राहत पैकेज की सच्चाई, कैसे मजदूरों की ही झोली से कुछ पैसा देने का ऐलान कर सरकार ने वाहवाही बटोरी

राहत पैकेज की सच्चाई, कैसे मजदूरों की ही झोली से कुछ पैसा देने का ऐलान कर सरकार ने वाहवाही बटोरी

हरीश पटेल

कोरोना वायरस से भय के माहौल में मजदूर बेगाने नागरिकों की तरह सड़कों पर पैदल चलकर मीलों का सफर तय कर रहे हैं और सरकार राहत पैकेज के झूठ का पुलिंदा दिखाकर धोखा देने से बाज नहीं आई। राहत असल में सरकार ने कहां से दी, इस सच्चाई को जानकर कोई भी हैरान हो सकता है।

40 करोड़ दिहाड़ी मजदूरों से पाल रहे परिवार

सिलसिलेवार बताते हैं कि कैसे मजदूरों का ही पैसा ठिकाने लगाया गया। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार देश में 43 करोड़ श्रम बल मौजूद था। जनसंख्या बढ़ोतरी की गति के अनुसार आज भारत में औपचारिक अनौपचारिक श्रमबल लगभग 55 करोड़ के आसपास होगा। अगर इसमें उच्च वेतन पाने वाले सरकारी अद्र्ध सरकारी श्रम बल की संख्या देखें तो यह लगभग 5 करोड़ के करीब होगी।

शेष बचे 50 करोड़ में छोटे बड़े सभी तरह के उद्योगों में लगे लोगों की संख्या 6 से 7 करोड़ के लगभग होगी। इसमें अगर हम मझोले स्तर के दुकानदारों की संख्या जोड़ दें तो यह लगभग 10 करोड़ के करीब हो जाती है। यानी, शेष 40 करोड़ कामगार देश में दिहाड़ी मजदूर के तौर पर अपना जीवन जीते है।

40 करोड़ के इस श्रमबल में तमाम श्रेणियां है। खेतिहर मजदूर, निर्माण श्रमिक, रिक्शे ठेले वाले, फेरी वाले, कुली, वन उपज इक_ा करने वाले, चाय बागान में काम करने वाले, पीस रेट पर काम करने वाले होम बेस्ड वर्कर आदि इत्यादि।

सुप्रीम कोर्ट के दखल से बन पाया कानून

दिहाड़ी मजदूरों की बड़ी आबादी का डाटा इक_ा करने और उसे चिह्नित करने के आधे-अधूरे प्रयास ही अब तक देश में हुए हैं। लंबी लड़ाई के बाद देश में निर्माण श्रमिकों के कल्याण के लिए एक कानून 1996 में बना।

तमाम वर्षों तक कानून अमल में नहीं आने पर सुप्रीम कोर्ट में दायर जनहित याचिका के दबाव में 2012- 13 तक जाकर पूरे देश में निर्माण श्रमिकों के बोर्ड का गठन हो पाया। इसके तहत एकत्रित सेस की राशि से श्रमिकों को लाभान्वित करने के कार्य में घोर लापरवाही रही है।

मजदूरों के वेलफेयर फंड से ही मदद देने का ऐलान

आज यूपी-दिल्ली समेत तमाम राज्यों की सरकार पंजीकृत मजदूरों के खाते में 1000 से लेकर 5000 रुपये तक भेजने की बात कर रही है। यह सभी घोषणाएं श्रमिकों के नाम पर जमा वेलफेयर फंड की धनराशि से ही उनको मदद देने की बात हो रही हैं।

सरकार अपने पास से इस मद में धनराशि खर्च नहीं कर रही है। इसके बावजूद सभी पंजीकृत श्रमिकों को मदद देने की जगह पंजीकरण पंजीकृत मजदूरों के एक छोटे हिस्से जिसके पंजीकरण का नवीनीकरण हुआ है। उसे ही लाभान्वित किए जाने की घोषणाएं की जा रही है।

यूपी के 60 लाख में से 20 लाख को ही मदद

यूपी में 60 लाख श्रमिक निर्माण बोर्ड में पंजीकृत है। लेकिन मदद केवल 20 लाख मजदूरों को देने की घोषणा की गई है। क्योंकि इतने ही मजदूरों के पंजीकरण नवीनीकृत है। दिल्ली की स्थिति तो और भी बुरी है, यहां 6 लाख पंजीकृत निर्माण श्रमिकों में केवल 31000 श्रमिक ही नवीनीकृत है।

इसलिए केवल 31000 श्रमिक ही मदद के पात्र माने जाएंगे। संकट की इस घड़ी में सभी निर्माण श्रमिकों को इस बोर्ड से मदद दी जा सकती थी। लेकिन वह भी सरकार को गवारा नहीं।

श्रमिकों की तिजोरी में हैं 52 हजार करोड़

पूरे देश में निर्माण श्रमिकों के बोर्ड में 3.50 करोड़ श्रमिक पंजीकृत हैं। और विभिन्न राज्यों के बोर्ड में लगभग 52000 करोड़ों रुपया जमा है।

यह श्रमिकों का पैसा है इसमें सरकार की कुछ भी हिस्सेदारी नहीं है। सभी निर्माण श्रमिकों को संकट की इस घड़ी में मदद देने के लिए तो धनराशि पहले से ही उनके बोर्डों में एकत्रित है। संकट की इस घड़ी में निर्माण श्रमिकों के लिये धन का अभाव नहीं है। उन्हें बिना सरकारी राशि के मदद दी जा सकती है।

10 हजार देने पर भी बचेगा 17 हजार करोड़

सभी पंजीकृत निर्माण श्रमिकों को यदि 10000 रुपये की मदद भी दी जाए, तब भी उनके नाम पर इक_ा 52000 करोड़ में से मात्र 35000 करोड़ ही खर्च होंगे।
वर्तमान सरकार तो पहले से ही नई सामाजिक सुरक्षा कोड नीति के तहत निर्माण कामगारों के इन बोर्ड को खत्म करने की नीति पर चल रही है।

25 करोड़ मजदूर तो चर्चा से ही बाहर

अब मामले के दूसरे पहलू पर आते हैं। श्रमिकों के साथ काम करने वाली कई संस्थाओं का मानना है कि देश में भवन व अन्य संनिर्माण कार्यों में प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष तौर पर 15 करोड़ लोग जुड़े हैं। कुछ राज्यों में खनन श्रमिकों को निर्माण श्रमिक माना जाता है तो कुछ राज्यों में ईट भट्टा मजदूरों को।

हर राज्य की नियमावली अलग अलग है। इसीलिए एक राज्य में जो श्रेणी कल्याण बोर्ड में पंजीकृत करने के लिए वैध है। दूसरा राज्य में उसे पंजीकरण के योग्य नहीं माना जाता। इस कारण निर्माण कार्य की तमाम उप श्रेणियों के कामगार तमाम राज्यों में पंजीकरण से बाहर हैं।

यानी, निर्माण कामगारों की कुल आबादी का लगभग एक चौथाई हिस्सा ही पंजीकृत है। उसके भी एक छोटे से हिस्से को मदद देने का विभिन्न राज्य सरकार एलान कर रही हैं। यूपी के उदाहरण से यह स्पष्ट है 60 लाख पंजीकृत श्रमिकों में से मात्र 20 लाख श्रमिक ही मदद के पात्र माने जाएंगे।

वर्तमान संकट के दौर में 40 करोड़ दिहाड़ी मजदूरों में से अगर 15 करोड़ निर्माण श्रमिकों को निकाल दें तो 25 करोड़ कामगार तो चर्चा से ही गायब हैं।

भूख और कुपोषण से 35 करोड़ पर मंडरा रहा संकट

तमिलनाडु, महाराष्ट्र समेत एक-दो राज्यों में ही निर्माण श्रमिकों के अलावा अन्य असंगठित कामगारों के बोर्ड कार्यरत हैं। इनमें भी गैर निर्माण असंगठित कामगारों की एक बहुत ही छोटी आबादी का पंजीकरण हुआ है।

migrant workerसरकार जिस नीति और नीयत से काम कर रही है, उससे ये साफ लग रहा है कि देश के लगभग 35 करोड़ दिहाड़ी कामगार भले ही कोरोना के संक्रमण से बच जाएं, लेकिन मदद के अभाव में भुखमरी और कुपोषण से जान पर बन आएगी।

(वर्कर्स यूनिटी स्वतंत्र निष्पक्ष मीडिया के उसूलों को मानता है। आप इसके फ़ेसबुकट्विटर और यूट्यूब को फॉलो कर इसे और मजबूत बना सकते हैं।)

ashish saxena