80 मजदूरों की लाशें बाहर आ चुकी हैं।

तब भी नहीं, जब हजारों भूखे-प्यासे लोगों को गुजरात, मध्यप्रदेश में पुलिस ने पीटा। तब भी नहीं, जब पैदल जा रहे मजदूरों के साथ जानवरों जैसा सुलूक किया गया, उनसे बैठकर चलने को कहा गया, मुर्गा बनाया गया, केमिकल से धोया गया।

उस वक्त भी हम पीड़ा सहकर रह गए, जब एक नन्हा बच्चा अपनी मां के आंचल से खेलता रहा, जबकि वह भूख से मर चुकी थी। हमने 700 से ज्यादा मजदूरों को घर जाने के सफर में हादसों की भेंट चढ़ते देख लिया। जाने कितने अभी भी जख्मों से कराह रहे हैं और हमारा गुस्सा न फूट सका।

हम तब भी गुस्से में कहां आ सके, जब दलित युवक को घोड़ी पर चढऩे पर मार दिया गया, दलित होने की वजह से श्मशान का रास्ता रोक दिया और लाश पुल से लटकाकर ले जाना पड़ी। तब भी नहीं, जब दुराचार होने के बाद भी कोई सुनवाई नहीं हुई, आरा मशीन पर रखकर चीर दिया गया कितनों को या चमड़ी उधेड़ दी गई।

दरअसल, ये हमारे समाज की लोकतंत्र के प्रति समझ और अहसास का स्तर है। हमारे यहां दो-चार सैनिकों की मौत पर उबाल आ जाता है, लेकिन सैकड़ों नागरिकों की मौत कोई मायने नहीं रखती। पिछले कुछ समय की घटनाओं को ही याद में लाकर देखें, जैसे पुलवामा कांड।

इसके उलट, अमेरिका में सैनिकों के मरने पर कोई हाय-तौबा नहीं मचती, लेकिन एक नागरिक के साथ दुव्र्यवहार और मौत पर क्या हो सकता है, दुनिया देख रही है।

ऐसा तब है, जबकि हमारे देश की सेना नागरिक ढांचे के अनुशासन में काम करने को बाध्य है। लेकिन हमारे देश में लोकतंत्र के विकास की यात्रा इतनी लचर रही है कि बड़ी संख्या तो ऐसी है जो लोकतंत्र की समाप्ति पर ताली बजाने को तैयार है और सैनिक शासन या तानाशाही को जरूरी मानती है।

सबसे बड़े लोकतंत्र के नाम पर हमारे पास मतदाताओं की संख्या ही है। जिसमें बड़ी संख्या उन ऊर्जावान युवा मतदाताओं की है जो अपनी जिंदगी के फैसले तक नहीं ले पाते या ऐसा करने पर उन्हें गलत माना जाता है।

इसके बावजूद वे देश के फैसले लेने को सरकार चुनने को उल्लासपूर्वक मतदान करते हैं। अधिकांश मतदाताओं ने अपना जीवन साथी तक अपनी मर्जी से नहीं चुना होता है, न ही चुनने को स्वस्थ परंपरा माना जाता है, लेकिन वे लोकतंत्र के संचालकों को चुनते हैं। न्यायपालिका में फैसला देने वाले खुलेआम जातिवादी विचारों को सामने रखते हैं और पुलिस का तो हाल सभी को पता है।

हाल ही में उत्तरप्रदेश के अंदर दो घटनाएं हुईं, जिनमें हम अमेरिका के जॉर्ज फ्लॉयड की तस्वीर देख सकते हैं, लेकिन चर्चा तक नहीं हुई।

लखीमपुर खीरी के गांव में लॉकडाउन की वजह से दलित पृष्ठभूमि का प्रवासी मजदूर घर लौटा। स्कूल में क्वारंटीन किया गया, लेकिन खाना नहीं था। वह घर खाना खाने आता था। एक दिन घर पर भी आटा नहीं था तो वह गेहूं पिसाने चक्की पर गया।

इस बीच पुलिस क्वारंटीन सेंटर आ गई प्रवासियों की गिनती करने। युवक के न मिलने पर पुलिस युवक के घर पहुंची, जहां बताया गया कि वह चक्की पर गेहूं पिसवाने गया है।

पुलिस चक्की पर ही पहुंची और युवक को सरेआम पीटकर लहूलुहान कर दिया। इस आघात से टूटकर युवक ने आत्महत्या कर ली। परिजनों की शिकायत तक को नहीं सुना गया।

दूसरी घटना पीलीभीत जिले की है। यहां एक युवक पर थूक लगाकर फल बेचने की एफआईआर खुद एक सिपाही ने करा दी और लाकर लॉकअप में बंद कर दिया। हवालात में उसकी पिटाई हुई। जांच में पता चला कि सिपाही ने खुद ही फलों पर थूक लगाया था।

ऐसी घटनाओं पर किसी ने आलोचना की तो पूरा सरकारी अमला ही नहीं, समाज के ही तमाम लोग कोरोना योद्धा पुलिस पर अंगुली उठाने को गलत ठहराने लगे।

ऐसे उदाहरणों को गिनना शुरू करें तो गिनते ही चले जाएंगे और घटनाएं खत्म नहीं हो पाएंगी। असल में हमारा समाज जिन मूल्यों में आज भी जी रहा है, वह दूसरों की पीड़ा पर सुख महसूस करने के मूल्य हैं।

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या फिर वे मूल्य हैं, जो हमें ये बताते हैं कि तर्क नहीं भाग्य के भरोसे रहो। संघर्ष करने वालों की समाज तोडऩे और लूटपाट या हत्या करने वाले गिरोह जैसी तस्वीर बनाई जाती है।

लोकतंत्र का मतलब हमारे शासकों ने सिर्फ इतने खांचे में फिट कर दिया है कि वोट डालो और भूल जाओ। इसके अलावा कोई भी आवाज लोकतंत्र के खिलाफ है। अफसर, नेता, कोर्ट, सेना, पुलिस सब जनता के ऊपर हैं। इसी को लगभग सच मान लिया गया है, इसी में से किसी से इंसाफ की गुहार लगाने के अलावा कोई चारा नहीं है।

इस भ्रम को तोडऩे की जरूरत है। सबकुछ जनता की उम्मीद के नीचे है और बदलने योग्य है, इसका विश्वास जगाने की जरूरत है। जनता नागरिक अधिकारों के लिए जितनी सजग होगी, उसकी सेवक सभी इकाइयां उदार होने को बाध्य होंगी।

अगर बाध्य नहीं हुए तो उनको वैसे ही घुटने टेकने होंगे, जैसे अमेरिका में टेक रहे हैं। वैसे ही भागकर बंकर में छुपने को मजबूर होना पड़ेगा, जैसे अमेरिका में छुप रहे हैं।

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ashish saxena